टिहरी जिले के घनसाली तहसील में आने वाले गनगर गांव को सेठों के गांव (अमीरों का गांव) के नाम से जाना जाता है. गांव का इतिहास 600 साल से पुराना है.
मौजूदा वक्त में गनगर गांव पलायन की मार झेल रहा है. लोग यहां से पलायन कर अन्य शहरों, महानगरों में बस गए, लेकिन देवीय पूजा हो या धार्मिक अनुष्ठान में सभी गांव आते हैं. इस दौरान गांव की रौनक देखते ही बनती है.
टिहरी रियासत के राजशाही दौर में सबसे समृद्धशाली और वैभव संपन्न गांवों में गनगर गांव एक था. गनगर गांव से टिहरी राजघराने के लिए अनाज जाया करता था.
राजशाही के दौर में बड़े-बड़े व्यापारियों और अनाज के उत्पादन से लेकर भंडारण तक के लिए सिर्फ गनगर गांव को जाना जाता था. राजघरानों के लिए कोठारों में अनाज का भंडारण होता था.
स्थानीय लोगों की मानें तो केमरपट्टी के सेठ गंगाराम के नाम से गनगर गांव जाना जाता था. यहां के कोठारों में राजा का अनाज भी रखा जाता था.
गांव में बनी दर्जनों कोठारे इस गांव की संपन्नता और वैभवता को बयां करती हैं. वक्त बदलता रहा और राजशाही का भी अंत हो गया और 1948 में टिहरी का भी स्वतंत्र भारत में विलय हो गया.
आजादी के बाद हुए विकास में टिहरी जिले का ये सीमांत गांव पीछे रह गया. सड़क, बिजली, पानी और स्वास्थ्य जैसी सुविधाओं की कमी के चलते गनगर पिछड़ता रहा और 2004 में गांव से पूरी तरह पलायन हो गया.
गनगर की वैभव और संपन्नता का प्रमाण इसी से मिलता है कि यहां के अस्सी प्रतिशत परिवार आज विदेशों में हैं, लेकिन जो लोग विदेश नहीं जा पाए उन्होंने 8 से 10 किलोमीटर दूर दूसरे गांवों में जमीन ले ली.
टिहरी का ये गांव मिसाल नहीं, नमूना बन गया है कि किस तरह राजनीति की उपेक्षा एक जीते जागते इलाके को 'भूतिया' बना देती है. यहां सेठों की बस्ती थी, जहां सिवाय खंडहर के कुछ नहीं!