दिन सोमवार तारीख 18 अक्टूबर और साल 2004. रेडियो से खबर सुनाई दी कि बर्बर और दुर्दांत चंदन तस्कर अपराधी कूसे मुनिसामी वीरप्पन यानि कि वीरप्पन को पुलिस ने मार गिराया है. मौत के 20 साल बाद हम उन इलाकों के विकास के बारे में बता रहे हैं जहां कभी वीरप्पन की तूती बोलती थी. विरप्पन की तूती तमिलनाडु , कर्नाटक और केरल के कई जंगली इलाकों में बोलती थी. जिसमें से इरोड, कोयंबटूर, नीलगिरी, धर्मपुरी कृष्णगिरी और सलेम जिलों के आदिवासी इलाके भी शामिल थे.


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बात बदलाव की!


सबसे पहले सकारात्मक बदलाव की बात करते हैं. टाइम्स ऑफ इंडिया (टीओआई) लिखता है कि वीरप्पन की मौत के बाद इस क्षेत्र में अब सड़कें, बिजली, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और राशन की दुकानें हैं. उसकी मौत के बाद से, राज्य आदिवासियों को मुख्यधारा में लाने की कोशिश कर रहा है, भले ही ये प्रयास छोटे हों.


शिवसुब्रमण्यम की जुबानी, वीरप्पन की कहानी
1990 के दशक की शुरुआत में वीरप्पन से मिलने वाले पहले तमिल पत्रकार पी शिवसुब्रमण्यम टीओआई से बातचीत में कहते हैं, "जब तक वीरप्पन जीवित था, तब तक ज़्यादातर सरकारी अधिकारियों में इन इलाकों में घुसने की हिम्मत नहीं थी." शिवसुब्रमण्यम के मुताबिक वीरप्पन की मौत के बाद इस इलाके में रियल एस्टेट का कारोबार काफी बढ़ा है. शिवसुब्रमण्यम कहते हैं कि जंगलों में बिना किसी नियम-कानून के रिसॉर्ट खुल गए हैं.


आदीवासी कार्यकर्ता का दर्द
वहीं टीओआई से बात करते हुए आदिवासी कार्यकर्ता वी पी गुनासेकरन कहते हैं कि अब आदिवासियों को उनके पारंपरिक चीजों से बाहर किया जा रहा है. बाहर के लोग जंगली इलाकों में पहुंचने के बाद नकदी फसल उगा रहे हैं. वी पी गुनासेकरन ने टीओआई को यह भी बताया, "नकदी फसलों को उगाने में पानी ज्यादा लगता है, जिसका असर यहां के लोगों और वन्यजीवों दोनों पर पड़ता है." इलाके में रोजगार की कमी के कारण लोगों का पलायन जारी है.


स्थानीय लोगों की वेदना
जंगल के इलाकों में रहने वाले आदिवासी समूह के लोगों ने टीओआई को बताया, “जब वीरप्पन ज़िंदा था, तब हम अपने मवेशियों को चराने के लिए जंगल में ले जाते थे. तब कोई प्रतिबंध नहीं था. लेकिन, अब वन अधिकारी हम पर जुर्माना ठोक देते हैं. ऐसी पाबंदियों की वजह से हमें अपने मवेशी बेचने पड़ते हैं.”


क्या कहता है वीरप्पन का पूर्व सहयोगी
टीओआई से बातचीत में वीरप्पन के एक पूर्व सहयोगी अंबुराज ने शिक्षा को लेकर बातचीत की. उन्होंने कहा कि जब तक यहां युवाओं और बच्चों को उचित शिक्षा नहीं मिलेगी, इन जंगलों में एक और वीरप्पन उभर सकता है. बता दें कि अंबुराज 18 साल जेल में बिताए और अब इरोड जिले के एंथियुर ब्लॉक में आदिवासियों के साथ मिलकर काम करते हैं.


कैसा था वीरप्पन का खौफ?
जिन इलाकों में वीरप्पन का धाक चलता था वहां के लिए वीरप्पन गैंग की ओर से दावा किया जाता था कि वे जंगलों में और उसके आसपास के लोगों के लिए बेहतर कल के लिए लड़ रहे हैं. वहीं सरकार की ओर से दावा किया जाता था कि विरप्पन के लोग आदीवासी इलाकों में विकास नहीं होने दे रहे हैं.


मीडिया रिपोर्टों में कहा गया है कि जिन गांवों में वीरप्पन का प्रभाव था उसमें से कई गांवों में मौत के बाद लोगों ने शोक मनाया. वहीं कई अन्य लोगों ने इस दुर्दांत डाकू के अंत का जमकर जश्न मनाया.


कौन था वीरप्पन?
यह वही वीरप्पन था जिसने तस्करी की दुनिया में खूब नाम कमाया. वीरप्पन न सिर्फ चंदन की लड़की का तस्करी करता था बल्कि हाथी दांत के लिए सैंकड़ों हाथियों को मौत की नींद सुला देता था.


घनी मूछें और दुबले-पतले शरीर वाला वीरप्पन कई साल पुलिस के लिए अबूझ पहेली बना रहा. वीरप्पन न सिर्फ तमिलनाडु , कर्नाटक और केरल की पुलिस के लिए सिरदर्द बना रहा बल्कि केंद्र सरकार के लिए भी यह अबूझ पहेली बना रहा.


करोड़ों रूपये के चंदन की तस्करी करने वाला वीरप्पन ने अपराधी दशक के दौरान डेढ़ सौ से ज्यादा लोगों की जान ले ली. इनमें आधे से अधिक लोग पुलिसकर्मी और वन अधिकारी या यूं कहें कि वन कर्मचारी शामिल थे.


वीरप्पन ने हर उस शख्स को मौत की घाट उतार दी जिसने उसके राह में किसी भी तरह से रोड़े अटकाने की कोशिश की. ...और फिर, 18 अक्टूबर, 2004 को, उसे पुलिस की तीन गोलियां लगीं, माथे, कूल्हे और पसली पर एक-एक. फिर सदा के लिए सो गया.