भारत-पाक युद्ध 1971 : भारतीय जवानों की 5 वीरगाथाएं जिन्हें पढ़कर आप रोमांचित हो उठेंगे
1971 का युद्ध में हमारे सैनिकों ने वीरता का वह परिचय दिया जिसके सामने पाकिस्तान की बड़ी फौज के भी छक्के छूट गए. यह युद्ध हमारे वीर सैनिकों की ऐसी तमाम गाथा से भरा हुआ है.
नई दिल्ली : आज पूरा देश 1971 में पाकिस्तान पर जीत का जश्न मना रहा है. यह युद्ध भारत और पाकिस्तान के बीच 13 दिन चला था. इस युद्ध में जहां भारत के वीर जवानों ने पाकिस्तान को सबक सिखाया वहीं, बांग्लादेश के रूप में एक नए देश का जन्म हुआ. इस युद्ध में हमारे सैनिकों ने वीरता का ऐसा परिचय दिया जिसके सामने पाकिस्तान की बड़ी फौज के भी छक्के छूट गए. यह युद्ध हमारे वीर सैनिकों की वीरगाथाओं से भरा हुआ है, जिन्होंने अपनी जान की परवाह नहीं करते हुए दुश्मन का डटकर सामना किया. भारत के एक-एक सैनिक का साहस पाकिस्तानी फौज की पूरी टुकड़ी पर भारी पड़ा था.
मेजर कुलदीप सिंह चांदपुरी
4 दिसंबर की शाम को मेजर कुलदीप सिंह चांदपुरी को सूचना मिली कि बड़ी संख्या में दुश्मन की फौज लोंगेवाला चौकी की तरफ बढ़ रही है. उस वक्त लोंगेवाला पोस्ट चांदपुरी सहित सिर्फ 90 जवान थे. 29 जवान और लेफ्टिनेंट धर्मवीर पेट्रोलिंग पर थे. आदेश मिला कि या तो दुश्मन का मुकाबला करें या फिर पैदल रामगढ़ के लिए रवाना हो जाएं. मेजर चांदपुरी ने दुश्मन के साथ दो-दो हाथ करने की ठानी. उनका लक्ष्य था कि किसी तरह पाकिस्तानी सेना को आगे बढ़ने से रोका जाए. अंधेरा घिर आने पर पाकिस्तानी टैंकों ने लोंगेवाला पोस्ट को घेर लिया. भारतीय सेना की जवाबी कार्रवाई इतनी दमदार थी कि पाकिस्तान सेना कुछ दूरी पर जाकर रुक गई. चांदपुरी के नेतृत्व में चंद जवानों ने पाकिस्तान के हजारों जवानों के हौसले पस्त कर दिए थे.
कैप्टन महेंद्र नाथ मुल्ला ने ली जल समाधि
6 दिसंबर को भारतीय नौसेना को संकेत मिले कि एक पाकिस्तानी पनडुब्बी 'हंगोर' भारतीय सीमा में आ गई है. नौसेना मुख्यालय ने आदेश दिया कि भारतीय जल सीमा में घूम रही इस पनडुब्बी को तुरंत नष्ट किया जाए और इसके लिए एंटी सबमरीन फ़्रिगेट आईएनएस खुखरी और कृपाण को भेजा गया. पाकिस्तानी 'हंगोर' ने पहला टॉरपीडो कृपाण पर चलाया, लेकिन फट नहीं पाया. इसके बाद खुखरी पर हमला किया गया. खुखरी पर दूसरा धमाका होते ही पूरे पोत की बत्ती चली गई. कैप्टन मुल्ला ने देखा कि खुखरी में दो छेद हो चुके हैं और उसमें तेजी से पानी भर रहा है. फनल से लपटें निकल रही थीं. जहाज पर सवार अन्य जवान जान बचाने के लिए पानी में कूद पड़े, लेकिन कैप्टन मुल्ला ने वहीं डटे रहने का फैसला किया. खुखरी के डूबते समय जहाज टूट गया. कैप्टन मुल्ला जहाज के इस मलबे के साथ जल समाधि में लीन हो गए.
खून से लथपथ थे फिर भी जारी रखी जंग
झारखंड के गुमला जिले में जन्मे अल्बर्ट एक्का ने 1971 की लड़ाई में खुद को कुर्बान कर दिया. अल्बर्ट एक्का ने अपनी बटालियन 'द ब्रिगेड ऑफ द गार्ड्स' के साथ ईस्टन फ्रंट डिफेंस के दौरान गंगासागर में दुश्मनों पर हमला किया. एक्का ने देखा कि बंकर से एक दुश्मन एलएमजी की मदद से उनकी टीम को नुकसान पहुंचा रहा है. उन्होंने उस बंकर पर हमला बोल दिया और अकेले ही सैनिक की जान ले ली. दुश्मन के कई सैनिक घायल हुए. इस दौरान एक्का बुरी तरह जख्मी हो गए. एक अन्य दुश्मन ने एमएमजी गन से इनकी टीम पर गोलियां बरसाना शुरू कर दिया. अल्बर्ट एक्का ने गंभीर चोटें होने के बावजूद भी हाथ ग्रेनेड लेकर उस दुश्मन पर हमला बोल दिया.
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छोटी सी अल्फा कंपनी
लोंगेवाला पहुंचने वाली भारी भरकम पाक फ़ौज का मुकाबला करने के लिए पंजाब रेजिमेंट की 23वीं बटालियन की अल्फ़ा कंपनी वहां तैनात थी जिसमें 120 जवान थे. इसके अलावा एक एंटी टैंक गन, दो रेकोइल लेस गन, एक सेक्शन MMG का और एक 81 मिमी के मोर्टार का था. 04 दिसम्बर की रात को एक बड़े हमले की तैयारी करके पाक फौज का एक काफिला लोंगेवाला के नज़दीक पहुंच गया. उनका प्लान था कि पहले लोंगेवाला पर कब्जा कर लिया जाए, उसके बाद 30 किमी आगे बढ़ कर रामगढ़ पर और फिर 78 किमी आगे जैसलमेर शहर पर कब्जा किया जाए. चूंकि ये जगह रेगिस्तान में थीं और आबादी नहीं थी इसलिए ये काम 24 घंटों में हो जाना था. लेकिन इस अल्फा कंपनी ने पाकिस्तान की बड़ी फौज को पूरी रात रोके रखा था.
खेत्रपाल ने उड़ा दिए पाकिस्तान के टैंक
पाकिस्तान ने कश्मीर को पंजाब से अलग करने के लिए शकरपुर में बसंतर नदी पर सैन्य बलों का अभेद्य किले जैसा जमावड़ा कर लिया था. भारतीय सेना के पास एक ही रास्ता बच गया था और वह था बसंतर नदी को पार करके पाकिस्तान की सीमा में सेंध मार दुश्मनों के हौसलों को पस्त करना. पाकिस्तान के 10 टैंकों के सामने दीवार बन कर खड़े थे भारत के तीन टैंक. एक टैंक पर लेफ्टिनेंट अरुण क्षेत्रपाल थे. भारत ने पाकिस्तान के 7 टैंक नष्ट कर दिए थे, लेकिन दो टैंकों को लीड करने वाले घायल हो चुके थे. सारी जिम्मेदारी अरुण के कंधों पर थी. अरुण के टैंक में भी आग लगी हुई थी. आदेश मिला कि वे वापस आ जाएं. अरुण ने वायरलेस बंद किया और अकेले ही मुकाबला करने का फैसला किया. अरुण ने दुश्मन के दो टैंक उड़ा दिए. लेकिन तभी एक गोला उनके टैंक पर आकर गिरा और अरुण बुरी तरह घायल हो गए. दुश्मन का आखिरी टैंक उनसे कुछ ही दूरी पर था. आमने-सामने के हमले में वीर सपूत अरुण ने दुश्मन को ध्वस्त करते हुए आंखें मूंद लीं.