देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की अंतिम इच्छा क्या थी?
Time Machine on Zee News: 27 मई 1964 को 74 वर्ष की उम्र में देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का निधन हो गया. लेकिन क्या आप जानते हैं कि नेहरू ने अपनी वसीयत या इच्छा पत्र में क्या लिखा था?
Zee News Time Machine: ज़ी न्यूज के खास शो टाइम मशीन में आज शनिवार को हम आपको बताएंगे साल 1964 के उन किस्सों के बारे में जिसके बारे में आप शायद ही जानते होंगे. ये साल देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के जीवन का अंतिम साल था. ये वही साल है जब भारत को 14 दिन के भीतर तीन प्रधानमंत्री मिले. इसी साल तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री अपने बेटे का रिपोर्ट कार्ड लेने स्कूल पहुंच गए थे. इसी साल दिग्गज समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया को अमेरिका में रंगभेद का शिकार होना पड़ा था. आइये आपको बताते हैं साल 1964 की 10 अनसुनी अनकही कहानियों के बारे में.
नेहरू की अंतिम इच्छा
27 मई 1964 को 74 वर्ष की उम्र में देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का निधन हो गया. लेकिन क्या आप जानते हैं कि नेहरू ने अपनी वसीयत या इच्छा पत्र में क्या लिखा था? नेहरू ने लिखा था कि मुझे भारत के लोगों से इतना प्यार और स्नेह मिला कि मैं इसका छोटा सा अंश भी उन्हें लौटा सकता हूं तो यह मेरे लिए बहुत गर्व की बात होगी. उन्होंने लिखा कि मैं पूरी ईमानदारी से घोषणा कर रहा हूं कि मैं नहीं चाहता कि मेरी मृत्यु के बाद किसी भी तरह का धार्मिक अनुष्ठान किया जाए. मैं किसी भी अनुष्ठान में विश्वास नहीं रखता. इसलिए मेरी मृत्यु के बाद ऐसा करना वास्तव में पाखंड होगा. मैं चाहता हूं कि जब मेरी मृत्यु हो तो मेरे शरीर का दाह संस्कार कर दिया जाए यदि मेरी मृत्यु विदेश में होती है तो मेरा दाह संस्कार वहीं कर दिया जाए और मेरी अस्थियां इलाहाबाद भेज दी जाए. इसमें से मुट्ठी भर अस्थियां प्रयागराज के संगम नदी में बहा दी जाए जो हिंदुस्तान के दामन को चुनते हुए समंदर में जा मिले. मेरी अस्थियों के कुछ हिस्से को हवाई जहाज से देश के खेतों में बिखेर दिया जाए, जहां हजारों मेहनतकश किसान काम करते हैं. मेरी अस्थियों को बचा कर ना रखा जाए और ना ही उसे संरक्षित किया जाए. नेहरू की इच्छानुसार ही उनका अंतिम संस्कार किया गया और हवाई जहाज के जरिए देश के कई हिस्सों में उनकी अस्थियां बिखेरी गई थीं.
1964 में 14 दिन में देश को मिले 3 प्रधानमंत्री
मई 1964 में जब देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू का निधन हुआ, तब उनका कोई उत्तराधिकारी नहीं था. उस वक्त तक देश की नई व्यवस्था में उत्तराधिकारी पहले से तय करने की कोई परंपरा या सिद्धांत नहीं था... इसलिए नेहरू के निधन के बाद आनन फानन में गुलजारी लाल नंदा को कार्यकारी प्रधानमंत्री बनाया गया था. गुलजारी लाल नंदा ने एक हफ़्ते तक प्रधानमंत्री के तौर पर काम किया, जिसके बाद 9 जून 1964 को लाल बहादुर शास्त्री ने भारत के नए प्रधानमंत्री के तौर पर शपथ ली थी. इस तरह साल 1964 में भारत में तीन प्रधानमंत्री हुए और वो भी महज़ दो हफ़्ते के अंदर. 27 मई 1964 तक नेहरू पीएम रहे, फिर 27 मई से 9 जून तक गुलजारी लाल नंदा और 9 जून 1964 से लाल बहादुर शास्त्री.
बेटे की रिपोर्ट कार्ड लेने स्कूल पहुंचे पीएम
लाल बहादुर शास्त्री ने प्रधानमंत्री पद पर होने के बावजूद कभी अपनी सरलता से समझौता नहीं किया... कभी अपने पद का फायदा उठाने की कोशिश तक नहीं की. प्रधानमंत्री होने के साथ-साथ एक पिता की जिम्मेदारी भी शास्त्री जी ने बखूबी निभाई. 1964 में जब शास्त्री प्रधानमंत्री बने तब उनके बेटे अनिल शास्त्री दिल्ली के सेंट कोलंबस स्कूल में पढ़ रहे थे. उस वक्त पैरेंट्स-टीचर मीटिंग नहीं हुआ करती थी. लेकिन अभिभावकों को उनके बच्चों का रिपोर्ट कार्ड लेने के लिए स्कूल जरूर बुलाया जाता था. शास्त्री जी ने भी तय किया कि वो अपने बेटे का रिपोर्ट कार्ड लेने उनके स्कूल जाएंगे. स्कूल पहुंचने पर शास्त्री जी ने देखा कि किसी भी अभिभावक की गाड़ी स्कूल परिसर के अंदर नहीं जा रही थी. ये देख शास्त्री जी भी अपने बेटे अनिल शास्त्री के साथ गेट पर ही गाड़ी से उतर गए और उनको लेकर क्लास में पहुंचे. जब क्लासटीचर ने अपने सामने प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री को देखा तो वो चौंक पड़े और कहा, 'सर, आपको रिपोर्ट कार्ड लेने के लिए यहां आने की जरूरत नहीं थी. आप किसी को भी भेज देते.' टीचर की इस बात का जवाब देते हुए शास्त्री जी ने कहा,'मैं वही कर रहा हूं जो मैं पिछले कई सालों से करता आया हूं और आगे भी करता रहूंगा.'
रंगभेद का शिकार राम मनोहर लोहिया!
रंगभेद, यानी किसी व्यक्ति का उसके रंग के आधार पर अपमान करना. ऐसी ही रंगभेदी मानसिकता का शिकार बने थे दिग्गज समाजवादी नेता और लोकसभा सदस्य डॉक्टर राम मनोहर लोहिया और वो भी अमेरिका में दरअसल अप्रैल 1964 में राम मनोहर लोहिया अपनी विश्व यात्रा के दौरान अमेरिका पहुंचे थे और वहीं वो रंगभेद का शिकार बने थे. लोहिया मिसीसिपी के जैक्सन शहर के तौगुलू कालेज में लेक्चर देने गए थे. उनके साथ राइटर रूथ स्टीफ़न और कॉलेज के प्रेसीडेंट बीटल्स भी थे. लोहिया वहां के मोरीजान कैफेटेरिया में लंच करने गए. उस वक्त लोहिया पारंपरिक भारतीय परिधान धोती कुर्ता पहने थे. जैसे ही लोहिया कैफेटेरिया में पहुंचे, वहां के मैनेजर ने उनसे बदतमीजी की. काले होने की वजह से लोहिया को लंच करने नहीं दिया गया. राम मनोहर लोहिया ने कैफेटेरिया के मैनेजर के इस रंगभेदी बर्ताव का विरोध किया. जिसका नतीजा ये हुआ कि वहां पुलिस पहुंच गई और लोहिया को गिरफ्तार कर लिया गया. हालांकि इस घटना की जानकारी मिलने पर अमेरिका के तत्कालीन उपविदेश मंत्री जार्ज बाल ने मिसीसिपी राज्य सरकार से लोहिया को तुरंत रिहा करने और इस बर्ताव के लिए भारतीय दूतावास से माफी मांगने का आदेश जारी किया था.
रामेश्वरम चक्रवात से वीरान हो गया धनुषकोडी
भारत के दक्षिणी छोर पर एक छोटी सी जगह है, जो 1964 में आए रामेश्वरम चक्रवात की चपेट में आकर वीरान हो गई थी. 1964 में आए रामेश्वरम चक्रवात से पहले धनुषकोडी भारत के बेहतरीन स्थलों में एक था. उस वक्त धनुषकोडी में रेलवे स्टेशन, अस्पताल, चर्च, होटल और पोस्ट ऑफिस भी थे. लेकिन 1964 में आए रामेश्वरम चक्रवात ने सबकुछ तबाह कर दिया. रामेश्वरम चक्रवात को भारत में आए सबसे खतरनाक चक्रवातों में एक माना जाता है. कहा जाता है कि 1964 में आए चक्रवात की चपेट में आकर सौ से अधिक यात्रियों वाली एक रेलगाड़ी पलटकर समुद्र में डूब गई थी. 1964 की तबाही के बाद ये जगह सुनसान हो गई. ऐसा कहा जाता है कि धनुषकोडी वो जगह है, जहां श्रीराम ने हनुमान को एक पुल बनाने का निर्देश दिया था ताकि वानर सेना रावण की लंका तक पहुंच सके. ऐसी मान्यता भी है कि लंका में रावण का वध करने के बाद विभीषण ने श्रीराम से कहा था कि वो लंका तक जाने वाले सेतु को तोड़ दें, जिसके बाद श्रीराम ने अपने धनुष से सेतु के एक छोर को तोड़ दिया और तभी से इसका नाम धनुषकोडी पड़ गया. 1964 के चक्रवात के बाद धनुषकोडी जाने वाले लोगों ने वहां कई असमान्य गतिविधियां महसूस की. कई लोगों ने दावा किया कि उन्हें अपने आसपास किसी और की मौजूदगी का एहसास होता है. जब ऐसे मामले बढ़ने लगे तो तमिलनाडु सरकार ने वहां लोगों के रहने पर पाबंदी लगा दी और साथ ही ये भी आदेश जारी किया कि दिन ढलने के बाद वहां कोई नहीं रुकेगा.
हॉकी में भारत की पाकिस्तान को मात!
भारत और पाकिस्तान के बीच होड़ की कहानियां बरसों पुरानी हैं. बंटवारे के बाद से ही पाकिस्तान हर मोर्चे पर भारत को पछाड़ने की कोशिश करता आया है, लेकिन हर बार और हर मोर्चे पर पाकिस्तान को मुंह की खानी पड़ी. कुछ ऐसा ही नज़ारा साल 1964 में भी देखने को मिला. 1964 में टोक्यो ओलंपिक में हॉकी के फ़ाइनल में भारत और पाकिस्तान की टीमें आमने-सामने थीं. उस मैच में तनाव इतना ज़्यादा था कि रेफ़री को कई बार दखल देना पड़ा था. उस हाई टेंशन मुकाबले में भारतीय हॉकी टीम ने पाकिस्तान को 1-0 से हराकर टोक्यो ओलंपिक के गोल्ड मेडल पर कब्जा जमाया था. ओलंपिक में भारतीय हॉकी टीम का ये सातवां गोल्ड मेडल था. भारतीय टीम ने सेमीफाइनल में आस्ट्रेलिया को 3-1 से हराया था. वहीं पाकिस्तान के खिलाफ भारत का ये लगातार तीसरा ओलंपिक फाइनल था और टोक्यो में जीत भारत के नाम रही.
भारतीय सेना में शामिल होने वाली पहली महिला
1964 ही वो साल है जब भारतीय सेना की पहली महिला पैराट्रूपर लेफ्टिनेंट कर्नल जे फरीदा रेहाना भारतीय सेना में शामिल हुई थीं. महिलाएं किसी पुरुष से कम नहीं होती. इस बात को भारतीय सेना की लेफ्टिनेंट कर्नल जे फरीदा रेहाना ने हर कदम पर साबित किया. 1962 में जब फरीदा रेहाना अपनी मेडिकल की पढ़ाई कर रही थीं, उन्हीं दिनों भारत और चीन के बीच युद्ध हुआ था. उस युद्ध में भारत की हार से फरीदा काफी दुखी हुई थीं और तब उन्होंने ये ठान लिया था कि मेडिकल की परीक्षा पूरी होते ही वो सेना जॉइन करेंगी. 1964 में वो दिन आया जब फ़रीदा रेहाना भारतीय सेना का हिस्सा बनीं. रेहाना भारतीय सेना की पहली महिला सर्जन भी थीं. सेना में डॉक्टर बनना ही फरीदा का अंतिम लक्ष्य नहीं था. उन्होंने सेना में पैराट्रूपर बनने का फैसला किया. फरीदा का ये फैसला आसान नहीं था और तीन बार उनका एप्लिकेशन रिजेक्ट हो गया. लेकिन चौथे प्रयास में फरीदा को कामयाबी मिली और वो सेना में पैराट्रूपर बनीं.
यूरोप में शूट हुई संगम
1964 में रिलीज़ हुई राजकपूर की फिल्म 'संगम' भारत की पहली फिल्म थी, जिसे विदेश में शूट किया गया था. फिल्म लव ट्राएंगल पर आधारित थी, जिसमें राजकपूर, वैजयंती माला और राजेंद्र कुमार के बीच प्रेम त्रिकोण दिखाया गया था. जिसने संगम फ़िल्म देखी होगी, उन्हें शायद याद होगा कि जब राजकपूर वैजयंती माला से शादी करने के बाद हनीमून पर जाते हैं. ये सीन यूरोप में ही शूट किया गया था. राजकपूर और वैजयंतीमाला के रोमांटिक सीन वेनिस, पेरिस और स्विटजरलैंड में फिल्माए गए थे. कलाकारों के साथ पूरी टेक्निकल टीम यूरोप के कई लोकेशंस पर ले जाने और शूटिंग करने पर राजकपूर को पानी की तरह पैसा बहाना पड़ा था. लेकिन फिल्म संगम की सफलता ने उनका सारा मलाल धो डाला था. संगम के साथ एक दिलचस्प तथ्य ये भी है कि ये राजकपूर प्रोडक्शंस की पहली रंगीन फिल्म थी.
धर्मेंद्र को देख क्यों रोए हजारों लोग?
1962 में चीन ने धोखे से भारत की पीठ में खंजर भोंका था. भले ही भारत 62 का युद्ध हार गया था लेकिन मां भारती के शूरवीरों ने चीन की सेना को नाकों चने चबवा दिए थे. इस पराजय पर एक फिल्म बनाना अपने आप में बेहद मुश्किल काम था. युद्ध के दो साल बाद यानी 1964 में भारत-चीन युद्ध पर एक फ़िल्म बनी. जिसका नाम था हकीकत. अममून फिल्मकार हार और निराशा से जुड़ी कहानियों पर फ़िल्म बनाने से कतराते हैं लेकिन चेतन आनंद ने ये जोखिम उठाया और 1962 के भारत-चीन युद्ध पर ‘हकीकत’ जैसी फिल्म बनाई. इस फ़िल्म में युद्ध के मैदान में डटे जांबाज़ सैनिकों की कहानी बेहद मार्मिक अंदाज़ में दिखाई गई थी. फिल्म में धर्मेंद्र और बलराज साहनी के किरदारों ने जान फूंक दी थी. इस फिल्म को देखने के बाद दर्शक आंखों से आंसू पोंछते हुए सिनेमाघरों से बाहर निकलते थे. ये फिल्म युद्ध में शामिल उन हजारों जवानों की हिम्मत और हौसले की दास्तान है, जिन्होंने भूख-प्यास, परिवार, दर्द और मुश्किलों की परवाह किए बगैर देश पर अपनी जान न्यौछावर कर दी. चीन के धोखे और भारतीय सैनिकों के हौसले की कहानी पर बनी ये फिल्म आज भी देशभक्ति पर बनी बेहतरीन फिल्मों में शुमार है.
कम्बोडिया के 'रक्षक' हनुमान!
रामायण महाकाव्य केवल भारत में ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में पसन्द की जाती है, इसका एक प्रमाण 1964 में मिला, जब 10 अक्टूबर 1964 को कंबोडिया ने हनुमान जी की एक तस्वीर को डाक टिकट पर जारी किया. दरअसल 1964 में समर ओलंपिक्स में कंबोडिया के एक डाक टिकिट पर हनुमान जी की तस्वीर को चित्रित किया गया. कंबोडिया में इस डाक टिकिट पर हनुमान जी की इस तस्वीर को उनकी याद के तौर पर चित्रित किया गया था. आपको बता दें कि, कंबोडिया के अंगकोर वाट में दुनिया का सबसे बड़ा हिंदू मंदिर है और यहां आज भी लाखों की संख्या में श्रद्धालु दर्शन करने जाते हैं.
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