मुंबई: महाराष्ट्र (Maharashtra) में मुख्यमंत्री पद के लिए उद्धव ठाकरे (Uddhav Thackeray) का नाम सर्वसम्मत्ति से उभरा है. उनकी अपनी पार्टी के तमाम विधायकों ने एक सुर में मांग की उद्धव ठाकरे ही मुख्यमंत्री बनें. इसके अलावा, कांग्रेस और एनसीपी भी शिवसेना को कह चुके हैं कि उनके लिए उद्धव ठाकरे ही मुख्यमंत्री के तौर पर ज्यादा स्वीकार्य होंगे. शरद पवार (Sharad Pawar) तो आखिरी मौके तक उद्धव ठाकरे को आग्रह कर रहे थे कि वे मुख्यमंत्री बन जाएं. मगर इस तमाम दबावों के बीच उद्धव ने मुख्यमंत्री का पद लेने से मना कर दिया है. दरअसल, उद्धव एक तीर से कई निशाने साधने की उतनी कोशिश नहीं कर रहे जितनी कि वे अनेक तीरो से खुद को निशाना बनाने से बचा रहे हैं.  


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इसके लिए शिवसेना की राजनीति समझने की ज़रूरत है. शिवसेना एक व्यक्ति आधारित पार्टी ज्यादा रही. बालासाहेब ठाकरे ही नेता थे और वे ही विचारधारा थे. शिवसेना एक राजनैतिक दल से ज्यादा एक संगठन था जो लोकतांत्रिक तरीको में पूरा यकीन नहीं रखता था. इसलिए दंगे हो, BCCI का ऑफिस तोड़ना हो, पकिस्तान इंडियन मैच न होने देने के लिए वानखेड़े स्टेडियम की पिच खोदना, वैलेंटाइन डे का विरोध या फिल्मों पर बैन जैसे कई वाकये इस बात की चुगली करते हैं. 


ठाकरे सरनेम का जो आभामंडल शिवसेना के अंदर और उसके परंपरागत मतदाताओं में था, वही शिवसेना के लिए एनर्जी का पावर हाउस रहा है. ठाकरे को कभी किसी के सामने मज़बूर होना, झुकना, ब्लैकमेल होना, लचीला होना, नाराज़ को मनाना, ये ऐसी बाते हैं जो शिवसेना को कहीं से गंवारा नहीं होती. जाहिर सी बात है और राजनैतिक इतिहास भी गवाह है कि मुख्यमंत्री को अपनी कुर्सी बचाने के लिए पांच साल में कई बार समझौते करने पड़ते हैं और अपने से छोटे दलों के आगे कभी कभी झुकना पड़ता है. ये भी एक वजह थी कि स्वर्गीय बालासाहेब ठाकरे 1995 में मुख्यमंत्री न बने और रिमोट कंट्रोल से सरकार चलाई. यही वजह है कि अगर  उद्धव मुख्यमंत्री बनते हैं और कांग्रेस-एनसीपी के समर्थन से सरकार का नेतृत्व करते तो राजनैतिक कलाबाजी के उस्ताद शरद पवार और सरकारों से समर्थन वापस खींचकर सरकार गिराने का इतिहास रखने वाली कांग्रेस मिलकर या अकेले भी इतना तो तय कर लेते कि उद्धव को उनके दरवाजे पर सरकार बचाने के लिए आना पड़ता. सरकार भले ही बच जाती लेकिन शिवसेना का बचे खुचे बेस और आत्मसम्मान को नुकसान पहुंचता क्योंकि कांग्रेस से तालमेल को लेकर शिवसेना और उसके मतदाताओं का एक वर्ग उद्धव से नाराज है. 


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दूसरी वजह उद्धव की सेहत. उद्धव की दो बार एंजियोप्लास्टी हो चुकी है और ब्लॉकेज हटाए जा चुके हैं. उनकी सेहत ऐसी भी नहीं है कि रोज़ाना 15-16 घंटे काम कर सकें. इतना काम का बोझ तो महाराष्ट्र जैसे बड़े राज्य के मुख्यमंत्री से अधिकतम अपेक्षित है. उद्धव के बेटे आदित्य को जूनियर बताकर कांग्रेस एनसीपी ने वीटो लगा दिया था. ऐसे में किसी भी ठाकरे सरनेम वाले व्यक्ति का मुख्यमंत्री बनाना आधार में अटक गया है.


मगर उद्धव के पास विकल्प है. मुख्यमंत्री की कुर्सी पर कोई भी बैठे, रिमोट कंट्रोल उनके हाथ में ही होगा. आगे अगर कभी परिस्थिति बदली तो कभी सरकार बचाने के नाम पर मुख्यमंत्री बदल सकते हैं या फिर साख बचाने के लिए सत्ता का त्याग कर सकते हैं. उद्धव ने अपने आपको कांग्रेस-एनसीपी के भविष्य के राजनैतिक हमले से काफी हद तक बचाने की कोशिश की है. सीएम का पद छोड़कर अपने कैडर में अपना कद बढ़ा लिया है. राम मंदिर मसले में अपने क्रेडिट को ना छोड़ना, दबाव में हिंदुत्व राजनीति को कमजोर करना या छद्म धर्मनिरपेक्षतावाद से बचने के लिए उद्धव ने सुरक्षा कवच बना लिया है. या कहें कि आगे कभी जरूरत पड़ी तो पाला बदलने या कांग्रेस एनसीपी को छोड़ने के हाईवे नहीं तो पगडंडी तो बना ही ली है.