Om Prakash Rajbhar In NDA: गणित में एक और एक का जोड़ दो होता है लेकिन सियासत में ऐसा नहीं होता. सियासी लड़ाई में जीत के फॉर्मूले में सिर्फ अंकगणित नहीं बल्कि मतदाताओं की केमिस्ट्री महत्वपूर्ण होती है. अगर मामला सिर्फ अंकगणित तक सीमित होता तो यूपी के पूर्वांचल इलाके में अपने असर का दावा करने वाले सुहेलदेव बहुजन समाज पार्टी के मुखिया ओम प्रकाश राजभर की जीत आजमगढ़, गाजीपुर, बलिया, मऊ अंबेडकरनगर की सभी सीटों पर होती लेकिन 2022 यूपी विधानसभा चुनाव के नतीजे उनके लिए खास नहीं रहे. विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद से ही सियासी पिच उनके बैटिंग के अंदाज से लगने लगा कि समाजवादी पार्टी के साथ सफर लंबा नहीं चलने वाला है. एक साल बाद समाजवादी पार्टी के साथ उनके सफर पर विराम लग गया और अब वो एक बार फिर एनडीए का हिस्सा बन चुके हैं. यहां हम समझने की कोशिश करेंगे कि ओमप्रकाश राजभर का एनडीए में दाखिल कितना बीजेपी और खुद उनके लिए कितना फायदेमंद है.


COMMERCIAL BREAK
SCROLL TO CONTINUE READING

ओमप्रकाश राजभर का असर


राजनीति के जानकार बताते हैं कि इसमें दो मत नहीं कि ओमप्रकाश राजभर गैर यादव पिछली जाति यानी राजभर समाज में गहरी पैठ है. अगर बलिया, गाजीपुर, आजमगढ़, सलेमपुर, अंबेडकर नगर बहराइच, गोंडा,जौनपुर और बनारस की बात करें चो एक एक विधानसभा में राजभर समाज के वोटर्स की संख्या लाखों में है लेकिन यह नंबर उन्हें बिना किसी दूसरे के सहयोग से विधानसभा में दाखिल कराने के लिए पर्याप्त नहीं हैं. 2017 यूपी विधानसभा चुनाव के नतीजे और 2022 के नतीजों से साफ हो गया कि वो किसी को हराने की वजह तो बन सकते हैं लेकिन खुद की कूवत अकेले जीत हासिल करने के लिए नहीं है. अगर आप आजमगढ़ के नतीजों को देखें तो 2022 में किसी भी सीट पर कामयाबी नहीं मिली. मऊ जिले में सदर सीट पर उनके दल से मुख्तार अंसारी के बेटे अब्बास अंसारी को कामयाबी मिली लेकिन उस जीत को लेकर वो अलग तरह के तर्क पेश करते हैं, गाजीपुर में सिर्फ वो अपनी सीट जीत पाने में कामयाब रहे हालांकि दूसरी सीटों पर सपा को कामयाबी मिली. इस तरह की गणित से साफ है कि वो किसी दूसरे दल की जीत और हार की वजह बन सकते हैं.


राजभर के लिए एनडीए साथ क्यों है जरूरी


ऐसी सूरत में ओम प्रकाश राजभर ने एनडीए में जाना जरूरी क्यों समझा. इस सवाल के जवाब में पूर्वांचल की राजनीति की गहरी समझ रखने वालों का मानना है कि कोई भी राजनीतिक दल जिसका प्रभाव सीमित क्षेत्र में हो, उसके पास संसाधनों की कमी हो वैसी सूरत में उसके लिए लंबे समय की राजनीति करना आसान नहीं है, दरअसल पार्टी से जुड़े कार्यकर्ताओं और उनके कोर वोटबैंक की जरूरतें पूरी नहीं हो पाती. चूंकि इनका आधार वैचारिक नहीं होता लिहाजा मतदाताओं के छिटकने का खतरा अधिक होता है. इस तरह के हालात में ओम प्रकाश राजभर के लिए यह ज्यादा फायदेमंद दिखा कि सत्ताधारी पार्टी से जुड़कर वो अपने आपको प्रासंगिक बनाने के साथ साथ खुद को मजबूत कर सकते हैं.


राजभर को एनडीए में लाने की वजह


अब बात बीजेपी की. बीजेपी, यूपी के महत्व को समझती है, 2019 के लोकसभा चुनाव में जब ओमप्रकाश राजभर का साथ नहीं रहा तो उसका असर पूर्वांचल की कई सीटों पर पड़ा. यही नहीं पूर्वांचल के कई जिलों की विधानसभाओं पर जीत नहीं दर्ज करा सकी. बीजेपी के रणनीतिकारों को लगता है कि बिना सामाजिक आधार को मजबूत किए यूपी में जीत हासिल करना आसान नहीं है लिहाजा अलग अलग पॉकेट्स में जिन नेताओं की अच्छी पैठ हो उन्हें अपने पाले में लिया जाए और उसी कवायद में एसबीएसपी मुखिया ओम प्रकाश राजभर को साधा गया.