नई दिल्ली: दुनिया भर की लाइब्रेरी में मौजूद किताबों और कॉलेजों में पढ़ाई जाने वाली पॉलिटिकल साइंस की किताबों में ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री Winston Churchill को जरूर एक महान और मजबूत नेता के तौर पर पेश किया गया है. लेकिन भारत के संदर्भ में अगर आप देखें तो वो एक क्रूर और निर्दयी नेता थे. Winston Churchill की भारत के प्रति नफरत की वजह से वर्ष 1943 में बंगाल में 40 लाख लोग भूखे मर गए थे. क्योंकि चर्चिल ने उनके हिस्से का अनाज विश्व युद्ध लड़ रही अपनी सेना में बांट दिया था. आइए जानते हैं कि भूख से 40 लाख लोगों की मौत के बाद उस समय महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू जैसे नेताओं ने क्या किया था.


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आप ये जानकर हैरान रह जाएंगे कि बंगाल में पड़े इस अभूतपूर्व अकाल के दौरान मोहम्मद अली जिन्ना ने Winston Churchill का साथ दिया था और लाखों लोगों को मरने के लिए छोड़ दिया था.


सबसे बड़ी मानव त्रासदी का कारण Churchill


वर्ष 1874 में 30 नवंबर को ही ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री Winston Churchill का जन्म हुआ था. Churchill वर्ष 1940 से 1945 तक ब्रिटेन के प्रधानमंत्री रहे. ये वही दौर था, जब अंग्रेजों के खिलाफ महात्मा गांधी भारत छोड़ो आन्दोलन चला रहे थे और ब्रिटेन मित्र देशों की सेनाओं के साथ जर्मनी के खिलाफ दूसरा विश्व युद्ध लड़ रहा था. ये तमाम घटनाक्रम इतिहास की किताबों से भरे पड़े हैं और शायद आपको इनके बारे में पता भी हो. लेकिन क्या आप जानते हैं कि भारत के इतिहास की सबसे बड़ी मानव त्रासदी का कारण भी यही Winston Churchill थे.


अकाल के दौरान भूखे मरे 40 लाख लोग  


भारत 1947 के जिस विभाजन को आज भी भुला नहीं पाया है, उसमें 10 से 20 लाख लोग मारे गए थे. लेकिन विभाजन से चार वर्ष पहले 1943 में संयुक्त बंगाल में जो अकाल पड़ा था, उसमें 40 लाख लोग भूखे मर गए थे. ये अकाल प्राकृतिक कारणों से नहीं बल्कि ब्रिटेन के तत्कालानी प्रधानमंत्री Winston Churchill के गलत फैसलों और नीतियों की वजह से पड़ा था. हैरानी की बात ये है कि इतनी बड़ी मानव त्रासदी को महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू जैसे नेताओं ने भी नजरअंदाज कर दिया था.


महात्मा गांधी ने बंगाल के अकाल के लिए क्या किया?


महात्मा गांधी ने अपने जीवनकाल में लगभग 17 भूख हड़ताल की. वर्ष 1943 में जब बंगाल में लोग भूख की वजह से सड़कों पर दम तोड़ रहे थे, तब भी उन्होंने 21 दिनों के लिए खाना पीना त्याग दिया था. लेकिन ये हड़ताल बंगाल के लोगों के लिए नहीं थी. ये हड़ताल इसलिए थी ताकि वो अंग्रेजी सरकार द्वारा की गई उनकी गिरफ्तार का विरोध कर सकें. इतिहास से जुड़े ये वो तथ्य हैं, जिनके बारे में कभी भी ईमानदारी से आपको नहीं बताया गया. लेकिन ये आपको जानने जरूरी हैं.


अपनी महानता के कसीदे खुद पढ़ता Churchil


Winston Churchil ने एक बार कहा था कि 'History Will Be Kind To Me, For I Intend to Write It'. यानी वो कह रहे थे कि इतिहास उन्हें अच्छे नजरिए से देखेगा क्योंकि उनका इरादा है कि वो खुद इतिहास लिखें. Winston Churchil ने ऐसा किया भी. उन्होंने ऐसा इतिहास लिखा जो उन्हें महान साबित करता है. लिबरल इतिहासकारों ने उनका अनुसरण किया और उन्हें युग पुरुष और नायक का दर्जा दे दिया. लेकिन चर्चिल की महानता एक झूठे इतिहास की बुनियाद पर खड़ी है.


सबकुछ जानने के बाद भी मौन रहा Chruchil  


वर्ष 1943 में जब बंगाल में सूखे की वजह से भयानक अकाल पड़ा था, उस समय ब्रिटेन दूसरे विश्वयुद्ध में मित्र देशों का नेतृत्व कर रहा था. तब ब्रिटेन के प्रधानमंत्री Winston Chruchil थे और भारत के Viceroy Victor lin-lithgow थे. उन्होंने तीन महीने पहले ही Winston Chruchil को आगाह कर दिया था कि भारत में एक बड़ा अनाज संकट आने वाला है और ब्रिटेन की सरकार को इस संदर्भ में कुछ करना चाहिए. लेकिन Winston Chruchil ने इन सारी चेतावनियों को नजरअंदाज कर दिया और भारत के हिस्से का अनाज दूसरा विश्वयुद्ध लड़ रहे सैनिकों के लिए रवाना कर दिया. नतीजा ये हुआ कि उस समय के बंगाल में भयंकर अकाल पड़ गया और करीब 40 लाख लोग इस अकाल में मारे गए. इस दौरान जब Winston Chruchil से इस बारे में पूछा गया तो उन्होंने जो जवाब दिया, वो आपको क्रोध से भर देगा.


भारतीय लोगों के बारे में Churchil की टिप्पणी 


उन्होंने कहा- मैं भारत के लोगों से नफरत करता हूं. भारत के लोग जानवरों जैसे हैं और उनका धर्म भी जानवरों जैसा है. ये अकाल भारत के लोगों की गलती है क्योंकि वो खरगोश की रफ्तार से बच्चे पैदा करते हैं.


भारतीयों के हिस्से के अन्न को छुपा कर बैठे अंग्रेज


जिस समय संयुक्त बंगाल, जिसमें आज का बांग्लादेश भी आता है, वहां लाखों लोग भूख से तड़प कर मर गए थे, तब Winston Chruchil ने ब्रिटेन के लोगों के लिए 400 करोड़ किलोग्राम गेहूं और आटा, 140 करोड़ किलोग्राम चीनी, 160 करोड़ किलोग्राम मीट, 4 लाख 9 हजार जिंदा जानवर, 32 करोड़ किलोग्राम मछलियां, 13 करोड़ किलोग्राम चावल, 20 करोड़ किलोग्राम चाय पत्ती और 41 लाख लीटर शराब जमा करके रख ली थी.


उस दौरान मौन थे भारतीय नेता


यानी जब बंगाल के लोग भूख से मर रहे थे, तब ब्रिटेन के लोग चाय की चुस्कियां ले रहे थे और हाथ में महंगी शराब के ग्लास लेकर भारत की गरीबी पर चर्चा कर रहे थे. हालांकि इससे भी ज्यादा अफसोस की बात ये है कि तब भारत के बड़े नेताओं ने इस स्थिति के लिए कभी भी अंग्रेजी सरकार को दोष नहीं दिया और मोहम्मद अली जिन्नाह की मुस्लिम लीग पार्टी ने तो अंग्रेजी सरकार की गलत नीतियों में उसका साथ भी दिया.


अपने एजेंडे में व्यस्त थी मुस्लिम लीग


असल में उस समय बंगाल में मुस्लिम लीग की सरकार थी और मुख्यमंत्री ख्वाजा नजीमुद्दीन थे. तब भारत में अलग-अलग प्रांतों की सरकारें होती थीं और इन सरकारों का नियंत्रण अंग्रेजी सरकार के पास होता था. बंगाल में मुस्लिम लीग की सरकार तो थी लेकिन उसका एक ही मकसद था, भारत का बंटवारा. ये बंटवारा तभी संभव था, जब अंग्रेजी सरकार इसके लिए राजी होती. इसके लिए मुस्लिम लीग ने तय किया कि वो ब्रिटिश सरकार के किसी भी फैसले का विरोध नहीं करेगी और दूसरे विश्व युद्ध में भी उसका खुला समर्थन करेगी. इस दौरान जब बंगाल में अकाल पड़ा और लाखों लोग अपनी भूख मिटाने के लिए पलायन करके गांवों और कस्बों से कलकत्ता और ढाका की सड़कों पर जमा होने लगे, तो इन लोगों का पेट भरने के लिए मुस्लिम लीग ने कोई कोशिश नहीं की.


मुस्लिम लीग ने दिया अंग्रेजों का साथ


इस बात को जब कुछ अखबारों में तस्वीरों के साथ प्रकाशित किया गया तो मुस्लिम लीग पर भी सवाल उठे और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ब्रिटेन की भी बदनामी हुई. उस दौरान कुछ अखबारों को छोड़ कर, ज्यादातर प्रेस बंगाल के अकाल को कवर कर रहा था और कंकालों की तस्वीरें अखबारों में प्रमुखता से छापी जा रही थीं. इससे निपटने के लिए अंग्रेजी सरकार ने मुस्लिम लीग की मदद ली और ये तय हुआ कि जिन्नाह की पार्टी कलकत्ता और ढाका की सड़कों पर पड़े कंकालों और भूख से तड़पते लोगों को ट्रकों में भर कर दूसरे शहरों में छोड़ कर आएगी. यानी मुस्लिम लीग ने बंटवारे के लिए 40 लाख लोगों की हत्या में अंग्रेजी सरकार का साथ दिया. और इसका जिक्र एक पुस्तक में भी किया गया है, जिसका शीर्षक है Churchill's Secret War. 


वामपंथियों ने भी नहीं की बंगाल की मदद


मुस्लिम लीग की तरह भारत की लेफ्ट पार्टियां और वामपंथी नेता भी अंग्रेजी सरकार के वफादार बने हुए थे. क्योंकि दूसरे विश्व युद्ध में ब्रिटेन ने सोवियत संघ के साथ हाथ मिला लिया था और भारत के वामपंथी नेता ये कह रहे थे कि सोवियत संघ जिस देश के समर्थन में होगा, वो उस देश का कभी विरोध नहीं करेंगे. इस वजह से जिस बंगाल ने इस देश को सबसे ज्यादा वामपंथी नेता दिए, उन्हीं नेताओं ने बंगाल के लोगों को बचाने की कोशिश नहीं की. इस त्रासदी में कांग्रेस की भूमिका भी शून्य थी.


गिरफ्तार हुए कांग्रेस नेताओं ने समय होते हुए़ भी नहीं लिया एक्शन 


वर्ष 1942 में महात्मा गांधी ने अंग्रेजों के खिलाफ भारत छोड़ो आन्दोलन शुरू किया था और इस आन्दोलन को समाप्त कराने के लिए ब्रिटिश सरकार ने 9 अगस्त 1942 को Bombay में कांग्रेस वर्किंग कमेटी के सभी सदस्यों को गिरफ्तार कर लिया था. इनमें महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू भी थे. नेहरू, देश के पहले शिक्षा मंत्री अबुल कलाम आजाद और सरदार वल्लभ भाई पटेल समेत कई कांग्रेस नेताओं को वर्ष 1945 तक अहमदनगर किले में नजरबंद करके रखा गया. हालांकि जेल की ये सजा इन नेताओं के लिए किसी वैकेशन से कम नहीं थी. अंग्रेजी सरकार ने नेहरू को कुल्हाड़ी और दूसरे उपकरण दिए थे, ताकि वो अहमदनगर किले में बागवानी कर सकें. इसके अलावा नेहरू और दूसरे नेता इस सजा के दौरान वहां बैडमिंटन खेला करते थे.


गांधी ने भी साधा मौन


हालांकि वर्ष 1942 में जब महात्मा गांधी और नेहरू समेत कई नेताओं को गिरफ्तार किया गया तो वो बंगाल के हालात से परिचित थे. वो चाहते तो जेल में रहते हुए बंगाल के लोगों की जान बचाने के लिए अंग्रेजी सरकार पर दबाव बना सकते थे. लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. महात्मा गांधी ने अकाल के समय वर्ष 1943 में 21 दिन की भूख हड़ताल जरूर की, लेकिन ये हड़ताल बंगाल के लोगों के लिए नहीं बल्कि अंग्रेजी सरकार द्वारा की गई उनकी गिरफ्तारी के खिलाफ थी.


मई 1944 में जब महात्मा गांधी को उनके खराब स्वास्थ्य की वजह से बिना शर्त जेल से रिहा किया गया, तब भी वो बंगाल नहीं गए. बल्कि उस समय 40 लाख लोगों की हत्या से ज्यादा बड़ा मुद्दा देश का बंटवारा था. सितंबर 1944 को महात्मा गांधी ने मुस्लिम लीग के नेता मोहम्मद अली जिन्ना से मुलाकात की और बंटवारे के आधार पर अपने विचार साझा किए. इस बैठक के बाद महात्मा गांधी जिन्ना की मांगों से असहमत थे. लेकिन सोचने वाली बात ये है कि उन्होंने एक बार भी जिन्ना से बंगाल में भूख से मारे गए लाखों लोगों की कोई बात नहीं की, जबकि बंगाल में मुस्लिम लीग की ही सरकार थी और ये सरकार अंग्रेजों की मदद कर रही थी.


नेहरू ने भी नहीं उठाया बंगाल का मुद्दा


इसके बाद जब वर्ष 1945 में जब जवाहर लाल नेहरू को रिहा किया गया, तब तक ये तय हो चुका था कि ब्रिटिश सरकार भारत से वापस चली जाएगी और इसके लिए Transfer of Power के विकल्पों पर काम किया जाएगा. नेहरू ने रिहा होते ही आजादी के लिए होने वाले विचार विमर्श में सक्रिय भूमिका निभाई लेकिन उन्होंने कभी भी बंगाल में Winston Churchill की गलत नीतियों से मारे गए 40 लाख लोगों का मुद्दा नहीं उठाया.


नेताजी को थी बंगाल की चिंता


जबकि नेताजी सुभाष चंद्र बोस को बंगाल के लोगों की काफी चिंता थी. बंगाल में भुखमरी की खबर जब दुनिया में फैली तो अमेरिका, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों ने मदद की पेशकश की थी लेकिन Winston charchill ने इस मदद को लेने से इनकार करते हुए कहा कि मुझे भारतीयों से नफरत है. वे गंदे लोग हैं, जिनका धर्म भी क्रूरता से भरा हुआ है. सोचिए Winston charchill भारत के लोगों से कितनी नफरत करते थे. 2 जुलाई 1943 को जब सुभाष चंद्र बोस सिंगापुर पहुंचे तो उन्होंने भी बंगाल के लोगों की मदद का प्रस्ताव अंग्रेजी सरकार को भेजा था. उन्होंने तब कहा था कि वो 1 लाख टन चावल अलग-अलग जहाजों से भारत भेज सकते हैं और इन जहाजों पर जापान भी हमला नहीं करेगा. लेकिन Winston Churchill और ब्रिटिश सरकार इसके लिए तैयार नहीं हुई. माना जाता है कि अगर उस समय इस मदद को स्वीकार कर लिया गया तो इस एक लाख टन चावल से बंगाल के 16 लाख लोगों का पेट चार महीने तक भरा जा सकता था. लेकिन Winston Churchill ने ऐसा नहीं होने दिया. 


राजनीति खेलता रहा Churchill 


नेताजी के प्रस्ताव को इसलिए भी ठुकरा दिया गया था क्योंकि उस समय बर्मा पर जापान ने कब्जा कर लिया था. बर्मा को ही आज म्यांमार कहा जाता है. इस कब्जे की वजह से भारत में बर्मा से चावल का आयात रुक गया था. ये देखते हुए Winston Churchill ने अंग्रेजी सैनिकों के लिए चावल की जमाखोरी कर ली थी. चर्चिल को डर था कि अनाज जापान के हाथ लग जाएगा और वो इसे अपने नियंत्रण में लेगा. इससे बचने के लिए तब Winston Churchill ने 'नजरअंदाज करने की नीति' भी अपनाई थी.


इसके पीछे सोच ये थी कि फसल समेत सभी चीजों को खत्म कर दिया जाए. यहां तक कि जो नावें फसलों को ले जाने में इस्तेमाल होती हैं, उन्हें भी बर्बाद कर दिया जाए ताकि जापान जब बंगाल पर कब्जा करने के लिए आए तो उसके पास आगे बढ़ने के लिए कोई भी संसाधन ना हो. इस नीति का असर ये हुआ कि अकाल और विकराल रूप में सामने आया. लेकिन इसके बावजूद उस समय के नेताओं ने इसका कोई संज्ञान नहीं लिया.


भारत के सैनिकों में बढ़ा असंतोष


गौरतलब है कि दूसरे विश्व युद्ध में भारत के 20 लाख सैनिकों ने ब्रिटेन के लिए लड़ाई लड़ी थी. लेकिन इस दौरान कम वेतन और जरूरी राशन नहीं मिलने से भारत के सैनिकों में समय के साथ असंतोष बढ़ने लगा था और शायद यही कारण था कि दूसरे विश्व युद्ध में बंदी बनाए गए हजारों भारतीय सैनिकों ने सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में आजाद हिंद फौज ज्वाइन कर ली थी और ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ लड़ाई छेड़ दी थी.


ये असंतोष तब और बढ़ गया, जब दूसरे विश्व युद्ध के बाद वर्ष 1946 में आजाद हिंद फौज के 3 अफसरों पर दिल्ली के लाल किले में मुकदमा चलाया गया. उस समय ये गुस्सा 1946 की Naval Mutiny के रूप में सामने आया, जब बॉम्बे में इन सैनिकों ने ब्रिटेन के कई जहाजों पर कब्जा कर लिया और अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह कर दिया. इसके बाद अंग्रेजी सरकार को समझ आ गया कि अब भारत पर उसका शासन करना मुश्किल है.


10 हजार लोगों के मरने पर बंगाल गए महात्मा गांधी..


हालांकि जो बात आपको नोट करनी है, वो ये कि 1946 में Direct Action Day के बाद जब बंगाल में साम्प्रदायिक दंगे भड़के थे तो महात्मा गांधी ने बंगाल जाने का फैसला किया था. इन दंगों में लगभग 10 हजार लोग मारे गए थे. सोचिए महात्मा गांधी उन साम्प्रदायिक दंगों के बाद तो बंगाल गए, जिसमें 10 हजार लोग मारे गए थे. लेकिन वो उस समय बंगाल नहीं गए, जब अंग्रजों की क्रूरता की वजह से 40 लाख लोगों ने दम तोड़ दिया था. उल्लेखनीय है कि महात्मा गांधी ने विभाजन के बाद सितंबर 1947 में हिन्दू मुस्लिम एकता के लिए 4 दिन तक खाना पीना त्याग दिया था. लेकिन बंगाल में मारे गए लोगों के प्रति हमदर्दी जताते हुए उन्होंने कभी कोई उपवास या भूख हड़ताल नहीं की.


जब महात्मा गांधी को उठाना पड़ा चरखा


दूसरे विश्व युद्ध के बाद जब भारत को आजादी मिली, तब पूरी दुनिया में औद्योगिक क्रांति का दौर था और पश्चिमी देशों ने इस मौके का खूब फायदा उठाया और औद्योगिक बदलावों से ये देश अमीर बन गए. जबकि भारत ने ऐसा नहीं किया. उस समय भारत के सबसे बड़े ब्रांड एंबेस्डर महात्मा गांधी थे, जिन्होंने अंग्रेजों का विरोध करने के लिए चरखे को एक बड़ा हथियार बनाया था. दरअसल, ब्रिटिश सरकार द्वारा भारत का कपास ब्रिटेन के Manchester में स्थित कारखानों में भेजा जाता था और इन कारखानों में भारत के कपास से जो कपड़ा बनता था, उसे वापस भारत लाकर ही बेचा जाता था. महात्मा गांधी ने Manchester के इन्हीं कारखानों का विरोध करने के लिए चरखा उठाया और देश के लोगों को खुद सूत काटकर अपना कपड़ा बनाने की अपील की.


उस समय देश में विदेशी कपड़ों की होली जलाई जाती थी. यानी महात्मा गांधी ने चरखे का इस्तेमाल अंग्रेजी सरकार का विरोध करने के लिए किया. लेकिन ये विरोध बाद में एक आम धारणा बन गई और हमारे देश के बहुत से लोग कभी ये समझ ही नहीं पाए कि चरखा अंग्रेजी सरकार के विरोध का तरीका था, ना कि औद्योगीकरण के विरोध का.


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