Bhishma Vachan: महाराज युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ सम्पन्न हुआ तो सत्कार के योग्य महर्षि और ब्राह्मणों ने यज्ञशाला की अंतर्वेदी में प्रवेश किया. धर्मराज की राज्यलक्ष्मी और यज्ञ विधि को देखकर देवर्षि नारद को बड़ी प्रसन्नता हुई. उन्हें राजाओं का समागम ऐसा जान पड़ा जैसे इन रूपों में देवता ही एकत्र हुए हैं. उन्होंने मन ही मन भगवान श्री कृष्ण का स्मरण किया. वह सोचने लगे,  धन्य हैं अंतर्यामी भगवान नारायण ने अपनी  प्रतिज्ञा पूरी करने के लिए क्षत्रियों में अवतार लिया है. जिन्होंने पहले देवताओं को आज्ञा दी थी कि तुम लोग पृथ्वी में अवतार लेकर दुष्टों का संहार कार्य पूर्ण करो फिर अपने लोगों में आ जाओ, वही कल्याणकारी जगन्नाथ भगवान श्री कृष्ण यदुवंश में अवतीर्ण हुए हैं. देवर्षि नारद भगवान श्री कृष्ण के विचारों में डूबे रहे.


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उसी समय भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर से कहा, राजन, अब तुम सभी आए हुए राजाओं का यथायोग्य सत्कार करो. आचार्य, ऋषि, संबंधी, राजा और प्रिय व्यक्ति को, यदि वे एक वर्ष में यहां आवें तो विशेष पूजा और अर्ध्यदान करना चाहिए. ये सभी लोग हमारे यहां बहुत दिनों के बाद आए हैं, इसलिए इन सबकी तुम अलग-अलग पूजा करो जो सर्वश्रेष्ठ हो उसकी सबसे पहले.


धर्मराज ने पूछा, आए हुओं में सबसे पहले किसकी पूजा करें


धर्मराज युधिष्ठिर ने भीष्म जी से प्रश्न किया, पितामह आपकी बात सर्था ठीक है अब आप ही बताएं कि इन आए हुए सज्जनों में हम सबसे पहले किसकी पूजा करें. आप किसे सबसे श्रेष्ठ और पूजा के योग्य समझते हैं. 


भीष्म ने कहा, भगवान श्री कृष्ण ही इसके पात्र हैं


युधिष्ठिर के पूछने पर शान्तनु नंदन भीष्म ने कहा, हे धर्मराज, यदुवंश शिरोमणि भगवान श्री कृष्ण ही सबसे बढ़कर पूजा के पात्र हैं. भीष्म ने आगे कहा कि क्या तुम नहीं देख रहे हो कि श्री कृष्ण अपने तेज, बल और पराक्रम से वैसे ही देदीप्यमान हो रहे हैं जैसे छोटे छोटे तारों में भुवन भास्कर भगवान सूर्य. जिस तरह अंधकार छाए हुए स्थान में सूर्य के शुभागमन से वायु हीन स्थान पर हवा के बहने से जीवन ज्योति से जगमगा उठता है वैसे ही भगवान श्री कृष्ण आज हमारी इस सभा में विराजे हैं, जिससे यह सभा प्रसन्नता और आनंद से भर उठी है. उन्होंने कहा कि आज मुझे इस संसार में भगवान श्री कृष्ण के समान दूसरा कोई नहीं दिखता है और फिर वह स्वयं ही उपस्थित हैं तो उनकी पूजा करने में अब देरी नहीं करनी चाहिए. 


सहदेव ने अर्ध्यदान कर की भगवान श्री कृष्ण की पूजा


भीष्म पितामह की आज्ञा मिलते ही प्रतापी सहदेव ने विधिपूर्वक भगवान श्री कृष्ण को अर्ध्यदान किया और श्री कृष्ण ने भी शास्त्रोक्त विधि के अनुसार उसे स्वीकार किया. 


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