संकष्टी चतुर्थी व्रत विधि: प्रत्येक महीने में दो पक्ष होते हैं और हर पक्ष में एक तिथि चतुर्थी होती है. कृष्ण पक्ष में आने वाली चतुर्थी को संकष्टी और शुक्ल पक्ष में आने वाली चतुर्थी तिथि को वैनायकी या विनायकी चतुर्थी कहते हैं. चतुर्थी की दोनों ही तिथियां भगवान गणेश को समर्पित हैं. प्रथम देव होने के साथ ही गणेश जी विघ्न विनाशक, संकटहर्ता भी हैं इसलिए इनकी पूजा और व्रत करने से भक्त के कष्ट दूर होते हैं. 


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संकष्टी चतुर्थी का अर्थ है, संकट को हरने वाली चतुर्थी. संस्कृत में संकष्टी का अर्थ कठिन समय से मुक्ति पाना होता है, इसलिए यदि किसी व्यक्ति को किसी तरह का दुख या संकट है तो वह उससे छुटकारा पाने के लिए इस व्रत को रख सकता है. शिव पार्वती पुत्र गणेश जी की पूजा आराधना करने से संकट से मुक्ति मिलती है. इस दिन प्रातः सूर्योदय से लेकर चंद्रमा के उदय होने के समय तक उपवास किया जाता है. भगवान गणेश को समर्पित इस व्रत और पूजा को करने से व्यक्ति के जीवन में आ रही समस्त समस्याओं का निवारण होता है. 


महत्व और पूजन विधि


गणेश जी को प्रथम पूज्य देव भी कहा जाता है. ऐसे में संकष्टी चतुर्थी का व्रत रखने से गणपति भगवान की कृपा और भक्तों की मनोकामनाएं जल्द ही पूरी हो जाती है. संकष्टी चतुर्थी के दिन सुबह जल्दी उठकर स्नान करके गणेश जी के व्रत का संकल्प लेना चाहिए, फिर शाम के समय पूजन स्थल की ठीक से साफ-सफाई कर गंगा जल से उस स्थान को पवित्र करना चाहिए. गणेश जी की मूर्ति को एक साफ पाटे पर वस्त्र बिछाकर स्थापित करना चाहिए. उन्हें वस्त्र आदि पहनाकर पुष्प और माला अर्पित करना चाहिए. तब मंदिर में घी का दीपक प्रज्ज्वलित करना चाहिए. गणेश जी का तिलक कर उन्हें दूर्वा की 21 गांठ अर्पित करना चाहिए. गणेश जी को घी से बने मोतीचूर के लड्डू या मोदक पसंद हैं, इसलिए उनका भोग लगाना चाहिए. पूजन के बाद गणेश जी की आरती कर स्वयं प्रसाद ग्रहण करने के साथ ही घर के सदस्यों को भी प्रसाद दें और पूजन में जाने-अनजाने हुई भूल के लिए क्षमा जरूर मांगें.