एमपी में निजाम बदल गया है ! जाहिर है व्यवस्था भी बदलेगी. अपने हिसाब से जमात बिछाई जाएगी. दिख भी रही है. इसके साथ ही अपेक्षा भी तो क्योंकि… कहा भी तो गया ‘वक्त है बदलाव का.“ इस बदलाव में क्या शामिल है ? क्या यह केवल राजनीतिक है ? क्या केवल मुख्यमंत्री, मंत्रियों और अधिकारियों का बदलाव है, या इसमें कुछ और भी शामिल है ? जिसकी वजह से बदला गया.  


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यदि ऐसा वास्तव में है तो क्यों फिर एक बच्ची व्यवस्था के संरक्षण में आने के बावजूद ​अपनी जिंदगी से बिछड़ गई ? क्या उसे अपने ​जीवन का अधिकार केवल इसलिए खो देना पड़ा क्योंकि वह एक त्रासद अवस्था की देन है. यदि हां, तो व्यवस्था किसलिए है ? इन्हीं सबसे कमजोर कड़ियों को तो सबसे पहले एक बेहतर जनतांत्रिक हुकूमत, ​बेहतर और संवेदनशील व्यवस्था की जरूरत है.  


इस कहानी के तार पलायन की उस त्रासदी से जुड़ते हैं जो हजारों लोगों को अपने घरों से दूर एक असुरक्षित परिवेश में ले जाने को मजबूर करती है. बीसियों सालों से पलायन रूकने का नाम ही नहीं लेता और इसकी सबसे बड़ी त्रासदी भुगतती हैं महिलाएं, बच्चे और पीछे घरों में बचे बूढ़े लाचार मां-बाप, जिनके लिए सरकार की वह तीन सौ रुपए की पेंशन ही जीने का सहारा है, जिससे केवल एक किलो शक्कर, दो किलो दाल, एक किलो नमक और एक लीटर खाने का तेल ही बमुश्किल खरीदा जा सकता है, स्वाद का मतलब यही है. कैसे अपने घरों से निकलते होंगे, दिल्ली-मुंबई की बस्तियों में कैसे जीते होंगे? और यदि ऐसी ही बस्तियों में किसी महिला को बच्चा जनना पड़े तो. जनना ही पड़ता है, यह निर्णय भी स्त्री के हाथ में कहां होता है ?   


बुंदेलखंड पलायन के मामले में खासा बदनाम है. खासकर आठ साल पहले जब इस इलाके में भयंकर सूखा पड़ा, तब से पलायन तो एक रिवाज ही बन गया. इसी इलाके का एक कस्बा है घुवारा. इसी कस्बे की एक एक महिला है रामप्यारी रैकवार. कुछ साल पहले रामप्यारी की शादी पास के गांव में मोहन नामक व्यक्ति से हुई. शादी के बाद वह दोनों दिल्ली चले गए. शादी के दो माह बाद ही वह पेट से हो गई. कोख में बच्चा लिए मजदूरी भी करती. दिल्ली की उन्हीं बेदिल गलियों में रामप्यारी ने एक बच्ची को जन्म दिया. इसके बाद उसके घर में पति के साथ क्या किस्सा हुआ, यह तो नहीं पता चल पाया, लेकिन रामप्यारी को वापस अपने गांव लौटना पड़ा. उसके पति ने उसकी खबर ली न ही बच्ची की.  


रामप्यारी घुवारा लौट आई. खजुराहो के सामाजिक कार्यकर्ताओं को जब यह महिला अपनी बच्ची को लिए मिली तो उसका वजन महज डेढ़ किलो था. भारतीय स्वास्थ्य मानकों के हिसाब से जन्म के समय कम कम बच्चे को ढाई किलो का होना जरूरी है. यह बच्ची ठीक वैसी ही दिख रही थी, जैसा कि हम कुपोषित बच्चों को तस्वीरों में देखते हैं.  


दिसम्बर की इस सर्दी में बच्ची का ​जी पाना मुश्किल लग रहा था. सामाजिक कार्यकर्ताओं ने सबसे पहले महिला को एक वृद्ध आश्रम में जगह दिलाई और बच्ची को साथ लेकर सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र ले गए. सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र पर बच्ची को ​दो दिन बाद भर्ती करने को कहा गया. जिस बच्ची के लिए स्वास्थ्य विभाग को हाई अलर्ट पर काम करना था, उसे दो दिन क्यों टाल दिया गया. दो दिन बाद जब दोबारा गए, तो सामुदायिक केन्द्र से जिला अस्पताल छतरपुर भेज दिया गया.  


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छतरपुर में भी उसे भर्ती करने से मना किया गया. आठ जनवरी को किसी तरह वहां के एसएनसीयू में बच्ची को एडमिट किया गया. जनवरी 2019 का पहला सप्ताह ठंड के लिहाज से सारे रिकॉर्ड को तोड़ने वाला रहा. एसएनसीयू का वार्मर ऐसी सर्दी में बच्ची के शरीर को कहां गरम कर पाता. शरीर तो पहले से ही ठंडा था. ठंडी व्यवस्था ने उसे और ठंडा कर दिया. किस किस स्तर पर लापरवाही हुई.   


जिस सुबह एमपी के नए मुख्यमंत्री श्री कमलनाथ ने सभी अखबारों के जरिए अपने ब्लॉग में कुपोषण को दूर करने की बात हेड लाइन में कही, ठीक उसी सुबह एक कुपोषित बच्ची की लाश प्रदेश के आंगन में ​चीख-चीख कर कुछ कह रही थी. ऐसी हजारों आवाजों को कौन और कब सुनेगा ? 


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मध्यप्रदेश में 42 प्रतिशत बच्चे कुपोषण का शिकार हैं. पूर्व महिला एवं बाल विकास मंत्री अर्चना ​चिटनीस दावा करती रही हैं कि उन्होंने कुपोषण पर खूब काम किया, वह आरोप लगाती रहीं कि दिग्विजय सिंह के शासनकाल में तो कुपोषण घटने की बजाय बढ़ गया था. बात केवल राजनीतिक तो नहीं है, बच्चे सभी की हैं. इस बात को समझना होगा कि जिम्मेदारी सभी की है. अपने आंगन में बच्चों की मौत किसे अच्छी लग सकती है. बात यही है कि अब इस विषय को प्राथमिकता में रखना होगा. 


(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)