Mona Agarwal : पेरिस पैरालंपिक में शूटिंग में ब्रॉन्ज मेडल जीतने वाले मोना अग्रवाल ने अपने त्याग और परिश्रम को लेकर कई खुलासे किए हैं. उन्होंने बताया कि कैसे बच्चों से दूर रहकर ट्रेनिंग की और ढाई साल की कड़ी मेहनत के बाद खुद को पैरालंपिक के लिए तैयार किया. दो बच्चों की मां मोना अग्रवाल हर दिन निशानेबाजी कैंपस में उस समय भावुक हो जाती थीं जब उनके बच्चे वीडियो कॉल पर मासूमियत से यह समझते थे कि वह घर वापस आने का रास्ता भूल गई हैं और उन्हें वापस लौटने के लिए GPS की मदद लेनी होगी. 


COMMERCIAL BREAK
SCROLL TO CONTINUE READING

मेडल जीतने का सपना हुआ पूरा


पहली बार पैरालंपिक खेलों में भाग ले रहीं 37 साल की मोना ने महिलाओं की 10 मीटर एयर राइफल में ब्रॉन्ज मेडल जीता. वह काफी समय तक गोल्ड मेडल की रेस में बनी हुई थी जो आखिर में भारत की अवनी लेखरा के पास गया. अपने बच्चों से दूर रहने और यहां तक कि फाइनेंशियल समस्याओं का सामना करने के संघर्षों से गुजरने के बाद मोना ने पैरालंपिक में मेडल जीतने का अपना सपना पूरा किया. 


'बच्चों को घर पर छोड़ना पड़ता था'


मोना ने मीडिया को बताया, 'जब मैं अभ्यास के लिए जाती थी तो अपने बच्चों को घर पर छोड़ना पड़ता था. इससे मेरा दिल दुखता था.' उन्होने आगे कहा, 'मैं हर दिन उन्हें वीडियो कॉल करती थी और वे मुझसे कहते थे, ‘मम्मा आप रास्ता भूल गयी हो, जीपीएस पर लगा के वापस आ जाओ.' मोना से आगे बताया, 'मैं अपने बच्चों से बात करते समय हर शाम रोती थी... फिर मैंने उन्हें सप्ताह में एक बार फोन करना शुरू कर दिया.' 


'कठिनाइओं का किया सामना'


मोना ने अन्य बाधाओं के बीच वित्तीय दिक्कतों का सामना करने को भी याद किया. उन्होंने कहा, 'वह मेरा सबसे मुश्किल समय में से एक था. वित्तीय संकट एक और बड़ी समस्या थी. मैंने यहां तक पहुंचने के लिए वित्तीय तौर पर काफी संघर्ष किया है. मैं आखिरकार सभी संघर्षों और बाधाओं से पार कर मेडल हासिल करने में सक्षम रही. मुझे बहुत अच्छा महसूस हो रहा है.' 


'ढाई साल पहले शुरू की शूटिंग'


मोना ने कहा, 'यह मेरा पहला पैरालंपिक है. मैंने ढाई साल पहले ही निशानेबाजी शुरू की थी और इस अवधि के अंदर मेडल जीतना शानदार रहा.' पोलियो से पीड़ित मोना ने कहा कि उन्होंने खेल में अपना करियर बनाने के लिए 2010 में घर छोड़ दिया था, लेकिन 2016 तक उन्हें नहीं पता था कि पैरालंपिक जैसी प्रतियोगिताओं में उनके लिए कोई गुंजाइश है. उन्होंने कहा, 'मुझे 2016 से पहले पता नहीं था कि हम किसी भी खेल में भाग ले सकते हैं. जब मुझे अहसास हुआ कि मैं कर सकती हूं, तो मैंने खुद को यह समझने की कोशिश की कि मैं अपनी दिव्यांगता के साथ खेलों में सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन कर सकती हूं. मैंने तीन-चार खेलों में हाथ आजमाने के बाद निशानेबाजी को चुना.'