Ground Report: मध्य प्रदेश का एक अहम जिला है नरसिंहपुर. इसी ज़िले में आती है गाडरवारा विधानसभा. गाडरवारा की पहचान देश-विदेश में ख्याति प्राप्त दार्शनिक और विचारक ओशो की धरती के रूप में है, जहां उनका बचपन बीता. ओशो का आश्रम आज भी यहां मौजूद है. हालांकि, ओशो के आजाद विचारों के विपरीत गाडरवारा के कुछ हिस्से ऐसे भी हैं, जहां आजादी के बाद भी लोग बुनियादी अधिकारों से वंचित हैं. Zee News की टीम गाडरवारा पहुंची और यहां की तस्वीर दिखाने की कोशिश की.


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जान जोखिम में डाल पार करते हैं नदी


गाडरवारा का एक गांव है घूरपुर, जहां लोग आज भी विकास की राह देख रहे हैं. उम्मीद लगाए बैठे हैं कि किसी दिन विकास नदी पर बने पुल की शक्ल में उनके गांव तक पहुंच जाएगा और जिंदगी कि कुछ मुश्किलें आसान हो जाएंगी. घूरपुर के पास सीता रेवा नदी बहती है जो मुख्य कस्बे और गांव के बीच बहती है. गांववाले कहते हैं कि नदी पर पुल होता तो रास्ता महज 2 किलोमीटर का होता, लेकिन पुल ना होने से उनके पास सिर्फ 2 रास्ते बचते हैं. या तो 20-22 किलोमीटर की दूरी तय कर सड़क से जाएं या फिर सर पर सामान रखकर, बच्चों को कंधे पर बिठाकर जान जोखिम में डालकर नदी पार करके जाएं.


सर पर सामान रखे नदी पार कर रही एक महिला ने हमें बताया कि बताया कि बारिश में जब पानी बढ़ जाता है तो गले तक पानी में जाते है. समय पर अस्पताल ना पहुंच पाने के कारण गर्भवती महिलाओं की डिलीवरी तक गांव में ही करानी पड़ जाती है. नेता वोट मांगने आते है, वोट मिल जाता है फिर वापस ही नहीं आते. पुल बनेगा तो वोट देंगे.


नदी पर पुल ना होना बना बेटियों के पढ़ाई छोड़ने की वजह


हीराबाई कंधे पर सामान टांगे अपने छोटे छोटे बच्चों के साथ नदी पार कर रही थीं. पूछने पर उन्होंने बताया कि छाती तक पानी आ जाता है. बच्चों के लिए बहुत खतरा होता है, उन्हें कंधे पर बिठाकर ले जाते हैं. आजादी के 70 साल बाद भी एक पुल नहीं. ये बात हैरान तो करती है, लेकिन परेशान होने वाली बात यहां रहने वाली निमिता नाम की एक बेटी ने सुनाई.


निमिता से पुल ना होने से आम परेशानी के बारे में हम पूछ रहे, लेकिन बातचीत के दौरान उसने कहा कि पुल ना होने से उसे पढ़ाई छोड़नी पड़ी. ये बात हैरान और परेशान दोनों करने वाली थी. निमिता ने कहा कि पुल न होने से बहुत परेशानी होती है. इसी वजह से हमने पढ़ाई छोड़ दी. 3 साल हो गए पढ़ाई छोड़े हुए. एक बार हम नदी पार करते हुए फिसलकर बह गए थे. मेरा बैग बह गया था और पकड़ नहीं पाए थे. कुछ लोगों ने मुझे बचाया नहीं तो हम भी बह जाते. उस घटना के बाद से डर लग गया और हमने स्कूल जाना बंद कर दिया. मेरी पढ़ाई गई, पढ़ने की बहुत चाह थी, लेकिन मजबूरी थी हमारी. हमारे गांव की बहुत सी लड़कियां बस 10वीं तक पढ़ पाई हैं. बस 8वीं तक स्कूल गांव में है इससे आगे पढ़ना हो तो दूर जाना पड़ता है.


जान पर खेलकर बच्चों को पहुंचाते हैं स्कूल


निमिता ने तो पढ़ाई छोड़ दी, लेकिन छोटी सी मोनिशा के पिता उन्हें खूब पढ़ाना चाहते हैं. उन्होने नदी पार एक प्राइवेट स्कूल में अपनी बच्ची का एडमिशन कराया है. दूसरी कक्षा में पढ़ने वाली मोनिशा अपने पिता के साथ बाईक पर नदी पार करके स्कूल आती जाती हैं. मोनिशा ने बताया कि जब बारिश होती है तब पापा कंधे पर बिठाकर नदी से ले जाते हैं.


मोनिशा के पिता हेमराज पाली बताते हैं कि कभी-कभी तैर कर बच्चों को स्कूल ले जाना पड़ता है. एक हाथ से बैग पकड़ते हैं और एक हाथ से कंधे पर बच्चे को बिठाते हैं. ऐसा लगता है कि उस पार चले गए तो ठीक वरना कभी इतना तेज बहाव होता है तो लगता है कि नहीं पहुंच पाएंगे. हम लोगों का जीवन तो कट गया, लेकिन आगे आने वाली पीढ़ी का जीवन तो सुधार जाए. हम लोग तो नहीं पढ़ पाए इसी समस्या के कारण. बरसात में हमारा गांव टापू बन जाता है. बच्ची के लिए ही मेहनत कर रहे हैं. जान जोखिम में डाल कर स्कूल भेज रहे हैं ताकि हम लोगों ने जो देखा है उनको ना भुगतना पड़े.


सिर्फ बच्चों के लिए ही नहीं है मुसीबत, टीचर भी परेशान


सिर्फ स्कूल जाने वाले बच्चे नहीं, बल्कि गांव में 8वीं तक बने स्कूल में पढ़ाने आने वाले टीचर के लिए भी मुसीबत कम नहीं है. गांव में रहने वाले शोभाराम प्रजापति के मुताबिक, एक टीचर जो स्कूल में जो पढ़ाने आती हैं, वो नदी पार करते समय फिसल गईं. हम वहां से जा रहे थे उनकी चिल्लाने की आवाज़ आई तब हमने उन्हें बचाया. उसके बाद बारिश खत्म होने के बाद ही वो वापस आईं. कई बार नेताओं को कहा पुल बनवाने के लिए कहते हैं कि इस साल बन जाएगा उस साल बन जाएगा, लेकिन कोई सुनवाई नहीं है. जीत गए तो कोई पूछ नहीं है.


नदी की दूसरी साइड रहने वालों को भी है समस्या


समस्या सिर्फ नदी के उस पार रहने वालों को नहीं, बल्कि दूसरी साइड रहने वालों को भी है. चौधरी भूपेंद्र सिंह किसान हैं और नदी के दूसरी ओर इमलिया गांव के रहने वाले हैं. उनके खेत नदी पार घूरपुर गांव की तरफ हैं. बताते हैं कि बारिश के 4 महीने खेती बिल्कुल बंद हो जाती है. नदी में बह जाने से 2 बुज़ुर्गो की मौत भी हो चुकी है. 20 साल से मध्य प्रदेश में बीजेपी की सरकार है कई बार उनसे कहा पुल बनाने को आश्वासन देकर चले जाते हैं चुनाव पुल के नाम पर ही जीतते हैं.


लंबे समय से एक पुल की आस लगाए गांववालों ने चुनाव की घोषणा के बाद जनप्रतिनिधियों का ध्यान आकर्षित करने के लिए जल सत्याग्रह भी किया. गाडरवारा में एनजीओ चलाने वाले बृजेश गौरव के नजरिए से भी इस समस्या को समझिए. उनका कहना है कि पुल सिर्फ अवगमन का साधन नहीं है करीब 5 हज़ार लोग आर्थिक और सामाजिक विकास से कटे हुए हैं इसको इस दृष्टि से देखना चाहिए. लोग यहां जल सत्याग्रह कर रहे हैं अपनी समस्या को उजागर कर रहे हैं. जनप्रतिनिधियों की निष्ठा पर सवाल उठता है. एक पुल बनाना इतना बड़ा काम नहीं है. 21वीं शताब्दी में इस तरह की समस्या होना शर्मनाक है कि बच्चियां स्कूल छोड़ने को मजबूर हैं. Zee मीडिया अपने आप से यहां आया है मैं आप लोगों का धन्यवाद देता हूं. ऐसी समस्याओं को राष्ट्रीय स्तर पर उठाना बहुत ज़रूरी है.


स्थानीय लोगों के मुताबिक पुल ना होने सी करीब 5 हजार की आबादी प्रभावित है, जिसमें 2 हज़ार के करीब मतदाता हैं. गांववालों ने जल सत्याग्रह से लेकर पुल नहीं तो वोट नहीं तक की अपील कर डाली लेकिन स्तिथि जस की तस है.