Side Effects of Anti Depression Pills: डिप्रेशन (Depression) यानी अवसाद नाम की बीमारी से आप अच्छी तरह परिचित होंगे. आपके परिवार या आस-पड़ोस में कोई न कोई जरूर होगा जो डिप्रेशन का मरीज होगा. जिसे अकेले रहना, कमरे की लाइट्स ऑफ करके या फिर पर्दे बंद करके बैठना अच्छा लगता होगा. जिसे आप अक्सर गुमसुम या उदास देखते होंगे. ऐसे व्यक्ति को कुछ भी अच्छा नहीं लगता. उसका किसी से बात करने का मन नहीं करता. वो गहरी निराशा में डूबा हुआ होता है. सरल शब्दों में यही डिप्रेशन यानी अवसाद की निशानी है.


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इन वैज्ञानिकों ने दी थी डिप्रेशन की परिभाषा


अब इसके मेडिकल साइंस पर आते हैं. वर्ष 1969 में ब्रिटिश साइकैट्रिस्ट एलेक कॉपन,रूसी वैज्ञानिक आई पी लैपिन और ग्रेगरी ऑक्से-नक्रुग ने डिप्रेशन (Depression) पर एक hypothesis दी थी. इन वैज्ञानिकों ने बताया था कि मनुष्य के मस्तिष्क में जब Sero-tonin नाम के Chemical का संतुलन गड़बड़ाता है, यानी ये केमिकल कम या ज्यादा होता है तो उसी के कारण डिप्रेशन होता है.  इस परिभाषा को Serotonin Hypothesis नाम दिया गया था.


इसी Hypothesis के आधार पर वर्ष 1990 से दुनिया भर में  Anti Depressant दवाओं का बाजार खड़ा होना शुरू हुआ. ये दावा किया गया कि ये दवाएं Serotonin केमिकल को संतुलन रखती हैं, यानी डिप्रेशन (Depression) से उबारती हैं. लेकिन इस Anti Depressant दवा के बाजार को ब्रिटेन की यूनिवर्सिटी ऑफ लंदन के वैज्ञानिकों ने एक्सपोज किया है.


नई रिसर्च में खारिज हुई पुरानी परिभाषा


20 जुलाई को जर्नल नेचर में छपी रिपोर्ट में बताया गया है कि मस्तिष्क में serotonin का स्तर कम या ज़्यादा होने का डिप्रेशन से कोई संबंध नहीं है. इस रिसर्च में ये पता चला कि 80 प्रतिशत से ज्यादा स्वस्थ लोगों और डिप्रेशन के मरीजों में serotonin का स्तर लगभग बराबर ही था.



इससे ये नतीजा निकला कि जिस serotonin hypothesis का हवाला देकर दवा कंपनियां दशकों तक डिप्रेशन के मरीज़ों को जो दवा खिला रही हैं, वो ग़लत है. ऐसा करते कंपनियां सिर्फ अपनी आर्थिक सेहत बना रही हैं. इस रिसर्च में एक और बात सामने आई, वो ये कि कंपनियां सिर्फ मुनाफा नहीं कमा रहीं, बल्कि इसके लिये आपकी जान जोखिम में भी डाल रही हैं. 


एंटी डिप्रेशन दवाओं से बढ़ रहा चिड़चिड़ापन


मरीजों का डिप्रेशन (Depression) दूर करना तो दूर की बात है. इसके विपरीत इन Anti Depressant दवाओं से लोगों में चिड़चिड़ापन बढ़ रहा है. इसे खाने से लोगों में गुस्सा बढ़ रहा है और उन्हें नींद नहीं आ रही है, उनके मस्तिष्क में तनाव रहता है. यानी अपने मुनाफे के लिये ये Pharma कंपनियां वो हालात पैदा कर रही हैं जिससे आप और भी दवाओं में फंसते चले जाएं.


डिप्रेशन (Depression) को मानसिक रोग की कैटेगरी में ही रखा जाता है. भारत में मानसिक रोगियों की संख्या तेज़ी से बढ़ रही है. दुनिया में 26 करोड़ से ज्यादा लोग डिप्रेशन से संघर्ष कर रहे हैं. अनुमान है कि वर्ष 2030 तक ये संख्या 30 करोड़ के पार हो जाएगी. भारत में 4 करोड़ से ज़्यादा लोग मानसिक रोगों के शिकार हैं. ये संख्या ही एंटी डिप्रेशन दवाओं के बाज़ार को विस्तार दे रही है.


लोगों के मानसिक तनाव से बढ़ता जा रहा दवा कारोबार


वर्ष 1991 में पूरी दुनिया में एंटी डिप्रेशन दवाओं का बाजार 7 हज़ार 981 करोड़ रुपए का था, जो वर्ष 2020 में बढ़कर 1 लाख 19 हजार करोड़ रुपये का हो गया. अनुमान है कि वर्ष 2030 तक एंटी डिप्रेशन (Depression) पिल्स का बाजार 1 लाख 67 हज़ार करोड़ रुपये का हो जाएगा. यानी जितनी ज़्यादा बीमारी, उतना ज़्यादा मुनाफ़ा. आपकी सेहत जितनी बिगड़ेगी, बाजार की सेहत उतनी ही बेहतर बनेगी. इसलिये ज़रूरत इस बात की है कि आप दवाओं की दौड़ में न भागें, कुछ प्राकृतिक उपाय अपनाएं. 


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