DNA Analysis: हिजाब के खिलाफ सड़कों पर उतरी हजारों ईरानी महिलाएं, क्या इस घटना से कोई सबक सीखेगा भारत का हिजाब-प्रेमी गैंग?
Hijab Controversy in Iran: कट्टर मुस्लिम देश ईरान में हिजाब के खिलाफ महिलाओं का गुस्सा उबल पड़ा है. महिलाओं ने हिजाब के खिलाफ आंदोलन शुरू करते हुए अपने बाल काट दिए हैं और हिजाब को आग लगाना शुरू कर दिया है.
Anti-Hijab Movement in Iran: मुस्लिम समाज की महिलाएं चाहें या ना चाहें, उन्हें हर हाल में हिजाब (Hijab) पहनना पड़ता है. कुछ लोग हिजाब को धार्मिक पहचान से जोड़ते हैं, तो कुछ इसे मजबूरी की तरह देखते हैं. जो इसके खिलाफ बोलता है, वो इस्लाम विरोधी माना जाता है, और जो इसके पक्ष में बोलता है, उसे दकियानूसी कहा जाता है. अब सवाल ये है कि हिजाब पहनना महिलाओं की इच्छा पर निर्भर है, या इसे पहनना एक मजबूरी है?
हिजाब के विरोध पर महिला की हत्या
ईरान (Iran) में हिजाब (Hijab) पहनना अनिवार्य है. ऐसा ना करने पर सज़ा का भी प्रावधान है. लेकिन आज पूरी दुनिया की महिलाएं हिजाब के खिलाफ आवाज उठा रही हैं. इस विरोध का प्रेरक है ईरान. दरअसल, हिजाब के नाम पर ईरान में एक लड़की को पीट-पीटकर मार दिया गया. 22 साल की महासा अमीनी की जान, Moral Policing कर रही भीड़ ने नहीं ली, बल्कि उसे ईरान की पुलिस टीम ने ही मार डाला.
13 सितंबर को महासा अमीनी अपने परिवार के साथ तेहरान घूमने आई थी. महासा अमीनी ने हिजाब पहना हुआ था. लेकिन उसके हिजाब से, उसकी कुछ जुल्फें बाहर आ रही थीं. इसी वजह से कुछ हिजाबधारी महिलाओं और ईरान पुलिस ने महासा को जबरदस्ती पकड़कर बुरी तरह से मारा पीटा.हिजाब नियमों के नाम पर पुलिस, महासा अमीनी को पुलिस स्टेशन ले गई. पुलिस स्टेशन में महासा को बुरी तरह से टार्चर किया. जब उसकी हालत बहुत ज्यादा बिगड़ गई, तब उसे अस्पताल ले जाया गया. कुछ समय तक कोमा में रहने के बाद उसकी मौत हो गई.
महासा अमीनी की मौत से महिलाओं का गुस्सा भड़का
सोचिए एक कट्टर मुस्लिम देश ईरान Iran) में इंसान की जान की कोई कीमत नहीं. महासा अमीनी की मौत ने ईरान की उन महिलाओं को भड़का दिया है, जो हिजाब से खुद को बंधा हुआ मान रही थीं. ईरान की महिलाओं ने हिजाब (Hijab) के खिलाफ अपना गुस्सा, कुछ इस तरह से जाहिर किया है.
इन महिलाओं ने विरोध के तौर पर अपने बाल काट दिए. कुछ ने अपने हिजाब (Hijab) को ही आग लगा दी. हिजाब को ये महिलाएं अपनी जिदंगी से दूर कर देना चाहती हैं. हिजाब के विरोध का ये तरीका, उन लोगों को शूल की तरह चुभेगा, जो धार्मिक व्यक्ति बनने के लिए सबसे पहले अपनी औरतों के पांवों में ही बेड़ियां डाल देते हैं.
कई इस्लामिक स्कॉलर,7वीं शताब्दी के हिजाब नियमों को इस्लामिक परंपरा से जोड़ते हैं. लेकिन सच्चाई ये है कि हिजाब का ये कठोर नियम केवल महिलाओं पर लागू है. भारत के मुस्लिम समुदाय के कुछ स्कॉलर तो सीना तानकर कहते हैं, कि महिलाएं हिजाब पहनना पसंद करती हैं. वो हिजाब पहनकर अपने धर्म का पालन कर रही हैं. तो सवाल ये है कि एक मुस्लिम देश ईरान में महिलाएं, अपना हिजाब क्यों जला रही हैं? वो विरोध के नाम पर हिजाब क्यों उतार रही हैं. ऐसा क्यों हैं कि ईरान की महिलाएं, इस हिजाब प्रथा को एक मजबूरी की तरह निभा रही हैं.
ईरान में प्रदर्शन कर रहे हैं लड़के-लड़कियां
महास अमीनी की मौत के बाद, ईरान Iran) की सड़कों पर बवाल खड़ा हो गया है. बड़ी संख्या में लड़के-लड़कियां, उसकी मौत और हिजाब के कट्टरवादी नियमों के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं. इस प्रदर्शन को दबाने के लिए ईरान की पुलिस हर तरीके अपना रही हैं. लाठीचार्ज, हवाई फायरिंग, गिरफ्तारियां सब कुछ किया जा रहा है. बावजूद इसके हिजाब के खिलाफ चल रहा विरोध प्रदर्शन थम नहीं रहा है.
ईरान एक ऐसा देश है, जहां राजशाही के दौरान महिलाओं को ज्यादा आजादी थी, लेकिन 1979 की इस्लामिक क्रांति के बाद महिलाओं को धार्मिक कट्टरवाद का गुलाम बना दिया गया. जिन महिलाओं ने विरोध किया, उनको कैद किया गया और जिन्होंने मजबूरीवश इसे अपना लिया, उन्हें ईरान की आदर्श नारी के तौर पेश किया गया. आपको जानकर हैरानी होगी कि ईरान एक ऐसा देश हैं, जहां 21वीं सदी की टेक्नॉलिजी का इस्तेमाल, 7वीं सदी के नियमों को जबरन थोपने के लिए किया जा रहा है.
वर्ष 2015 में ईरान Iran) के नागरिकों का बायोमैट्रिक कार्ड बनाया गया. इसे आप ईरान का आधार कार्ड समझ सकते हैं. इस कार्ड की जानकारी को Facial Recognition तकनीक से जोड़ दिया गया. ईरान के लगभग सभी सरकारी दफ्तरों, बस, ट्रेन, रेलवे स्टेशन और सार्वजनिक जगहों पर Facial Recognition तकनीकी वाले कैमरे लगाए गए. जैसे ही कोई महिला, बिना हिजाब (Hijab) के नजर आती है, उसकी जानकारी सरकारी संस्थाओं के पास आ जाती है. हिजाब नियमों का उल्लंघन करने वाले महिलाओं की पहचान के बाद उनपर कार्रवाई की जाती है.
कैमरों के जरिए होती है महिलाओं की जासूसी
मतलब ये है कि ईरान Iran) में इस्लामिक कट्टरता इस कदर है कि महिलाओं पर हर वक्त नजर रखी जाती है. सभ्य समाज में महिलाओं का पीछा करने को गलत माना जाता है. लेकिन ईरान में सरकारी संस्थाएं ही 7 वर्ष से बड़ी हर लड़की और हर महिला का कैमरों से पीछा करती हैं.
ईरान की महिलाएं, हिजाब (Hijab) का विरोध काफी समय पहले से ही कर रही हैं. इसी साल 12 जुलाई को ईरान में देशभर की महिलाओं ने एक अभियान चलाया था. इस अभियान में महिलाओं ने बिना हिजाब के अपने वीडियोज़, सोशल मीडिया पर पोस्ट किए थे. इस वीडियोज़ को हैशटैग NO-TO-HIJAB से पोस्ट किया गया था. ये हैशटैग ईरान में टॉप ट्रेंडिंग था और हजारों महिलाओं ने बिना हिजाब वाली तस्वीरें पोस्ट की थीं.
हिजाब के खिलाफ इस विरोध प्रदर्शन की तारीख भी खास थी. 12 जुलाई को प्रदर्शन किया गया था, 12 जुलाई को ईरान, हिजाब और शुद्धता का राष्ट्रीय दिवस मनाता है. इस दौरान सरकारी संस्थानों और एजेंसियों को पूरे हफ्ते के लिए हिजाब को बढ़ावा देने का निर्देश दिया जाता है. लेकिन ईरान की महिलाओं ने तय किया था, कि इसी दिन वो हिजाब का विरोध करेंगी. इस घटना के बाद 15 अगस्त को हिजाब कानून में एक नया बदलाव कर दिया गया.
महिलाओं पर सख्ती के लिए बनाए गए कानून
नए नियम के मुताबिक किसी महिला ने अगर सोशल मीडिया में बिना हिजाब वाली तस्वीर पोस्ट की तो उसे नौकरी से निकाला जा सकता है. सरकारी सुविधाएं बंद की जा सकती हैं. 10 दिन से लेकर 2 महीने तक की कैद हो सकती है. 50 हजार से 5 लाख ईरानी रियाल तक का जुर्माना और 74 कोड़े मारने तक की सज़ा भी मिलेगी. मतलब इस्लामिक क्रांति के बाद, ईरान की महिलाओं की जीवन में अशांति भर दी गई. धार्मिक परंपराओं के नाम पर हिजाब को उनके गले से कसकर बांध दिया गया. हिजाब के इस फंदे को निकालने वाली हर महिला के खिलाफ सख्त कानूनी कार्रवाई की गई.
12 जुलाई को हिजाब (Hijab) के खिलाफ हुए प्रदर्शन में सेपिदे राशनो नाम की एक महिला लेखक ने भी हिस्सा लिया था. इन्होंने हिजाब के विरोध में अपनी एक तस्वीर सोशल मीडिया पर डाली थी. ईरान पुलिस ने इनकी पहचान करने के बाद, उनको गिरफ्तार किया और फिर टॉर्चर किया. इसके बाद सेपिदे राशनो से जबरदस्ती एक अलग पोस्ट भी डलवाई गई, जिसमें उनसे माफी मंगवाई गई.
ईरान Iran) की महिलाएं जहां हिजाब उतार रही हैं, उसे फाड़ रही हैं, जला रही हैं. अपने बाल काट कर हिजाब का विरोध कर रही हैं. वहीं भारत के कर्नाटक में कुछ स्कूली छात्राओं ने सिर्फ इसलिए प्रदर्शन किया था क्योंकि उन्हें हिजाब पहनकर स्कूल आने से रोका गया था. दरअसल स्कूल प्रशासन ने उन्हें स्कूल यूनिफॉर्म में आने को कहा था.
क्या महिलाएं अपनी पसंद से पहनती हैं हिजाब?
ये दो तस्वीरें इस्लामिक विचारधारा के दो चेहरे हैं. इसमें एक चेहरा उन महिलाओं का है, जो वर्षों से हिजाबी बंदिशों में जी रही थीं. वो हिजाब जैसी परंपरा को पिछड़े समाज की सोच मानती थीं. दूसरी तस्वीरें उन बच्चियों की हैं, जिन्हें बचपन से यही बताया गया है कि धर्म का पालन करने का मतलब केवल हिजाब पहनना है.
एक तस्वीर में हिजाब का विरोध है तो दूसरी तस्वीर में हिजाब (Hijab) का समर्थन. अब यहां सवाल सही या गलत का नहीं है. यहां सवाल, महिलाओं की इच्छा का है. अगर किसी मुस्लिम महिला को हिजाब पहनना नापसंद है, तो धर्म के नाम पर दबाव बनाना गलत है. इसी वजह से ईरान की महिलाएं प्रदर्शन कर रही हैं. कर्नाटक के मामले में स्कूल की बच्चियां हिजाब पहनकर स्कूल आना चाहती हैं. लेकिन क्या सच में, हिजाब पहनना उनकी इच्छा है, या बचपन से ही उन्हें धर्म का पालन करने के नाम पर यही बताया गया है. भारत में मुस्लिम समुदाय का एक ऐसा तबका है, जो हिजाब की अनिवार्यता पर जोर देता है. जबकी एक तबका इसे महिलाओं की इच्छा निर्भर मानना है.
हिजाब की अनिवार्यता में पसंद और नापसंद का सवाल खत्म हो जाता है. ईरान ने हिजाब के मामले में महिलाओं के साथ यही किया. हिजाब की अनिवार्यता थोपने को लेकर ईरान ने जो रणनीति बनाई थी, अब हम आपको उसके बारे में बताते हैं. वर्ष 1979 की इस्लामिक क्रांति के बाद, इस क्रांति के मुखिया अयातुल्ला खुमैनी ने महिलाओं से हिजाब पहनने की अपील की थी. उस वक्त ये महिलाओं के ऊपर था कि वो इसे मानती हैं या नहीं.
इसके बाद जुलाई 1980 में खुमैनी की अपील, एक सरकारी आदेश में बदल गई. आदेश ये था कि सरकारी दफ्तरों में काम करने वाली महिलाएं हिजाब (Hijab) के ड्रेस कोड में ही ऑफिस आएंगी. शुरुआत में नियमों में ढिलाई दी गई, लेकिन धीरे-धीरे सख्ती हुई और हिजाब को ईरान के सरकारी द्फतरों में अनिवार्य कर दिया गया. इसके बाद अगस्त 1983 में ईरान की संसद ने हिजाब कानून बनाकर, इसे महिलाओं के लिए अनिवार्य कर दिया.
खुमैनी के राज में ऐसे बदलता चला गया ईरान
नियम ये था कि महिलाएं बिना हिजाब पहने सार्वजनिक जगहों पर नहीं जाएंगी. नियम तोड़ने पर 74 कोड़ों तक की सज़ा का ऐलान किया गया. यानी कानून बनाकर, कैद, जुर्माना और कोड़े मारे जाने की सज़ा का डर दिखाकर, महिलाओं को हिजाब पहनने के लिए मजबूर किया गया. दिसंबर 2017 तक हिजाब को लेकर कई तरह के विरोध प्रदर्शन होने लगे थे. इसीलिए ईरान पुलिस ने हिजाब के खिलाफ प्रदर्शन करने वाली महिलाओं को वेश्यावृत्ति और भ्रष्टाचार का आरोपी बनाया. इस आरोप में 10 साल का सज़ा का प्रावधान है.
मतलब ये है कि महिलाओं को हिजाब पहनने के लिए मजबूर करने से पहले, शांतिपूर्ण अपील की गई. फिर इसके बाद हिजाब पहनने का सख्त नियम बनाया गया. उसके बाद कानून बनाकर अनिवार्य कर दिया गया. इसके बाद जुर्माना, कोड़ों का डर दिखाकर जबरन महिलाओं को हिजाब पहनने के लिए मजबूर किया गया.
तो एक तरह से देखा जाए तो ईरान Iran) में कई सालों तक महिलाओं को हिजाब (Hijab), जबरदस्ती पहनाया गया. यही वजह है कि अब महिलाओं में हिजाब के खिलाफ नाराजगी है. ये नाराजगी केवल महासा की मौत के बाद ही नहीं दिखी, ये तो वर्षों पहले से ही मन में दबी हुई थी. हिजाब को लेकर ईरान की महिलाएं, वर्षों से विरोध जता रही हैं. लेकिन धर्म और कानून का डर दिखाकर उनकी आवाज को दबाया जाता रहा है.
भारत में कम्युनिस्टो का हिजाब पर दोहरा चेहरा
यही हाल भारत में नजर आता है. लेकिन यहां की स्थिति कुछ अलग है. हिजाब के मसले पर कुछ बुद्धिजीवियों को विचारों में अलग ही विरोधाभास नजर आता है. कम्यूनिस्ट नेता कविता कृष्णन ने ईरान की महिलाओं पर एक ट्वीट किया है. इस ट्वीट के जरिए वो ईरान की महिलाओं की हौसलाअफजाई कर रही हैं. हिजाब का विरोध करने वाली महिलाओं के समर्थन में वो उनके साथ खड़ी नजर आती हैं. इस ट्वीट ये यही पता चलता है कि वो हिजाब के विरोध में हैं.
लेकिन यही ट्वीट भारत के मामले में बदल जाता है. कुछ महीनों पहले हिजाब से जुड़े एक मामले में उन्होंने एक ट्वीट किया था. इस ट्वीट में वो हिजाब भी और किताब भी का नारा बुलंद कर रही थीं. ऐसा लग रहा था कि जैसे वो भारतीय मुस्लिम समाज के लिए हिजाब प्रथा का समर्थन कर रही थीं.
इस तरह के विचारों की वजह से ही भारत में मुस्लिम समुदाय का एक तबका कानूनी रूप से हिजाब की अनिवार्यता चाहता है. कर्नाटक हिजाब का मामले सुप्रीम कोर्ट में है. इसमें ये तय किया जा रहा है कि स्कूल में हिजाब पहनने दिया जाए या यूनिफॉर्म ही एकमात्र ड्रेसकोड हो.
हिजाब के फेवर में भारत में अजीब तर्क
हिजाब के समर्थन में कुछ खास तर्क दिए जा रहे हैं, जैसे मुस्लिम पक्ष की दलील थी कि हिजाब (Hijab) पर बैन लगाने से छात्राएं मदरसों में पढ़ने को मजबूर होंगी. ये भी तर्क दिया गया कि हिजाब बैन के बाद 17 हजार छात्राएं स्कूल छोड़ चुकी हैं. हिजाब के समर्थन में एक तर्क ये दिया गया कि रुढ़िवादी समाज से आने वाली लड़कियों से हिजाब पहनने का अधिकार छीना गया तो उनके अभिभावक उनकी स्कूली शिक्षा छुड़वाकर उन्हें मदरसे में भेज देंगे.
इस पर कोर्ट ने केवल एक बात कही कि- क्या इसका मतलब ये है कि लड़कियां हिजाब नहीं पहनना चाहती, लेकिन उन्हें इसके लिए मजबूर किया जाता है. मतलब ये है कि हिजाब के समर्थन में, हिजाब पहनने वाली लड़कियों या महिलाओं की पसंद नापसंद का जिक्र नहीं किया जा रहा है. बल्कि अभिभावकों की रुढिवादी विचारधारा के दबाव की बात कही जा रही है. हम यहां फिर एक बार कहना चाहते हैं, हिजाब पहनना या ना पहनना, महिलाओं की पसंद और नापंसद पर निर्भर करता है.
वर्ष 1936 में ईरान Iran) के किंग रज़ा शाह पहलवी ने बुर्के और हिजाब (Hijab) पर प्रतिबंध लगा दिया था. हालांकि इससे पहले ही ईरान के कॉलेज और स्कूलों में हिजाब पहनने पर रोक लग चुकी थी. साल 1979 से पहले ईरान में सार्वजनिक स्थानों पर महिलाएं पश्चिमी पोशाकों में नज़र आती थीं. वे महिलाएं Jeans, Skirt और T-Shirts पहनती थीं और उन्हें इसकी पूरी आज़ादी थी.
1979 से पहले आजाद थीं ईरान की महिलाएं
हालांकि इस दौरान इस्लामिक कट्टरपंथियों ने हमेशा इसका विरोध किया. उन्होंने इस बात को कभी स्वीकार ही नहीं किया कि महिलाओं को अपना पहनावा चुनने की आज़ादी होनी चाहिए. दिलचस्प बात ये है कि साल 1979 के Islamic Revolution से पहले ईरान की कुछ महिलाएं उस समय के किंग का विरोध करने के लिए हिजाब पहनती थीं. यानी हिजाब वहां के राजा के विरोध का प्रतीक बन गया था. लेकिन इस दौरान इन महिलाओं ने भी कभी नहीं सोचा था कि Islamic Revolution के बाद यही हिजाब उन पर थोप दिया जाएगा.
ऐसा कहा जाता है कि इस्लाम के पवित्र धार्मिक ग्रंथ, कुरान में हिजाब और बुर्के जैसे शब्दों का सीधे तौर पर कहीं कोई उल्लेख नहीं किया गया है. इनकी जगह खिमर और जिबाब जैसे शब्द इस्तेमाल किए गए हैं, जिनका अर्थ महिलाओं द्वारा अपना सिर और चेहरा ढंकने से है. हालांकि कुछ लोग इस बात को गलत भी मानते हैं. ये भी कहा जाता है कि कुरान में हिजाब का कुछ जगह उल्लेख है.
एक और बात, इस्लाम धर्म की उत्पत्ति से पहले अरब और मध्य पूर्व के देशों में हिजाब (Hijab) और बुर्के के पहनावे का चलन काफी लोकप्रिय था. यानी ये पहनावा, इस्लाम धर्म ने दुनिया को नहीं दिया. बल्कि ये पहनावा, इस्लाम धर्म को अरब और मध्य पूर्व के देशों की सांस्कृतिक पहचान से मिला. लेकिन एक खास विचारधारा के लोगों ने इस बात का खूब प्रचार प्रसार किया कि अगर मुस्लिम महिलाएं हिजाब और बुर्का पहनेंगी, तभी उन्हें सच्ची मुस्लमान के तौर पर माना जाएगा.
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