Himachal News: सिरमौर जिले के गिरिपार क्षेत्र में बुधवार को चौदश से इलाके में त्यौहार शुरू हुआ है. दीपावली को अमावस पर लक्ष्मी पूजा पर्व मनाने के बाद अगले दिन पोड़ोई पर्व पर कुल देवताओं व बैलों अथवा गोवंश की पूजा कर उन्हें पारम्परिक व्यंजन अथवा पकवान परोसे जाते हैं. शनिवार को गिरिपार व साथ लगते धारटीधार इलाके में सास-दामाद दूज मनाई गई. 


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इस दिन दामाद अपनी सास को 100 अखरोट व कुछ अन्य भेंट चढ़ाकर दाम्पत्य जीवन की खुशहाली के लिए आशीर्वाद लेते हैं. इस दौरान इलाके के विभिन्न गांवों में हुडक, दमेनू, बांसुरी व छणका आदि पारंपरिक बाध्य यंत्रों के साथ फोक डांस किया जाता है और कईं गांवों में सांस्कृतिक संध्याओं का भी आयोजन होता है. ग्रामीण लोग सुबह से शाम तक उल्लास में डूबे रहते हैं. इस दौरान पारंपरिक वेशभूषा में सजे गायक और नाटक प्राचीन गाथाएं गाकर सुनाते हैं. 


विशेष समुदाय से संबंध रखने वाले पारंपरिक बुड़ेछू कलाकारों द्वारा इस दौरान होकू, सिंघा वजीर, चाय गीत, नतीराम व जगदेव आदि वीर गाथाओं गायन किया जाता है. उक्त कलाकारों द्वारा सिरमौरी गीतों पर पारम्परिक नृत्य भी किया जाता है. सदियों से क्षेत्र में केवल दीवाली तथा बूढ़ी दिवाली के दौरान ही बुड़ेछू नृत्य होता है तथा इसे बूढ़ा अथवा बुड़ियाचू नृत्य भी कहा जाता है. स्थानीय लोग बुड़ेछू दल के सदस्यों को नकद बक्शीश के अलावा घी के साथ खाए जाने वाले पारंपरिक व्यंजन भी परोसते हैं तथा इस परम्परा को ठिल्ला कहा जाता है. इस सप्ताह के दौरान अलग-अलग दिन अस्कली, धोरोटी, पटांडे, सीड़ो व तेलपकी आदि पारम्परिक व्यंजन परोसे जाते हैं. 


दीपावली के बाद पोड़ोई, दूज, तीज, चौथ व पंचमी आदि नामों से गिरिपार के कईं गांव में सांस्कृतिक संध्याओं का आयोजन किया जाता है, जिसमें से कुछ जगहों पर रामायण व महाभारत आदि का मंचन भी किया जाता है. गिरीपार के अंतर्गत आने वाले उपमंडल संगड़ाह, शिलाई व राजगढ़ की 154 पंचायतों में दिवाली पर्व आज भी इसी तरह पारम्परिक अंदाज में मनाया जाता है. क्षेत्र में कुछ दशक पहले तक बिना पटाखे चलाए पर्यावरण मित्र ढंग से यह उत्सव मनाया जाता था. हालांकि अब देश के अन्य हिस्सों की देखा-देखी में आतिशबाजी दीपावली का हिस्सा बन गई है. बहरहाल क्षेत्र में सदियों से इस तरह दीपावली मनाने की परंपरा कायम है.