एक फौजी की दर्द भरी चिट्ठी पढ़कर छोड़ दी थी नौकरी, 30 रुपये लेकर घर से निकले थे Dev Anand
Dev Anand Death Anniversary: देवानंद फिल्मी दुनिया की एक ऐसी हस्ती जिसे कभी भुलाया ही नहीं जा सकता, महज़ 30 रुपये लेकर घर से फिल्मी दुनिया में नाम कमाने के लिए निकलने वाले देवानंद के बारे में कुछ खास बातें पढ़िए.
Dev Anand: देवानंद ने अदाकारी से फिल्मी दुनिया में एक लंबे अरसे तक राज किया. अगर हम उनकी तारीफ करने पर आ जाएं तो वक्त और लफ्ज़ कम पड़ जाएंगे. उन्होंने डायरेक्टर, एक्टर, प्रोड्यूसर और राइटर, हर पहलू को बहुत बेहतरीन अंदाज से निभाने वाले सदाबहार देवानंद साहब की बात कर रहे हैं.
देवानंद गुरदासपुर का ताल्लुक था, वो एक बेहद पढ़ी-लिखी फैमिली में जन्मे थे, देवानंद के पिता एक जाने-माने वकील थे, देवानंद साहब को भी परिवार की तरह पढ़ने का बहुत शौक था और वो बहुत होशियार भी थे. देवानंद को फिल्में देखने का बचपन से ही शौक था. वह फिल्में देखने के लिए मीलों दूर अपने बड़े भाई चेतन आनंद के साथ जाया करते थे क्योंकि गुरदासपुर में उस वक्त थिएटर नहीं हुआ करते थे. दूसरे शहर फिल्में देखने के लिए जाना पड़ता था .
वकील बनाना चाहते थे पिता
देवानंद के पिता उनको अपनी तरह ही एक कामयाब वकील बनाना चाहते थे लेकिन उनके दिलो-दिमाग पर तो फिल्मों का भूत सवार था. तनहाई में खुद को आईने के सामने निहारते और अपने आप से बातें करते कि मैं इतना खूबसूरत अपनी जिंदगी यूं ही कुर्सी पर बैठकर कोर्ट में दूं. उस वक्त उनके दिलो-दिमाग पर अशोक कुमार की छवि छाई हुई थी. अशोक कुमार उस वक्त बहुत बड़ा नाम हुआ करते थे.
30 रुपये लेकर घर से निकले देवानंद
देवानंद अशोक कुमार के बहुत बड़े फैन थे और उन्हीं की तरह बनना चाहते थे, घरवालों की मर्जी के खिलाफ जेब में 30 रुपये रखकर मुंबई के लिए रवाना हो गए. लेकिन सब कुछ इतना आसान कहां था, क्योंकि मुंबई शहर यूं ही किसी को अपना नहीं बना लेता. उन्होंने रहने के लिए एक छोटा कमरा किराए पर लिया. यह कमरा रेलवे स्टेशन के पास था, इस कमरे में उनके साथ तीन और लोग रहा करते थे. यहां उन्होंने कुछ दिन गुजारे और जो पैसे घर से लेकर आए थे वह खत्म हो गए.
एक चिट्ठी की वजह से छोड़ दी नौकरी
पैसे खत्म होने के बाद देव साहब ने पेट पालने के लिए चर्च गेट के पास मिलिट्री सेंसर ऑफिस से अपने करियर की शुरुआत की. यहां देवानंद जवानों की चिट्ठी पढ़ने का काम करते थे. यहां से उन्हें ₹160 तनख्वाह मिलती थी. एक बार उनका मन बहुत उदास हुआ, जब उन्होंने एक जवान की चिट्ठी पढ़ी. जिसमें लिखा था 'काश मैं घर आ पाता'. देव साहब को ये लफ्ज इतने चुभे कि उन्होंने यह नौकरी ही छोड़ दी और फिल्मों में काम तलाशने में निकल गए.
नौकरी छोड़ने के बाद देवानंद रोज स्टूडियो को चक्कर लगाते लेकिन काम नहीं मिल पा रहा था. एक दिन उनकी मुलाकात पीएल संतोषी से हुई जो उस वक्त के बहुत मशहूर डायरेक्टर हुआ करते थे. वह देवानंद के बात करने के अंदाज से इतना प्रभावित हुए कि उन्होंने 1946 में आई फिल्म 'हम एक हैं' में काम दे दिया. यह फिल्म हिंदू-मुस्लिम एकता पर बनी बेहतरीन फिल्मों में शुमार की जाती है. इस फिल्म में देव साहब को एक हीरो के तौर पर साइन किया गया था.
देव साहब को तो बस एक मौके की तलाश थी और फिर उन्होंने अपनी बेहतरीन अदाकारी से सबका मन जीत लिया. इस फिल्म में गुरुदत्त असिस्टेंट डायरेक्टर और कोरियोग्राफर के तौर पर काम कर रहे थे. फिल्म के दौरान दोनों के बीच बहुत गहरी दोस्ती हो गई. जिसकी मिसाल फिल्मी दुनिया में आज भी दी जाती है. उसके बाद मुंबई टॉकीज की फिल्म 'जिद्दी' बन रही थी.
इस दौरान मशहूर डायरेक्टर शाहिद लतीफ की मुलाकात देव साहब से हो हुई. फिर क्या था, शाहिद तलीफ भी देव साहब की शख्सियत से प्रभावित हो गए और वो देव साहब को 'जिद्दी' फिल्म के डायरेक्टर अशोक कुमार के पास गए. अशोक कुमार इनकी खूबसूरती देखकर मुझे इसी तरह के खूबसूरत लड़के की तलाश थी. ज़िद्दी फिल्म भारत को आजादी मिलने के 1 साल बाद यानी 1948 को रिलीज हुई थी. जोकि बहुत कामयाब फिल्मों में शुमार की जाती थी. देव साहब की जिंदगी कामयाब बनाने में इस फिल्म का बहुत बड़ा किरदार था.
धीरे-धीरे मिली कामयाबी के बाद उन्होंने अपने भाइयों के साथ मिलकर नवकेतन फिल्म प्रोडक्शन बना दिया. बहुत ही कम वक्त में देवानंद साहब को कामयाबी मिलती जा रही थी लेकिन कामयाबी मिलने के बाद भी देव साहब कड़ी मेहनत करते गए और फिल्मी दुनिया में उनका नाम 50 और 60 के दशक में सबसे ज्यादा स्टाइलिश और यूथ आईकॉन के तौर लिया जाता है. देव साहब की दीवानगी का आलम यह था कि उनके ड्रेसिंग स्टाइल एक लेकर हेयर स्टाइल और चलने व बोलने का अंदाज ही लोगों ने कॉपी किया. देव साहब की उम्र बढ़ती चली गई लेकिन उनके काम करने के जुनून पर कोई असर नहीं पड़ा. इसीलिए दुनिया ने हमको सदाबहार हीरो के खिताब से नवाजा. देव साहब इकलौते ऐसे हीरो रहे जो बुढ़ापे में भी जवान दिखा करते थे.
देव साहब ने सच में जिंदगी का साथ निभाया, जब तक सांस चलती रही वो काम करते रहे, जिंदादिली का पैगाम दिया, जिंदगी के आखिरी दिनों में वह लंदन में थे और तीन फिल्मों की स्क्रिप्ट लिख रहे थे लेकिन उन्हें क्या मालूम था कि ऊपर वाला भी आज उनकी जिंदगी की स्क्रिप्ट का आखरी पन्ना लिख रहा है. चुपचाप 3 दिसंबर को मौत हमेशा के लिए देव साहब को हमसे दूर उस दुनिया में ले गई जहां से कोई वापस नहीं आता. लेकिन देवानंद जैसा इंसान कभी मरता नहीं, जब तक दुनिया कायम रहेगी उनके चाहने वाले देव साहब को कभी नहीं भूल पाएंगे. हर फिक्र को धुएं में उड़ाने वाला ऐसा अदाकार को जमाना जिंदगी भर याद रखेगा.
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