Israel Gaza War: मिडिल ईस्ट में जंग अब एक अलग मोड़ ले रही है. पूरे गाजा पट्टी को मलबे में तब्दील करने के बाद, इज़राइल लेबनान की ओर बढ़ा जहाँ पर न केवल उसने हिजबुल्लाह के पूरी टॉप हाइरेरकी को मार डाला, बल्कि साउथ लेबनान में एक के बाद एक घातक ज़मीनी हमले करके हिज़्बुल्लाह को सीज़ फायर करने पर मज़बूर किया.  इजराइल की इस कारवाई में सैकड़ों लोग मारे गए और लाखों लोग बेघर हो गए. इजराइल यहीं नहीं रुका. जब सीरिया में विद्रोही गुटों ने राष्ट्रपति बशर अल असद की सरकार का तख्ता पलट किया तो इजराइल ने मौके का फ़ायदा उठाते हुए न केवल पूरी गोलान की पहाड़ियों पर कब्ज़ा किया बल्कि आगे बढ़ते हुए सीरिया के सबसे ऊँचे और धार्मिक रूप से अहम् माउंट हरमन पर भी अपनी चौकियां तैनात कर दीं.  इजराइल ने ये सारी कार्रवाइयां उस घटना के जवाब में कीं जहाँ 7 अक्टूबर 2023 को हमास के जरिए इज़राइल पर हमला किया गया. यहूदी मुल्क ने हमले करने में देरी नहीं की और इसका नतीजा ये निकला कि अकेले गाजा में ही 48,000 से ज्यादा लोगों की जान चली गई है, लाखों लोग बेघर हैं और जंग अब भी जारी है.


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अरब देशों की खामोशी
इस पूरे मामले में सबसे अहम और समझने में मुश्किल प्रस्पेक्टिव अरब जगत की खामोशी है. यहूदी-अरब दुश्मनी दुनिया को अच्छी तरह से पता है. क्योंकि, दोनों समुदाय पंद्रह सदियों से लगातार लड़ रहे हैं. इजरायल, अपने बनने के बाद से ही अरब जगत के साथ जंग में रहा है और अतीत में एक दर्जन से ज्यादा बड़ी जंग लड़ चुका है. वो जमीन जो इस्लाम, ईसाई और यहूदी तीनों के लिए बहुत ही पाक मानी जाती है, आज खून से लहूलुहान है और मौजूदा जंग का रवैय्या  लगातार हैरान कर रहा है. इस पर सबसे बड़ी चिंता की बात ये है कि सारे इम्पोर्टेन्ट अरब मुल्क़ न केवल चुप हैं बल्कि इंडायरेक्ट तौर पर अपने साथी देशों के खिलाफ इजरायल की मदद कर रहे हैं, ऐसे में उनके इस रवैय्ये को समझना बेहद मुश्किल है.


फिलिस्तीनियों की मदद के लिए कोई नहीं आ रहा आगे
इस बार, गाजा में 45,000 से ज्यादा नागरिकों की मौत हुई, लेबनान में भी सैकड़ों मारे गए पर अरब मुल्क़ों ने इसके लिए कोई जिम्मेदारी तय नहीं की. ऐसा लगा कि गाजा और लेबनान में बड़े पैमाने पर तबाही से कोई भी अरब देश परेशान नहीं था. बड़ी अजीब सी बात है कि कोई भी अरब देश अपने साथी फिलिस्तीनियों और लेबनानी भाइयों की मदद के लिए आगे नहीं आया.


मिस्र का खराब रवैय्या
मिस्र जो फिलिस्तीन के अधिकारों के लिए खड़ा रहता है, उसने राफा सीमा के जरिए से भागने वाले फिलिस्तीनी रेफ्यूजी को लेने से इंकार कर दिया, यही नहीं, उन्होंने अपनी सीमा से अंतर्राष्ट्रीय राहत सामग्री के ट्रांसफर में भी कई बार गलत रवैय्या अपनाया. यूएई जैसे कुछ मु्ल्कों ने  तो 7 अक्टूबर, 2023 को इजरायल में हुए हमले की इतनी जल्दी निंदा की, कि फिलिस्तीन के लिए ये एक सदमे जैसा बन गया. बहुत ही अजीब बात है कि अरब लीग के 22 सदस्यों में से एक भी फिलिस्तीन के पक्ष में या इजरायल के आक्रमण के खिलाफ कड़े बयान नहीं दिए.
 
क्या है अरबों की चुप्पी की वजह
इस बार फिलिस्तीन के लिए अरबों का समर्थन केवल उनके शहरों में कुछ शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शनों तक सीमित था, जबकि उनकी सरकारों की ओर से कोई आक्रामक बयान नहीं आया. ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था और यह पूरी दुनिया के लिए हैरानी की बात है. आइए हम मध्य पूर्व में चल रहे जंग पर अरबों की चुप्पी के पीछे के कारणों को पांच आसान प्लाइंट्स में समझें.


1- अरब की आइडेंटिटी का शिफ्ट होना
लगभग एक दशक पहले तक, पूरा अरब जगत कई तरह की पहचानों में एकजुट था. जैसे कि बलदियाह (स्थानीय पहचान जैसे कि सहरा के बेडौइन), वतनयाह (वतन या राष्ट्रीय पहचान), कौमियाह (कौम स्तर या जातीय अरब पहचान) और दीनियाह (दीन या इस्लामी पहचान).


इन चारों में से, दीनियाह या इस्लामी पहचान ही वह थी जिसने पूरे अरब जगत को एक साथ बांधे रखा और इसलिए पूरा अरब फिलिस्तीन के पीछे खड़ा था और  इसी वजह से अपने कट्टर विरोधी यहूदियों का विरोध कर रहा था. लेकिन, 2010 में अरब स्प्रिंग के बाद चीजें बदल गईं. अलग-अलग अरब देशों में बड़े पैमाने पर विद्रोह ने दीनियाह पहचान को भूलना शुरू कर दिया और वतनयाह या राष्ट्रीय पहचान को इस पर तवज्जो देना शुरू कर दिया।  ये एक बड़ी वजह थी न केवल अरब बल्कि उत्तरी अफ्रीका के इस्लामिक मुल्कों के नेताओं ने भी धर्म से ऊपर अपने देश को तवज्जो देना शुरू कर दिया।  ये एक बड़ा कारण था जिसने किसी तरह फिलिस्तीन के लिए अरब और उत्तरी अफ्रीका के समर्थन को प्रभावित किया.


फिलीस्तीन मुद्दा, जो कुछ दशक पहले तक अरबों और अरब प्रवासियों को एकजुट करने की एक अहम वजह था, अब उनके लिए पीछे छूट गया है और अरब देशों के नेता पहले अपना राष्ट्र और उसकी तरक्की को प्राथमिकता दे रहे हैं.


2- इज़राइल की डिप्लोमेसी और अब्राहमिक अकॉर्ड 2024
यूएई, मोरक्को, सूडान और बहरीन जैसे कई अन्य अरब देशों ने 2020 में अब्राहमिक समझौते पर दस्तखत किए, जिसमें इजरायल को एक सोवरेन स्टेट के तौर पर मान्यता दी गई और तेल अवीव के साथ राजनयिक संबंध शुरू किए गए. इजरायल ने भी जल्दी ही शांति प्रस्ताव पेश किया और अरब मुल्कों की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाया. अरब मुल्कों के लिए जिन्होंने इजराइल के साथ कई युद्ध लड़े हैं, यह नॉर्मेलेसी की तरफ एक पॉजीटिव कदम था. यह सभी के हित में था और इससे सभी मध्य पूर्वी देशों को एक साथ तरक्की की राह पर आगे बढ़ने में मदद मिलती. इस बात का एक दूसरा पहलू भी है.  सबको पता है कि अमेरिका इजराइल के पक्ष में खड़ा है और दुनिया के जिस भी मुल्क़ ने अमरीका के खिलाफ जाने की कोशिश की, वो बर्बाद हो गया , ऐसे में फिलिस्तीन के पक्ष में खड़े होने का सीधा सीधा मतलब था इजरायल और अमेरिका के खिलाफ खड़ा होना और अरब मुल्कों ने पूरी तरह नाप तोल कर अपना फैसला लिया.


3- अरब अर्थव्यवस्था में गिरावट
दुनिया के आर्थिक हालात ज्यादा अच्छे नहीं हैं और ज्यादातर अरब देशों की अर्थव्यवस्था बुरे दौर से गुज़र रही हैं. आज जबकि पेट्रो डॉलर इतिहास की बात बनते जा रहे हैं, और रूस, वेनेज़ुएला और अमरीका में बड़े पैमाने पर तेल निकाला जा रहा है, कच्चे तेल की कीमतों पर अरबों का एकाधिकार भी ख़त्म हो रहा है. उनके तेल भंडार भी बहुत तेजी से कम हो रहे हैं और इससे पहले कि अरब की ज़मीन में तेल ख़त्म हो जाए उन्हें अपनी इकोनॉमी के लिए जल्द से जल्द कोई विकल्प तलाशना होगा.  इसके लिए केवल एक ही उपाय है और वो है पूर्व और पश्चिम की बड़ी ताक़तों के साथ बेहतर तालमेल.


तेल भंडार वाले लगभग सभी अरब देश भविष्य में सामना करने के लिए टूरिस्ट बुनियादी ढांचे और ऑप्शनल बिजनेस डेवलप कर रहे हैं. कुछ ऐसे देश हैं जिनके पास तेल नहीं है और वे इस वक़्त में बुरी तरह संघर्ष कर रहे हैं. उदाहरण के लिए, मिस्र पर खुद पश्चिमी देशों और IMF से 165 बिलियन डॉलर से ज्यादा का कर्ज है, जिसमें से 43 बिलियन डॉलर का भुगतान इस साल किया जाना है.


यूरोपीय या अमेरिकी देशों को नहीं कर सकते हैं नाराज़
22 अरब लीग मेंबर देशों में से हर एक की अपनी आर्थिक समस्याएं हैं और वे डायरेक्ट या इंडायरेक्ट तौर पर पश्चिम पर निर्भर हैं, इसलिए वे अपने यूरोपीय या अमेरिकी समकक्षों को नाराज करने की कंडीशन में नहीं हैं, जहां अधिकांश व्यवसाय यहूदियों के जरिए कंट्रोल किया जाता है. अमरीका और यूरोप के लगभग सारे बड़े व्यापार समूहों की चाबी यहूदियों के पास ही है और इसीलिए धर्म से ज्यादा ये अरब मुल्क़ों के खुद के सर्वाइवल का सवाल है.


यूएस फैक्टर


एक अहम फैक्टर अमेरिका भी है. अरब दुनिया देख रही है कि अमेरिका ने इराक, लीबिया, अफगानिस्तान, सीरिया और अरब पेनिसुला के दूसरे हिस्सों में क्या किया. कोई भी अमेरिका के सामने नहीं आना चाहता और उसे नाराज़ नहीं करना चाहता. सबको पता है कि मिडिल ईस्ट में अमेरिकी सेना की मौजूदगी बहुत ज्यादा है।  यहाँ पर उसका पूरा सेंट्रल कमांड है , दो पूरी तरह सुसज्जित  कैरियर स्ट्राइक ग्रुप है और इसके साथ ही पचास हज़ार के लगभग सैनिक है जो ज़रूरत पड़ने पर कहीं भी हमला कर सकते हैं. 


अरब दुनिया अच्छी तरह से जानती है कि उसे अमेरिकी रास्ते में नहीं आना चाहिए जो इज़राइल के साथ मजबूती से खड़ा है. अरब देश के लिए उनका खुद का सर्वाइवल महत्वपूर्ण है और इसलिए वे फिलिस्तीन का समर्थन करने या इज़राइल से लड़ने के बजाय, वे वेट एंड वॉच मोड में चले गए हैं.


अरब जगत ने जिस तरह से अपने फिलिस्तीनी, लेबनानी, यमनी और ईरानी भाइयों को पीठ दिखाई है, वह दुनिया के लिए हैरानी की बात है. वैसे तो यह अपेक्षित था और इसके अपनी वजह भी हैं, लेकिन यह एक नई सामान्य बात है. यह जहां अरब जगत में अनोखी फॉल्टलाइन को दिखाता है, वहीं यह भी दर्शाता है कि अरब देश अब धर्म से ज़्यादा अपने देश और उसके हितों को तरजीह दे रहे हैं.


यह स्टोरी मेजर अमित बंसल (सेवानिवृत्त) के द्वारा लिखी गई है.