नई दिल्लीः जब कभी ऐसी खबरें आती है कि भारत में किसी मुस्लिम नौजवान (Muslims Youth) या समूह ने 'पाकिस्तान जिंदाबाद' (Pakistan Zindabad) के नारे लगाए हैं, तो इन आरोपों की जांच के पहले ही ऐसा मान लिया जाता है कि आरोपी मुसलमान है, तो उसने ये नारे लगाए ही होंगे. लेकिन हर बार ये सच नहीं होता है. अब ये नारा लगाने का आरोप किसी मुस्लिम शख्स या समूह को निशाना बनाने, उसे प्रताड़ित करने या और चुनावों के वक्त वोटों के धु्रवीकरण के लिए भी लगाया जाने लगा है.
 
मध्य प्रदेश (Madhya Pradesh) की एक अदालत द्वारा 'पाकिस्तान जिंदाबाद' (Pakistan Zindabad) के नारे लगाने के आरोपी 17 मुस्लिम नागरिकों को 6 साल बाद बाइज्जत बरी करने के बाद इस अवधारणा को बल मिलता है कि ज्यादातर मामले में पुलिस, प्रशासन और राजनीतिक दलों के लोग ऐसे झूठे आरोप गढ़कर मुस्लिमों को परेशान करते हैं. इस मामले में अर्टिकल-14 नाम के एक न्यूज वेबसाइट ने अपनी विस्तृत रिपोर्ट पब्लिश की है. 
     
मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र सीमा पर मध्य प्रदेश का बुरहानपुर जिला स्थित है. इसी जिले में मोहद नाम का एक गांव है, जहां लगभग 4 हजार लोग निवास करते हैं. गांव में रहने वाली आबादी में ज्यादातर हाशिए पर रहने वाले दलित, भील आदिवासी और तड़वी भील मुसलमान हैं, जो भीलों की एक उपजाति है, जिन्होंने कभी इस्लाम धर्म अपना लिया था. गांव की ज्यादातर आबादी सीमांत किसान या दिहाड़ी मजदूर है. 


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2017 के 18 जून को भारत और पाकिस्तान के बीच होने वाले क्रिकेट मैच में भारत की हार इस गांव के 17 लोगों के लिए भी बेहद मनहूस साबित हुई. बल दिन के बाद से उनका आने वाला 6 साल कोर्ट-कचहरी और जेल के चक्कर काटते हुए गुजर गए और उनमें से एक की मौत तक हो गई.  


अर्टिकल-14 के मुताबिक, इस गांव के 17 लोगों पर इल्जाम लगा था कि 18 जून 2017 को लंदन के ओवल स्टेडियम में खेले जा रहे चैंपियन ट्रॉफी के फाइनल मैच में पाकिस्तान  से भारत की हार के बाद, इन लोगों ने 'पाकिस्तान जिंदाबाद' के नारे लगाए थे. भारत की हार पर खुशी में मिठाइयाँ बाँटी थी, पटाखे छोड़े थे और जश्न मनाया था. ये अफवाह पूरे गांव और उसके आसपास के इलाकों में फैला दी गई थी.
 
गांव के कुछ लोगों की शिकायत पर पुलिस ने 17 मुस्लिमों के खिलाफ राजद्रोह और आपराधिक साजिश का मामला दर्ज किया. लेकिन बाद में जब पुलिस को राजद्रोह का मामला बनाना मुश्किल लगा, तो उन्होंने राजद्रोह को हटाकर विभिन्न समूहों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा देने वाली धाराएं जोड़ दी.  


इस मामले में 17 लोगों को पुलिस ने गिरफ्तार कर जेल भेज दिया. पुलिस कस्टडी में उनके साथ क्रूर व्यवहार किया गया है. आरोपियों में से कुछ ने बताया कि जब उन्हें जून 2017 में शाहपुर थाने ले जाया गया तो टाउन इंस्पेक्टर संजय पाठक और दीगर पुलिस कर्मियों ने उन्हें लात मारी, पीटा और गालियां दी. पुलिस ने उनकी दाढ़ी खींची, विरोध करने पर आग लगा देने की धमकी दी और दो दिनों तक बिना खाने के लॉकअप में बंद रखा.


इस मामले में लगभग 6 साल मुकदमा चलने के बाद अदालत ने सभी आरोपियों को सबूतों के अभाव में बरी कर दिया. बुरहानुप कोर्ट के प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट देवेंदर शर्मा ने इस मामले में 16 मुस्लिम पुरुषों को बरी करते हुए कहा कि शिकायतकर्ता और सरकारी गवाहों ने अदालत को बताया कि उन पर झूठे आरोप लगाने के लिए दबाव डाला गया था. शर्मा ने 9 अक्टूबर 2023 को दिए फैसले में लिखा, "सभी सबूतों, दलीलों और चश्मदीदों को देखने के बाद इस बात का कोई सबूत नहीं मिला कि आरोपियों ने पाकिस्तान की हिमायत में नारे लगाए और पटाखे जलाए. इसके अलावा, पुलिस आईपीसी की धारा 153-ए (विभिन्न समूहों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा देना) के तहत उन पर मुकदमा चलाने के लिए भी सबूत देने में भी नाकाम रही. इस तरह, अदालत इस फैसले पर पहुंची है कि सभी आरोपियों को बरी कर दिया जाए." हालांकि कोर्ट ने इस मामले में मध्य प्रदेश पुलिस को झूठा मामला दर्ज करने और मुकदमा चलाने के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया. 


बचाव पक्ष के वकील शोएब अहमद ने कहा, "गवाहों पर झूठी़ गवाही देने का दबाव डाला गया, लेकिन वे सच्चाई के साथ खड़े रहे, इसलिए हम ये मुकदमा जीत सके." 


कोर्ट ने अक्टूबर 2023 को इस मामले में सभी आरोपियों को बरी कर दिया था. लेकिन कोर्ट का फैसला आने के पहले ही इनमें से एक आरोपी की मौत हो चुकी थी. 40 वर्षीय रुबाब नवाब ने फरवरी 2019 में खुदकशी कर ली थी, क्योंकि वह 'देशद्रोही' कहलाने का अपमान नहीं सह सका. 17 मुस्लिम पुरुषों के अलावा, दो नाबालिग, मुबारक तडवी और ज़ुबैर तडवी, भी इनमें शामिला था, जो गिरफ्तारी के वक्त 16 साल का था. इसलिए जून 2022 में किशोर न्याय ने उन दोनों को पहले ही बरी कर दिया था. 


मोहद गांव के मुखिया रफीक तड़वी कहते हैं, “उस घटना के बाद से गांव में आजतक भारत और पाकिस्तान का मैच कोई नहीं देखता है. गांव के लोग न तो क्रिकेट खेलते हैं और न ही टीवी पर मैच देखते हैं."  


बरी होने वाले में से एक जुबैर ने कहा, "मैं पुलिस इंस्पेक्टर बनना चाहता था, लेकिन अब मैंने अपनी पढ़ाई छोड़ दी है. अदालत ने तो हमे बरी कर दिया, लेकिन हमारे उन दर्द का हिसाब कौन देगा जो हमने 6 सालों तक सहा है? हमारे सपने मर गए वह अलग..  क्या देश की किसी अदालत में किसी के सपनों का खून करने का भी मुकदमा चलता है?"