खतरा नहीं समाज के सेफ्टी वाल्व हैं मदरसे; लेकिन ज़रूरी है दीन के इस किले की मरम्मत
सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को इलाहाबाद हाई कोर्ट के उस फैसले को रद्द कर दिया है, जिसमें मदरसों को संविधान के धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों के खिलाफ बताया गया था. आइये जानते हैं भारत में कैसे चलता है मदरसों का पूरा निजाम ? कौन करता हैं यहाँ पढ़ाई, किसे होता है फायदा और किसे है इससे नुकसान ?
नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को 'उत्तर प्रदेश बोर्ड ऑफ मदरसा एजुकेशन एक्ट 2004' की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखते हुए इलाहाबाद हाई कोर्ट के 22 मार्च 2024 के उस फैसले को खारिज कर दिया, जिसमें हाईकोर्ट ने उत्तर प्रदेश सरकार के मदरसा एक्ट को यह कहते हुए रद्द कर दिया था कि यह संविधान के धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों के खिलाफ है. सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से पूरे देश के मदरसा संचालकों और मुस्लिम समुदाय ने ख़ुशी का इज़हार किया है, जो एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया है. वहीँ, दूसरी तरफ इस फैसले से केंद्र सरकार, भाजपा और भाजपा शासित राज्य सरकारों को काफी धक्का पहुंचा है. इससे भाजपा शासित राज्यों में मदरसों के विरुद्ध चलाये जा रहे अभियान पर रोक लगेगा और उन राज्य सरकारों के फैसले को कोर्ट में चुनौती दी जा सकेगी, जो मदरसों की व्यवस्था में अनावशयक तौर पर दखल देते हैं.
सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा ?
सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और मनोज मिश्रा की बेंच ने हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ याचिकाओं पर फैसला सुनाते कोर्ट के फैसले को रद्द कर दिया है. इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मदरसा एक्ट अल्पसंख्यकों को शैक्षणिक संस्थानों का प्रबंधन करने का पूर्ण अधिकार भी नहीं देता है, राज्य ऐसी शिक्षा के मानकों को विनियमित कर सकता है. सुप्रीम कोर्ट ने अपने इस फैसले के साथ ही मदरसा बोर्ड द्वारा 'फाजिल और कामिल' जैसी उच्च शिक्षा की डिग्री प्रदान करने को असंवैधानिक करार दिया है. उच्चतम न्यायालय ने कहा कि जहां तक कामिल और फाजिल डिग्री का सवाल है, ये उच्च डिग्री हैं, कोई बोर्ड इसे प्रदान नहीं कर पाएगा; लेकिन 10वीं और 12वीं के समकक्ष अन्य डिग्री मान्य होंगी.
सुप्रीम कोर्ट ने ध्वस्त किया प्रोपगैंडा
इस्लामिक विद्वान और पत्रकार, समी अहमद ने कहा, "सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने मदरसा के विरुद्ध चलाइ जा रहे प्रोपगंडा अभियान को ध्वस्त कर दिया है. भाजपा और संघ वर्षों से यह प्रोपगंडा फैलता रहा है कि मदरसों में सिर्फ इस्लामी ज्ञान दिया जाता है, और वहां लोगों को कट्टरपंथी बनने की सीख दी जाती है. संघ ये भी आरोप लगता रहा है कि मदरसों में आतंकवाद को प्रशय दिया जाता है. लेकिन आजतक कोई भी सरकार इसे साबित नहीं कर पाई है." इस्लामिक विद्वान फखर जमा कहते हैं, " भाजपा मदरसों को इस्लाम का एक मजबूत स्तम्भ मानती है, इसलिए उसे कमजोर करने और उसमें हस्तक्षेप करने का प्रयास करती है." उत्तर प्रदेश मदरसा बोर्ड के पूर्व अध्यक्ष डॉक्टर इफ्तिखार अहमद जावेद कहते हैं, " अपराध और भ्रष्टाचार के मामले कहाँ नहीं होते हैं ? ये स्कूल और कालेजों में भी होते हैं, लेकिन सरकार तब किसी एक दो कालेज की वजह से सारे कॉलेजों को तो गैर-कानूनी नहीं बता देती है, फिर ये मदरसे के साथ क्यों होता है ?
असम में एक मदरसे को अवैध बताकर उसके भवन को गिरा दिया गया.
भाजपा शासित राज्यों में मदरसों के खिलाफ खुला अभियान
पिछले कुछ सालों में भाजपा शासित राज्यों, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार और असम में मदरसों को निशाना बनाया गया. कभी उनके सिलेबस पर सवाल खड़े किए गए तो कभी उसकी फंडिंग और मान्यता को लेकर मदरसों को कटघरे में खड़ा किया गया. असम में सैकड़ों की तादाद में सरकारी मदरसों को ख़त्म कर उसे स्कूल में बदल दिया गया. कुछ मदरसों की बिल्डिंग को महज इसलिए तोड़ दिया गया कि वहां कथित तौर पर बांग्लादेश के नागरिक शिक्षण कार्य में लगे हुए थे और वो गैर- कानूनी गतिविधियों में लिप्त थे. मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड में कुछ मदरसों को इसलिए बंद किया गया कि उसका कहीं पंजीकरण नहीं हुआ था.
उत्तर प्रदेश मदरसा बोर्ड के पूर्व अध्यक्ष डॉक्टर इफ्तिखार अहमद जावेद कहते हैं, मदरसे पर कुछ लोगों की टेढ़ी नज़र होती है. मदरसे वंचित बच्चों को दूर-दराज के इलाकों में धर्मनिरपेक्ष और धार्मिक शिक्षा तक पहुंच प्रदान करते हैं. कुछ छिटपुट घटनाएं या कानून-व्यवस्था की स्थिति होती है, लेकिन क्या ये स्कूल और कॉलेजों में नहीं होती हैं? मदरसों में इस्लामी शिक्षा के मुद्दे पर, मैं एक बात पूछूंगा - क्या यूपी में संस्कृत बोर्ड के स्कूलों में धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाती है? उन्हें (एनसीपीसीआर को) मदरसों में जाकर देखना चाहिए कि वे कैसे काम करते हैं और छात्र वहां क्या पढ़ते हैं..
मदरसों पर आखिर क्यों शुरू हुआ विवाद; इस लफड़े में क्यों कूदा NCPCR ?
हाल ही में राष्ट्रीय बाल संरक्षण आयोग (NCPCR) ने अपनी रिपोर्ट में यह दलील दी थी कि मदरसा में बच्चों को दी जाने वाली शिक्षा व्यापक और स्तरीय नहीं है. इसलिए यह शिक्षा के अधिकार कानून, 2009 के प्रावधानों के खिलाफ है. इसके बाद ही हाई कोर्ट ने 'यूपी बोर्ड ऑफ मदरसा एजुकेशन एक्ट 2004' को असंवैधानिक और धर्मनिरपेक्षता और मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने वाला करार दिया था. उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार से तत्काल कदम उठाने को कहा ताकि उत्तर प्रदेश के मदरसों में पढ़ने वाले छात्रों को अन्य स्कूलों में दाखिला मिल सके. हाईकोर्ट के इस फैसले से मदरसे में पढने वाले लाखों बच्चे और उनसे जुड़े शिक्षकों के सामने संकट खड़ा हो गया था.
NCPCR के वर्त्तमान चेयरमैन प्रियांक कानून गो
NCPCR ने क्यों किया ऐसा
मदरसा शिक्षा पर राष्ट्रीय बाल संरक्षण आयोग के रिपोर्ट और उसे बंद करने की सिफारिशों पर देश भर में काफी बवाल हुआ. मुसलमान और मुस्लिम संघटनों ने इसे भेदभावपूर्ण फैसला करार दिया. संविधानिक प्रावधानों के तहत NCPCR के वर्त्तमान चेयरमैन प्रियांक कानून गो को केंद्र सकरार ने NCPCR का चेयरमैन बनाया है. इस वजह से ये भी आरोप लगा कि NCPCR भाजपा शासित केंद्र सरकार के खिलाफ मदरसों के खिलाफ प्रोपगंडा चला रहा है, और उसे परेशान कर रहा है.
आरटीई अधिनियम (बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 की), 2009 के मुताबिक, एनसीपीसीआर को अधिनियम के तहत दिए गए अधिकारों के लिए सुरक्षा उपायों की जांच और समीक्षा करने और उनके प्रभावी कार्यान्वयन के लिए उपायों की सिफारिश करने का अधिकार है। इस अधिकार के तहत आयोग ने मदरसों की जांच की थी. आरटीई अधिनियम के मुताबिक, जो बच्चे स्कूल नहीं जाते हैं, उन्हें शिक्षा के मौलिक अधिकार से वंचित और स्कूल से बाहर का बच्चा मान लिया जाता है. इस श्रेणी में अल्पसंख्यक समुदाय के सर्वाधिक बच्चे आते हैं जो मदरसा तो जाते हैं, लेकिन स्कूल नहीं जाते हैं. इसलिए, गैर-मान्यता प्राप्त और अन मैप्ड मदरसों में पढ़ने वाले बच्चे तकनीकी रूप से स्कूल से बाहर के माने जाते हैं, और NCPCR मानता है कि इन बच्चों को उनके मौलिक अधिकार से वंचित किया जा रहा है. हालांकि, ये भी सच है कि NCPCR ने जिस तरह मदरसे के मामले में तत्परता दिखया, उस तरह से वो किसी स्कूल या संस्कृत बोर्ड के स्कूलों को लेकर जांच-पड़ताल नहीं करता है कि आखिर वहां कौन से विज्ञान की पढ़ाई की जाती है ?
देश में कितने मदरसे हैं ?
मदरसों में नामांकन- जनगणना 2011 और यूडीआईएसई के आंकड़ों के आधार पर यह अनुमान लगाया गया है कि देशभर में इन संस्थानों में 1 करोड़ से ज्यादा बच्चे पढ़ रहे हैं. यह संख्या राज्य सरकारों द्वारा किसी भी डेटा में नहीं दर्शाया गया है, क्योंकि मदरसे बड़े पैमाने पर गैर-मान्यता प्राप्त होते हैं, जिनका सरकार के पास कोई डाटा नहीं है.
देश में कितने तरह के है मदरसे ?
मदरसों को निम्न प्रकारों में वर्गीकृत किया जा सकता है:
1. मान्यता प्राप्त मदरसे
मान्यता प्राप्त मदरसे राज्य मदरसा बोर्ड द्वारा मान्यता प्राप्त होते हैं, और उनके पास यूडीआईएसई कोड होते है. ये मदरसे कुछ हद तक औपचारिक मौलिक शिक्षा प्रदान कर रहे हैं, लेकिन संविधान के अनुच्छेद 21 ए के तहत बच्चों के मौलिक अधिकार का विस्तार करने के लिए पेश किए गए आरटीई अधिनियम, 2009 के अनुसार यहाँ पढ़ाई नहीं होतीहै. इन मदरसों में औपचारिक शिक्षा धार्मिक शिक्षा के साथ प्रदान की जाती है. सच्चर समिति की रिपोर्ट (2006) में सिर्फ इन्हीं मदरसों की बात कही गयी थी, जिससे यह माना जाता है कि मुसलमानों के सिर्फ 4% बच्चे ही मदरसों में पढ़ने जाते हैं.
2. गैर-मान्यता प्राप्त मदरसे
इस श्रेणी में वैसे मदरसे आते हैं, जिन्हें राज्य सरकार द्वारा मान्यता के लिए अयोग्य पाया जाता है. उन्हें कई कारणों से अयोग्य माना जा सकता है, जिनमें औपचारिक शिक्षा न देना, गैर-अनुपालन वाला बुनियादी ढांचा होना, अनुपयुक्त शिक्षकों की नियुक्ति न करना आदि शामिल हैं, लेकिन ये सिर्फ यहाँ तक ही सीमित नहीं हैं. अयोग्य करार देने के और भी पैरामीटर होते हैं, जिसमें नियमों के मुताबिक भवन का न होना भी हो सकता है.
बिना मैप किए गए मदरसे
इस श्रेणी में वैसे मदरसे आते हैं, जिसने कभी मान्यता के लिए आवेदन ही नहीं किया है. यूडीआईएसई उन मदरसों को ध्यान में नहीं रखता है, जो पारंपरिक रूप से स्थापित हैं, जिन्होंने राज्य सरकार को मान्यता के लिए आवेदन नहीं किया है. ये बिना मैप किए गए मदरसे किसी धार्मिक संगठन से जुड़े हो सकते हैं या नहीं भी हो सकते हैं, और हो सकता है कि वे अपने स्वयं के मानदंडों या दिशानिर्देशों का पालन कर रहे हों. उनकी विशिष्ट संख्या और इन संस्थानों में जाने वाले बच्चों की संख्या का पता लगाना बेहद मुश्किल है, क्योंकि उन्हें कभी औपचारिक रूप से मैप नहीं किया गया है. हालाँकि, यह भारत में सबसे आम प्रकार का मदरसा है, जिसमें सबसे अधिक संख्या में बच्चे पढ़ते हैं. किसी भी गावं, कस्बों और शहरों के गली- मोहल्ले में ऐसे मदरसे आसानी से देखे जा सकते हैं.
कौन पढ़ता है इन मदरसों में ?
मदरसों में पढ़ने वाले ज़्यादातर बच्चों में मुस्लिम समाज के आर्थिक रूप से पिछड़े तबके के बच्चे होते हैं. एक अनुमान के मुताबिक, बिहार के बच्चे आपको देश के किसी भी हिस्से के मदरसे में मिल जाएंगे. इनमें सबसे ज्यादा बच्चों की संख्या गैर-मान्यता प्राप्त मदरसों में होती है. बिना मैप किए गए मदरसे में भी इनकी संख्या काफी है. सरकार मानती है कि मुस्लिम समाज के पसमांदा मुसलमानों के बच्चे मदरसे में ज़यादा पढ़ते हैं, और बहुत हद तक इन दावों में सच्चाई भी होती है. जो सक्षम मुसलमान हैं, उनके बच्चे मदरसों में नहीं पढ़ते हैं, और अगर कोई पढता भी है, तो बड़े मदरसे में पढाई करता है, जहाँ पैसे लगते हैं. अपना खर्चा भी खुद उठाना होता है.
जब फ्री में सरकारी स्कूल है, तो अभिभावक मदरसों में क्यों भेजते हैं बच्चों को ?
UNDP इंडिया के दिल्ली के पूर्व संयोजक और बिहार में मुसलमानों के आर्थिक पिछड़ेपन पर शोध करने वाले शोधार्थी डॉक्टर जावेद आलम कहते हैं, "मदरसों में पढ़ने वाले 90 फीसदी बच्चे गरीब और अभावग्रस्त परिवारों के होते हैं. वो अनाथ भी हो सकते हैं. देश के अधिकांश आवासीय मदरसों में खान-पीना, रहना और पढाई सभी मुफ्त होती है. ऐसे में अभावग्रस्त अभिभावक अपने बच्चों को ऐसे मदरसों में भेजना ज्यादा बढ़िया सौदा मानते हैं. धार्मिक शिक्षा के साथ उसका 5- 10 साल पालन-पोषण भी मुफ्त में हो जाता है." वहीँ, धार्मिक शिक्षा के प्रति मुस्लिम समाज में एक ख़ास इज्ज़त, रुतबा और मरने के बाद परलोक में मौलवी- हाफिज को मिलने वाले ख़ास इज्ज़त के दावे भी कुछ लोगों को अपने बच्चों को मदरसों में भेजने के लिए मजबूर करता है. अनपढ़ और गरीब अभिभावक को इस बात का भी लालच होता है कि उनका बच्चा हफिज, मौलवी बन जाएगा, तो समाज में उनकी इज्ज़त होगी और मरने के बाद बेटे के कृपा से उन्हें जन्नत में जाने की राह आसान होगी. वहीँ, सक्षम परिवारों के बच्चे पैसे देकर घर बुलाकर मौलवी से दीन और इस्लाम की तालीम हासिल करते हैं.
गैर-मान्यता प्राप्त और बिना मैप किए मदरसों को कहाँ से आता है पैसा ?
देश में मान्यता प्राप्त कुछ मदरसों को सरकार फंड देती है, लेकिन गैर-मान्यता प्राप्त और बिना मैप किए मदरसों को सरकार से कोई फंड नहीं मिलता है. ऐसे मदरसे निजी स्रोत से फंड जमा करते हैं. इस्लाम के मौलिक सिद्धांतों में से एक है, साल में अपनी संचित निधि से 2.5 फीसदी धन जकात के रूप में गरीबों को दान करना. गैर-मान्यता प्राप्त और बिना मैप किए मदरसों के फंड का सबसे बड़ा स्रोत यही माना जाता है. सक्षम और मालदार मुसलमान हर साल उसे जकात की रकम देते हैं. जकात के अलावा, खैरात, फितरा, सदका जैसे दान भी लोग मदरसों को देते हैं. किसान अपनी फसलों से भी कुछ हिस्सा मदरसों को दान कर देते हैं. इसके अलावा ऐसे मदरसों के टीचर साल भर अपने आसपास घूम-घूमकर भी पैसे जमा करते हैं. कुछ लोग नियमित तौर पर मदरसों को पैसे दान देते हैं. मदरसों को पैसे देने के पीछे मुसलमानों की सोच है कि यहाँ गरीब और अभावग्रस्त लोगों के बच्चे पढ़ते हैं, इसलिए उनकी शिक्षा के लिए दान देने से बेहतर भला और क्या हो सकता है ? कुछ मुसलमान ये भी मानते हैं कि मदरसों को दान देकर वो दीन (धर्म) का काम कर रहे हैं. इससे उनका परलोक भी सुधरेगा.
क्या मदरसों को विदेशों से मिलता है पैसा ?
दिल्ली में मजीदिया मदरसा चलाने वाले डॉक्टर निजाम अंसारी कहते हैं, "मिडिल ईस्ट में मुस्लिम देशों के पास बहुत पैसा है. अक्सर वो जकात की रकम गरीब एशियाई और अफ़्रीकी देशों के गरीब लोगों को भेज देते हैं. लेकिन इन पैसों को हासिल करने का नसीब मदरसों को कम ही मिल पाता है. या तो किसी इस्लामिक संस्था से मदरसे का जुड़ाव हो या सीधे दान देने वाले विदेशी सरकार या एजेंसी से उसका संपर्क हो तो वो पैसा ले सकता है. हालांकि, इसमें अलग किस्म के खतरें हैं. सरकार इसे हवाला या आतंकी फंडिंग बताकर कानूनी कार्रवाई भी कर सकती है. इसलिए इस लफड़े में शायद ही कोई पड़ता है.
क्या मदरसों को सरकार द्वारा फंड देना मुसलमानों का तुष्टिकरण है ?
देश में मदरसों की स्थापना करना या उसका सञ्चालन करना संविधानसम्मत है. संविधान इसकी इज़ाज़त देता है. संविधान के भाग 4 जहाँ नागरिकों के मौलिक अधिकारों का जिक्र है, उसके आर्टिकल 29 और 30 में इसका स्पष्ट प्रावधान है. आर्टिकल 29 कहता है कि देश में रहने वाले किसी भी भाषाई और धार्मिक अल्पसंख्यक को अपनी भाषा, लिपि और कल्चर को सहेजने और उसकी हिफाजत करने का अधिकार होगा. इसका मकसद बहुसंख्यक समाज की दादागिरी से उसकी हिफाजत करना है. वहीँ, आर्टिकल 30 देश के अल्पसंखयकों को यह अधिकार देता है कि वो सरकार द्वारा फंडेड किसी भी शिक्षण संस्थान में पढाई कर सकता है. साथ ही वो अपने धर्म और संस्कृति के रक्षा और उसके संवर्धन के लिए अपने पसंद का शिक्षण संस्थान खोलकर उसका सञ्चालन कर सकता है. सरकार ऐसे संस्थानों को फंड देने में कोई भेदभाव भी नहीं करेगी. यानी सरकार अगर मदरसों को फंड देती है, तो ये किसी भी तरह से मुसलमानों का तुष्टिकरण नहीं कहलायेगा.
क्या मुसलमानों के अलावा दूसरे धर्मों के भी होते हैं कोई ख़ास शिक्षण संस्थान ?
संविधान के आर्टिकल 29 और 30 के प्रावधानों के तहत न सिर्फ देश का मुसलमान बल्कि सिख और ईसाई जैसे अल्पसंख्यक और बहु संख्यक हिन्दू धर्म के लोग भी सामान्य स्कूलों से हटकर धार्मिक शिक्षण संस्थानों का सञ्चालन करते हैं. ईसाई मिशनरी स्कूल इसके उदाहरण है. वहीँ, देश के कई राज्यों में मदरसा बोर्ड की तरह संस्कृत बोर्ड भी हैं, जो पूरी तरह सरकारी खर्चे पर चलते हैं. देश में कई गुरुकुल भी चल रहे हैं, जिसमें विशुद्ध रूप से सनातन धर्म की शिक्षा दी जाती है. अभी 4 नवम्बर 2024 को ही उत्तर प्रदेश के रामनगरी अयोध्या में सरयू तट के किनारे श्री गुरु वशिष्ठ विद्यापीठ गुरुकुल को भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय की ओर से वेद पाठशाला की मान्यता प्रदान कर दी गयी है। यह गुरुकुल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) से सम्बद्ध है. इस गुरुकुल में भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय की स्वायत्तशासी संस्था महर्षि सांदीपनि राष्ट्रीय वेद विद्या प्रतिष्ठान उज्जैन द्वारा अलग-अलग विषयों के आचार्यों की नियुक्ति के लिए भी मान्यता प्रदान कर दी गयी है. यहाँ वेद विद्या प्रतिष्ठान में यजुर्वेद के 3, अथर्ववेद- सामवेद व ऋवेद के एक एक आचार्य की भी मान्यता प्रदान की गई है. इसके अलावा आधुनिक विषय में संस्कृत गणित व कंप्यूटर में एक एक आचार्य की मान्यता भी दी है.
क्या भाजपा की सरकार वाकई में चाहती है मदरसों का मॉडर्नाइजेशन ?
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने मदरसों को लेकर कभी कहा था कि छात्रों के एक हाथ में कुरान और दूसरे हाथ में कंप्यूटर होना चाहिए. उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने भी मदरसों के आधुनिकरण के प्रयास और दावे किये. लेकिन वहां के शिक्षक बताते हैं कि सिर्फ एक जुमला है. आधुनिकीकरण कार्यक्रम के तहत शिक्षकों को सात साल से वेतन नहीं दिया गया है. उनमें से ज़्यादातर ने नौकरी छोड़ दी है और इसका असर मदरसों में आधुनिक शिक्षा पर पड़ा है. सरकारी मदरसों में भवन नहीं है, पर्याप्त शिक्षक नहीं है. कई जगह कंप्यूटर दिया गया, लेकिन वो सालों से पैक पड़ा है. उसे पढ़ाने वाला कंप्यूटर टीचर ही बहाल नहीं हुआ. मदरसे से जुड़े लोग मानते हैं कि सरकार सिर्फ मदरसों के सिलेबस को बदलना चाहती है. उसे उसके मॉडर्नाइजेशन से कोई लेना- देना नहीं है.
मदरसों के मॉडर्नाइजेशन से क्यों डरते हैं मुसलमान ?
जब भी सरकार मदरसों के मॉडर्नाइजेशन और उसमे मॉडर्न विषय पढ़ाने की बात करती है, मुस्लिम संगठन और उलेमा इससे नाराज़ हो जाते हैं. AIMIM के सद्र और हैदराबाद से सांसद असदुद्दीन ओवैसी भी इस मामले में उलेमा की राय से इत्तेफाक रखते हैं. वो कहते हैं कि कोई मदरसा में पढ़ने जा रहा है, तो सोचकर जा रहा है कि उसे क्या पढ़ना है, फिर उसे आधुनिक शिक्षा सरकार क्यों देना चाहती है ? सरकार यही जिद और बड़ा दिल स्कूलों के लिए क्यों नहीं दिखाती है ? क्या संस्कृत के स्कूलों में फिजिक्स पढ़ाया जाएगा. जिसे आधुनिक शिक्षा चाहिए वो स्कूल जाता है और फिर मदरसे में मुसलमानों के कितने बच्चे पढ़ते हैं. सरकार उन बच्चों के लिए स्कूल में रियायत क्यों नहीं देती है ? मुसलमान मानते हैं कि मदरसे दीन (इस्लाम) के किले हैं, सरकार उसमें मॉडर्न एजुकेशन लाकर उसमें घुसपैठ करना चाहती है. सरकार की मंशा खतरनाक है!
क्या मदरसों में सुधार की कोई गुंजाईश या ज़रूरत ही नहीं है ?
भारत के मदरसों में इस्लाम धर्म के साथ उर्दू, अरबी, फारसी, हिंदी, इंग्लिश गणित जैसे विषयों की भी पढाई होती है. लेकिन धार्मिक विषयों को छोड़कर इनके सिलेबस में सालों से कोई परिवर्तन नहीं हुआ है. धर्म के मामले में भी ये सालों पुरानी घिसी- पिटी किताबें पढ़ाते हैं. पढ़ाने की शैली में कोई नवाचार नहीं होता हैं. अधिकांश मदरसों में 5 से 10 साल पढाई करने के बाद भी ज़्यादातर छात्र सिर्फ कुरआन याद करने, उर्दू पढ़ने- लिखने- समझने, अरबी सिर्फ पढ़ने में सक्षम हो पाते हैं. इतने दिनों की पढाई के बाद भी वो इस्लाम की सिर्फ मौलिक बातें जान पाते हैं. हालांकि, मदरसों में सालों पढ़ाई करने के बाद वहां के अधिकाँश छात्र समाज और देश का एक बेहतर इंसान और नागरिक बनने में ज़रूर कामयाब हो जाता है. इस तरह से मदरसे समाज के लिए कोई खतरा बनने के बजाए एक सेफ्टी वाल्व की तरह काम करते हैं.
यहाँ ट्रेंड टीचर के पढ़ाने का भी कोई कांसेप्ट नहीं है. शिक्षकों की भर्ती का भी कोई पैमाना नहीं है. सरकारी मदरसों में अब ट्रेंड मास्टरों की नियुक्ति होना शुरू हुआ है. मदरसा शिक्षकों के वेतन भी स्कूलों के शिक्षक से कम होते हैं. उन्हें अन्य सुविधाएं भी नहीं मिलती है. गैर- मान्यता प्राप्त और अनमैप्ड मदरसों के शिक्षकों का और बुरा हाल है. वेतन का कोई मानक नहीं है. दिल्ली के बटला हाउस में मदरसा सल्फिया में काम करने वाले बिहार के पूर्णिया के मौलवी तमजीद अहमद बताते हैं, उनकी 15 हजार मासिक सैलरी के अलावा मदरसे में ही रहने और खाने की सुविधा मिलती है. लेकिन उन्हें खुद के वेतन के पैसे भी चंदा मांगकर जुटाना होता है.
मदरसा बोर्ड ही ग्रेजुएशन और पोस्ट ग्रेजुएशन तक की डिग्री दे देता है, जब की इस उच्च शिक्षा की पढाई के लिए मदरसों में न तो योग्य शिक्षक हैं, न ही अन्य आधारभूत सुविधाएं होती है. सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार के फैसले में इसपर रोक लगा दिया है. ये मुद्दा काफी पहले से उठ रहा है कि मदरसों के आलिम और फाजिल की डिग्री किसी यूनिवर्सिटी द्वारा जारी होना चाहिए और उसके मानकों के मुताबिक ही पढाई कराई जाए.
मदरसा एक कारोबार भी बन गया है. कोई भी चालु किस्म का आदमी बिना किसी नियम कानून और पंजीकरण के मदरसा खोल लेता है. उत्तर प्रदेश और बिहार के कुछ बच्चे लेकर उसे आवासीय मदरसे के रूप दे देता है और फिर इसके नाम पर वो चंदों की उगाही करने लगता है. लेकिन इसके नियमन के लिए कोई संगठन या संस्था नहीं है. ऐसे भी सैकड़ों मदरसे हैं, जो सिर्फ चंदे की रशीदों पर चलते हैं, हकीकत में उनका कोई वजूद नहीं होता है. बरेलवी और देवबंदी मस्लाकों के मदरसे अलग होते हैं, उनके बीच आपस में प्रतिद्विन्दता और टकराव भी होते हैं.
पढ़ाई पूरी कर क्या करते हैं मदरसे के छात्र; क्या है रोजगार का साधन ?
अच्छे मदरसे में पढ़ाई करने वाले छात्र दुनिया के वो सभी काम या करियर अपना सकते हैं, और करते भी हैं, जो एक स्कूल का पासआउट छात्र कर सकता है. वो मेडिकल, इंजीनियरिंग, उच्च शिक्षा, वकालत, और लोकसेवा में भी चले जाते हैं. लेकिन इसके लिए मदरसे में बुनियादी शिक्षा लेने के बाद आगे उन्हें यूनिवर्सिटी में मुख्यधारा की पढ़ाई में शामिल होना पड़ता है. लेकिन अधिकांश मदरसों की पढाई के स्टैण्डर्ड निम्न होता है. वहां 5 से 10 साल तक पढाई करने के बाद भी छात्र सिर्फ कुरआन पढ़ाने, नमाज़ पढाने, फातेहा पढने, निकाह और जनाज़े की नमाज़ पढ़ाने के आगे की सलाहियत पैदा नहीं कर पाते हैं. पास करने के बाद अधिकांश छात्र मस्जिदों में इमाम (नमाज़ पढ़ाने का काम ), किसी मदरसे में टीचर बनने या फिर निजी तौर पर उर्दू और कुरान का होम टयूशन देने का काम करने लगते हैं. हालांकि, हर साल हज़ारों की तादाद में मदरसों से पास होने वाले छात्रों के कारण अब इमाम और मदरसे का टीचर बनने में भी भारी कम्पटीशन है. यहाँ इतने कम पैसे मिलते हैं, जिससे जीवन चलाना बेहद कठिन होता है.
कुछ छात्र फैक्ट्रियों में अकुशल मजदूर, चालक का काम, दुकान या फिर कोई अन्य स्वरोजगार करने लगते हैं. कुल मिलाकर मदरसों के छात्रों के सामने भी रोजगार का भीषण संकट होता है, अगर इन्हें किसी तरह का कुशलता आधारित प्रशिक्षण दिया जाए, तो निश्चित तौर पर उनके रोजगार की दिशा में ये बेहतर कदम हो सकता है.
मदरसों का ऐतिहासिक महत्व
भारत के मुगलकालीन पीरियड में शिक्षा का एकमात्र केंद्र मदरसा होता था. लोग मौलवी से उर्दू, अरबी और फारसी का इल्म लेते हैं. समाज का हर तबका यहाँ तक कि ब्राह्मण भी अपने धर्म के आलावा उर्दू फ़ारसी का ज्ञान मौलवी साहब से हासिल करते थे. स्वतंत्रता आन्दोलन के नेता राजाराम मोहन रॉय की शुआती पढाई पटना के एक मदसे में हुई थी. बताया जाता है की यहीं से इस्लामिक मान्यताओं में विधवा विवाह और औरतों को बराबरी के हक़ के विचार से प्रभावित होकर उन्होंने सटी प्रथा के खिलाफ और विधवा विवाह के समर्थन में आन्दोलन शुरू किया था. आज़ादी की लड़ाई में भी मदरसों का बड़ा योगदान रहा है. जब उलेमा ने अंग्रेजों के खिलाफ जिहाद करने का फतवा जारी किया तो मदरसों के छात्र इस आन्दोलन में कूद पड़े. 1.5 लाख से ज्यादा मदरसों के छात्र और मौलवी आज़ादी की लड़ाई में मारे गए. आज़ाद भारत में भी देश के नामी मदरसों से पास आउट कई छात्र उच्च पदों पर अपनी सेवाएं दी है.
मदरसा एक्ट को संवैधानिक करार देना पर किसने क्या कहा ?
ऑल इंडिया शिया पर्सनल लॉ बोर्ड के महासचिव मौलाना यासूब अब्बास ने कहा, "मैं सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत करता हूं, जिस तरीके से उन्होंने इसे संवैधानिक करार दिया है, वह एक स्वागत योग्य कदम है. देश की आजादी में मदरसों का अहम योगदान रहा है. मदरसों ने देश को आईएएस, पीसीएस और आईपीएस, मिनिस्टर और गवर्नर दिए हैं. लिहाजा, हमको 'जियो और जीने दो वाली' पॉलिसी को अपनाना चाहिए."
जमीयत उलमा—ए—हिंद के कानूनी सलाहकार मौलाना काब रशीदी ने कहा, "उच्चतम न्यायालय ने संविधान की आत्मा की हिफाजत करते हुए मदरसा शिक्षा बोर्ड अधिनियम को बरकरार रखा है. यह एक बहुत बड़ा संदेश है. अगर सरकार यह चाहती है कि मदरसों में आधुनिक शिक्षा को लेकर कुछ और बेहतर हो तो उस पर साथ बैठ कर बात की जा सकती है लेकिन अगर वह कोई असंवैधानिक बात थोपती है तो उसके खिलाफ कानूनी लड़ाई लड़ी जाएगी.''
ऑल इंडिया मुस्लिम जमात के राष्ट्रीय अध्यक्ष मौलाना शहाबुद्दीन बरेलवी ने कहा, "मुसलमान को इस फैसले की उम्मीद थी क्योंकि किसी शैक्षिक संस्थान से जुड़े हजारों लाखों बच्चों के भविष्य कोर्ट खिलवाड़ नहीं कर सकती थी ऐसे में उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने जो आज फैसला दिया है वह सिर्फ मुसलमान के लिए नहीं बल्कि देशवासियों के लिए भी एक खुशी की खबर है. "
केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने कहा, "सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सबको स्वागत करना चाहिए.
निरंजनी पीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी कैलाशानंद गिरी जी महाराज ने कहा, "सुप्रीम कोर्ट देश का सबसे बड़ा कोर्ट है और उन्होंने कहा कि जो मदरसे इस्लाम धर्म को बढ़ावा देने के लिए है. जो वैध मदरसे उन पर किसी भी तरह नुकसान नहीं आने वाला है, लेकिन जो अवैध मदरसे हैं और जिनमे न्यायचित कार्य नहीं हो रहा है उन मदरसों को खतरा है.