Muharram: मुसलमान मुहर्रम में क्यों मानते हैं ग़म; आखिर क्या हुआ था कर्बला के मैदान में ?
Muharram 2024: मदीना से कुछ दूरी पर मुआविया नाम का एक शासक रहता था, जिनके इंतकाल के बाद उनका बेटा यजीद को शाही गद्दी पर बिठाया गया, गद्दी पर बैठते ही यजीद अपनी ताकत का गलत इस्तेमाल करने लगा. धीरे-धीरे यजीद से मदीने के लोग काफी खौफ खाने लगे. यजीद हजरत मोहम्मद की वफात के बाद इस्लाम को अपने हिसाब से चलाने की कोशिश करने लगा.
Story of Muharram: इस्लामिक कैलेंडर के मुताबिक मुसलमानों का नया साल मुहर्रम के महीने से शुरू होता है. वैसे तो ये महीना दुनिया के हर एक मुसलमान के लिए खास है, लेकिन शिया समुदाय के लिए ये महीना काफी अहमियत रखता है. मुहर्रम का जिक्र आते ही लोगों के दिमाग में सबसे पहले कर्बला का ख्याल आता है.तारीख के मुताबिक 1400 साल पहले कर्बला की जंग हुई थी. ये जंग जुल्म के खिलाफ और इंसाफ के लिए हुई थी. इस जंग में हजरत मोहम्मद साहब के नवासे इमाम हुसैन और उनके 72 साथी शहीद हो गए थे.
यजीद अपने हिसाब से इस्लाम को चलाना चाहता था:
ऐसा कहा जाता है कि मदीना से कुछ दूरी पर मुआविया नाम का एक शासक रहता था, जिनके इंतकाल के बाद उनका बेटा यजीद को शाही गद्दी पर बिठाया गया, गद्दी पर बैठते ही यजीद अपनी ताकत का गलत इस्तेमाल करने लगा. धीरे-धीरे यजीद से मदीने के लोग काफी खौफ खाने लगे. यजीद हजरत मोहम्मद की वफात के बाद इस्लाम को अपने हिसाब से चलाने की कोशिश करने लगा, और हजरत मोहम्मद के नवासे इमाम हुसैन को उनके हिसाब से चलने के लिए जोर डालने लगा. यजीद को ऐसा गुमान हो गया था कि इमाम हुसैन उनको अपना खलीफा मान लेंगे, लेकिन इमाम हुसैन ने ऐसा करने से साफ मना कर दिया.
इमाम हुसैन ने यजीद को खलीफा मानने से इंकार क्यों किया?
ये बात यजीद को बिल्कुल नागवार गुजरी और फिर यजीद इमाम हुसैन की कत्ल की साजिश करने लगा. वहीं हजरत मोहम्मद की वफात के बाद इमाम हुसैन ने मदीना छोड़ने का भी फैसला कर लिया था. मुहर्रम महीने की दूसरी तारीख को जब हजरत मोहम्मद के नवासे हजरत इमाम कर्बला पहुंचे, तो उनके साथ 72 लोगों का एक छोटा सा काफिला भी था. कर्बला पहुंचे ही यजीद के लोगों ने इमाम हुसैन को घेर लिया और फिर जबरदस्ती खुद को खलीफा मानने पर मजबूर करने लगे. लेकिन लाख परेशान करने के बाद भी इमाम हुसैन यजीद के सामने नहीं झुके और यजीद को खलीफा मानने से इंकार कर दिया.
कर्बाला में इमाम हुसैन ने कैसे काटे 10 दिन?
मुहर्रम की 7 तारीख को इमाम हुसैन जब कर्बाला पहुंचे तो उनके पास खाने-पीने की ज्यादातर चीजें खत्म हो चुकी थी. इसको देखते हुए यजीद ने इमाम हुसैन के साथियों का पानी भी बंद कर दिया. जिसके बाद लगातार 3 दिन इमाम हुसैन और उनके साथ भूखे-प्यासे कर्बाला में ही रहे, और सब्र से काम लेते रहे. इमाम हुसैन ने कई बार अपने साथियों से कहा कि वह लोग कर्बला से चले जाएं, लेकिन उनके साथी इमाम हुसैन को छोड़कर नहीं गए. और आखिरकार मुहर्रम की 10 तारीख को यजीद की फौज ने इमाम हुसैन और उनके साथियों पर हमला कर दिया. इस जंग में इमाम हुसैन और उनके साथ शहीद हो गए. इसमें इमाम हुसैन के 6 महीने के बेटे अली असगर, 18 साल के अली अकबर और 7 साल के उनके भतीजे कासिम भी शहीद हो गए... इसलिए मुसलमानों के लिए मुहर्रम की 10 तारीख सबसे अहम मानी जाती है, जिसे रोज-ए-आशुरा भी कहा जाता है. इस दिन को याद करके मुहर्रम की 10 तारीख को मुसलमान अलग-अलग तरीकों से गम जाहिर करते हैं.
क्यों शिया समुदाय के लोग 2 महीने तक रहते हैं शोक में?
मुहर्रम का चांद निकलते ही शिया समुदाय के लोग 2 महीने 8 दिन तक शोक मनाते हैं. इस दौरान वह किसी भी तरह के रंग-बिरंगे और चटकीले कपड़े नहीं पहनते हैं. वह लोग सिर्फ काले और नीले रंग के कपड़े पहनते हैं. ऐसा माना जाता है कि इन 2 महीनों तक शिया समुदाय के घरों में किसी तरह की कोई शादी या खुशियां नहीं मनाई जाती है. इस महीने शिया समुदाय के लोग किसी दूसरे की शादी में भी शरीक नहीं होते हैं. सुन्नी मुस्लिम भी इस महीने में नमाज और रोजे रखते हैं, इसके साथ ही लोग मजलिस और ताजियादारी भी करते हैं, हालांकि कुछ सुन्नी समुदाय में देवबंदी फिरके के लोग ताजियादारी और मातम के खिलाफ भी हैं.