Asrarul Haq Majaz Shayari: असरारुल हक़ मजाज़ उर्दू के तरक्की पसंद रोमानी शायर के तौर मशहूर थे. लखनऊ से जुड़े होने से वे 'मजाज़ लखनवी' के नाम से भी जाने जाते हैं. उन्होंने बहुत कम लिखा. लेकिन जितना भी लिखा वह बहुत मशहूर रहा. मजाज ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से पढ़ाई की. उन्होंने 1931 में यहीं पर एक मुशायरे में हिस्सा लिया. इसमें उन्हें इनाम मिला. उन्होंने कुछ दिन ऑल इंडिया रेडियो में काम किया.


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हुस्न को शर्मसार करना ही 
इश्क़ का इंतिक़ाम होता है 


ख़ूब पहचान लो असरार हूँ मैं 
जिंस-ए-उल्फ़त का तलबगार हूँ मैं 


कुछ तुम्हारी निगाह काफ़िर थी 
कुछ मुझे भी ख़राब होना था 


आँख से आँख जब नहीं मिलती 
दिल से दिल हम-कलाम होता है 


डुबो दी थी जहाँ तूफ़ाँ ने कश्ती 
वहाँ सब थे ख़ुदा क्या ना-ख़ुदा क्या 


हिन्दू चला गया न मुसलमाँ चला गया 
इंसाँ की जुस्तुजू में इक इंसाँ चला गया 


मुझ को ये आरज़ू वो उठाएँ नक़ाब ख़ुद 
उन को ये इंतिज़ार तक़ाज़ा करे कोई 


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तुम्हीं तो हो जिसे कहती है नाख़ुदा दुनिया 
बचा सको तो बचा लो कि डूबता हूँ मैं 


क्या क्या हुआ है हम से जुनूँ में न पूछिए 
उलझे कभी ज़मीं से कभी आसमाँ से हम 


दफ़्न कर सकता हूँ सीने में तुम्हारे राज़ को 
और तुम चाहो तो अफ़्साना बना सकता हूँ मैं 


वक़्त की सई-ए-मुसलसल कारगर होती गई 
ज़िंदगी लहज़ा-ब-लहज़ा मुख़्तसर होती गई 


कब किया था इस दिल पर हुस्न ने करम इतना 
मेहरबाँ और इस दर्जा कब था आसमाँ अपना 


तिरे माथे पे ये आँचल बहुत ही ख़ूब है लेकिन 
तू इस आँचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था 


ये आना कोई आना है कि बस रस्मन चले आए 
ये मिलना ख़ाक मिलना है कि दिल से दिल नहीं मिलता 


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