Birth Anniversary of Nirmal Verma : नई कहानी आंदोलन के एक मजबूत स्तंभ निर्मल वर्मा (Nirmal Verma ) एक सधे साहित्यकार होने के साथ-साथ एक  मूर्धन्य पत्रकार, एक कुशल अनुवादक, एक सफल अध्यापक और एक उच्च कोटि के दार्शनिक भी थे. निर्मल वर्मा (Nirmal Verma) ने हिंदी साहित्य की पारम्परिक शैली से अलग यथार्थवाद के साथ-साथ अस्तित्ववाद को केंद्र में रखकर अपनी तमाम रचनाएं रची. इनका साहित्य हमें स्वयं से साक्षात्कार कराता हैं.  इनकी लेखनी प्रचलित धारणाओं और मान्यताओं से इतर आधुनिक परिवेश में जी रहे इंसान की बेचैनी को नुमायां करती हैं. खामोशी और एकाकीपन निर्मल वर्मा (Nirmal Verma) के साहित्य की विशेषता हैं. उन्होंने अपनी कहानियों  के किरदार के ज़रिये भीड़ में जी रहे इंसान के अकेलेपन में उपजे अंतर्मन का बहुत खूबसूरती से मनोविश्लेषण किया हैं. साथ ही रोमांस को विषय बनाकर इंसान के एकाकीपन को भी बड़े ही काव्यात्मक ढंग से पेश किया है. उन्होंने अपनी स्मृतियों को आधार बनाते बीते हुए दिन, गुजरे हुए लोग, अपने द्वारा की हुई यात्राओं पर भरपूर लिखा है. अपने लेखन में पहाड़, किताब और बचपन का जिक्र भी जगह-जगह किया है.  वह छोटे से छोटे ब्यौरों को भी बड़े कलात्मक ढंग से पेश करते थे. 


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साहित्य रचना
'रात का रिपोर्टर', 'एक चिथडा सुख', 'लाल टीन की छत' , 'वे दिन' उनके चर्चित उपन्यास हैं. अंतिम उपन्यास अंतिम अरण्य के अलावा सौ से ज्यादा कहानियां और कई कहानी संग्रह भी प्रकाशित हुए. इसके अलावा 'धुंध से उठती धुन' और 'चीडों पर चांदनी' जैसा यात्रा वृतांत भी लिखा, जिसने यात्रा-साहित्य को एक नया मायने दिया. हिंदी के महान आलोचक नामवर सिंह ने इनकी कहानी 'परिंदे' को हिंदी साहित्य का प्रस्थान बिंदु माना हैं. परिंदे में लतिका अपने बीते दिनों की दुखद स्मृतियों को भूलना चाहती हैं, लेकिन इस भूलने की प्रक्रिया में वह उन्हीं चीजों को याद करती है जिसे वह भूलना चाहती हैं. लतिका की दोहरी मनोस्थिति के माध्यम से उन्होंने मानव मन का बखूबी मनोविश्लेषण किया है. उन्होंने पूरब और पश्चिम की  संस्कृति के अंतर्द्वंद पर अपने साहित्य में गहन विचार भी किया है. इनकी कहानियां जीवन की अनिश्चिता और निरर्थकता के साथ-साथ जीवन के यथार्थ बोध का भी परिचय कराती है. 


जीवन परिचय
निर्मल वर्मा का जन्म 3 अप्रैल 1929 को शिमला में हुआ था. उनके पिता ब्रिटिश सरकार में डिफेंस के बड़े अधिकारी थे. दिल्ली के सेंट स्टीफन कॉलेज से इतिहास में एम.ए करने के बाद,1959 में वह अध्यापन के लिए चेकोस्लोवाकिया चले गए. वहां प्राग विश्वविद्यालय के प्राच्य विद्या संस्थान में सात साल तक रहे. 1959 से 1972 के बीच में उन्होंने यूरोप में प्रवास किया. वह प्राग और लंदन में रहते हुए भारतीय अखबारों के लिए सांस्कृतिक-राजनीतिक विषयों पर लगातार लिखते रहे. उन्होंने जोसेफ स्कोवस्करकी,जीरी फ्राइड और मिलान कुंदेरा जैसे कई विदेशी लेखकों की रचनाओं का हिंदी अनुवाद भी किया.
 25 अक्टूबर 2005 को निर्मल वर्मा का निधन हो गया.


पुरस्कार
साहित्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए उन्हें 1985 में साहित्य अकादमी अवार्ड, 1999 में साहित्य में देश का सर्वोच्च सम्मान ज्ञानपीठ और 2002 में साहित्य और शिक्षा के क्षेत्र में उनके विशेष कार्य के लिए पद्म भूषण से सम्मानित किया गया. इसके अलावा मूर्ति देवी पुरस्कार से भी इनको सम्मानित किया गया. इतना ही नहीं 2005 में उन्हें भारत सरकार द्वारा नोबेल पुरस्कार के लिए भी नामित किया गया था. उनकी कहानी 'माया दर्पण' पर 1973 में कुमार साहनी ने फिल्म बनाई, जिसे सर्वश्रेष्ठ हिंदी फिल्म का पुरस्कार भी मिला. 


आरोप एवं विवाद
निर्मल वर्मा पर दक्षिणपंथी होने का भी आरोप लगता रहा है. 1999 में ज्ञानपीठ पुरस्कार सम्मान समारोह में अपने भाषण के दौरान, उन्होंने मशहूर अमेरिकी लेखक- हेनरी जेम्स के शब्दों को दोहराते हुए, लेखनी को पागलपन करार दिया था. कई आलोचकों के अनुसार - निर्मल वर्मा की कहानियां अक्सर अधूरी लगती हैं , जिसके अंत का अनुमान वह पाठकों पर छोड़ दिया करते थे.


:- ए. निशांत 


लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.


 


 


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