डॉ. मोहम्मद शमीम खान 


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'मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती’, 'यारी है ईमान मेरा यार मेरी ज़िन्दगी’, ये गीत भला किसने नहीं सुना होगा और उसके जुबान पर नहीं चढ़े होंगे. लेकिन क्या आप इस गीत के लेखक को जानते हैं? भारत के नागरिकों में देशभक्ति का भाव भरने वाले और दोस्ती की अहमियत बताने वाले इन ख़ूबसूरत गीतों को लिखने वाले गीतकार का नाम है- गुलशन बावरा.  
गुलशन बावरा का असली नाम गुलशन मेहता था, और इनकी पैदाइश 12 अप्रैल, 1937 को अविभाजित भारत के लाहौर के पास शेखुपुरा (अब पाकिस्तान) में हुई थी. उनकी माँ विद्यावती एक धार्मिक प्रवृति की महिला थीं जिनकी संगीत में काफी दिलचस्पी थी. नन्हा गुलशन अपनी माँ के साथ धार्मिक कार्यक्रमों में जाया करता था, जहाँ वह भजन कीर्तन में हिस्सा लेता था. शायद यहीं से उनके अंदर संगीत को लेकर एक खास एहसास और दीवानगी पैदा हुई. जब वह 10 साल के थे तो उन्होंने और उनके परिवार ने मुल्क के बंटवारे का दंश झेला. 


गुलशन ने अपनी आँखों के सामने अपने माता-पिता और चाचा का दंगाइयों के हाथों क़त्ल होते हुए देखा था. किसी तरह से उन्होंने और उनके भाई ने अपनी जान बचाई. देश के विभाजन के बाद वह अपनी बहन के पास जयपुर आ गए. जब दिल्ली में इनके भाई की नौकरी लगी तो ये भाई के पास रहने आ गए और यहाँ उन्होंने दिल्ली यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी की. अपनी पढाई के दौरान वह शायरी करने लगे थे. गुलशन कुमार बावरा फिल्मों में काम करना चाहते थे, इसी वजह से उन्होंने 1955 में मुंबई में रेलवे क्लर्क के रूप में काम करना स्वीकार कर लिया.


मुंबई में वह क्लर्क की नौकरी कर तो रहे थे, लेकिन उनके अंदर का कलाकार उन्हें हमेशा शायरी और कविता लिखने को प्रेरित करता रहता था. नौकरी करने के साथ-साथ वह फिल्म इंडस्ट्री में भी काम ढूंढ़ते रहते थे. इन्ही संघर्ष के दिनों में इनकी मुलाक़ात मशहूर संगीतकार कल्याण वीर जी शाह से हुई. कल्याणजी को जब उन्होंने अपनी कविता सुनाई तो उन्हें बेहद पसंद आई और कल्याण जी ने गुलशन बावरा को फ़िल्म 'चन्द्रसेना’ में गीत लिखने का मौक़ा दिया. उनका पहला हिंदी फ़िल्म गीत 'मैं क्या जानू काहे लागे ये सावन मतवाला रे’ था, और इस गीत को आवाज़ दी थी लता मंगेशकर ने. हालांकि, इस गीत को कुछ ख़ास सफलता नहीं मिली.


गुलशन बावरा को अगला मौक़ा भी कल्याणजी आनंदजी के संगीत निर्देशन में फ़िल्म 'सट्टा बाज़ार’ में मिला. इस फ़िल्म के लिए उन्होंने 3 गीत लिखे थे. इस फ़िल्म के लिए पहले हसरत जयपुरी, इंदीवर और शैलेन्द्र से बात हो गई थी, लेकिन जब फ़िल्म वितरक और प्रोड्यूसर शांतिभाई पटेल ने गुलशन बावरा के लिखे गीत सुने तो बहुत ख़ुश हुए और उन्होंने गीतों को ज्यों के त्यों ही रखने के निर्देश दिए. 


उनका नाम गुलशन बावरा कैसे पड़ा इसके पीछे भी एक दिलचस्प कहानी है. दरअसल, गुलशन जब फ़िल्म वितरक और प्रोड्यूसर शांतिभाई से मिले तो काफी रंग बिरंगे कपड़े पहने हुए थे. जिसे देख कर शांतिभाई ने उन्हें कहा कि यह तो बिलकुल बावरा सा है यानी कि पगला सा! बस तभी से वह गुलशन बावरा हो गए. गुलशन बावरा ने कल्याणजी आनंदजी से संगीत निर्देशन में क़रीब 69 गीत लिखे, जबकि आर. डी. बर्मन के लिए क़रीब 150 गीत लिखे थे. उन्होंने फ़िल्म 'हाथ की सफाई’ (1974), 'त्रिमूर्ति’ (1974), 'रफू चक्कर’ (1975), 'कस्मे वादे’ (1978), 'सनम तेरी क़सम’ (1982), 'अगर तुम ना होते’ (1982), 'सत्ते पे सत्ता’ (1982), 'यह वादा रहा’ (1982), और 'पुकार’ (1983) जैसी फिल्मों के लिए गीत लिखे. 


गुलशन बावरा बहुमुखी प्रतिभा के धनी शख्स थे. उन्होंने गीत लिखने के साथ-साथ फिल्मों में एक्टिंग भी की थी. इनमें फ़िल्म 'उपकार’, 'विश्वास’, 'ज़ंजीर’, 'पवित्र पापी’, 'अगर तुम ना होते’, 'बेईमान’, 'बीवी हो तो ऐसी’ प्रमुख फिल्में हैं. फिल्मों में एक्टिंग करने के साथ-साथ उन्होंने फ़िल्म 'सत्ते पे सत्ता’ के लिए पार्श्वगायन भी किया. वह गीत था 'प्यार हमें किस मोड़ पे ले आया,’ जिसमें उन्होंने किशोर कुमार, भूपिंदर सिंह, राहुल देव बर्मन, और सपन चक्रबोर्ती के साथ गाना गाया था. 


गुलशन बावरा को उनके 49 साल के फ़िल्मी करियर में बतौर सर्वश्रेष्ठ गीतकार के तौर पर फ़िल्म 'उपकार’ (1967) में 'मेरे देश की धरती’ और फ़िल्म 'ज़ंजीर’ (1973) में 'यारी है ईमान मेरा यार मेरी ज़िन्दग़ी’ गीत लिखने के लिए फ़िल्म फेयर पुरुस्कार मिला था.   
उन्होंने 7 साल तक बोर्ड ऑफ़ इंडियन परफार्मिंग राइट सोसाइटी के डायरेक्टर के पद पर भी काम किया. अपने गीत लेखन, अभिनय कौशल और आवाज़ से दर्शकों को मदहोश कर देने वाले गुलशन बावरा ने 7 अगस्त 2009 को आखि़री सांस ली. उनकी इच्छा के अनुसार उनकी बॉडी को जे. जे. अस्पताल में शोध करने के लिए दान कर दिया गया था. उनकी आखि़री हिट फ़िल्म 'हक़ीक़त’ (1995) थी और आखि़री फ़िल्म 'ज़ुल्मी’ (1999) थी. उनके लिखे हुए गीत आज भी श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देते हैं. 

डॉ. मोहम्मद शमीम खान 
लेखक स्वतंत्र पत्रकार, रेडियो जॉकी और हिंदी फिल्मों के अध्येयता हैं. 


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