क्सर हम जॉर्ज फर्नांडीस की हथकड़ी पहने एक तस्वीर देखते हैं. यह कोई मामूली तस्वीर नहीं हैं, बल्कि यह तस्वीर दुनिया भर में राज सत्ता के प्रतिरोध की प्रतीकात्मक तस्वीरों में से एक है. यह तस्वीर जॉर्ज की पूरी जिंदगी के संघर्षों और उनके विद्रोही व्यक्तित्व की तर्जुमानी करता है. जॉर्ज का पूरा जीवन राजनीति संघर्षों की एक दास्तां है. क्रांतिकारी जॉर्ज फर्नांडिस राम मनोहर लोहिया ,जयप्रकाश नारायण और नरेंद्र देव जैसे खांटी समाजवादी सियासतदनों की अगली कड़ी के लीडर थे. सियासत में कभी समझौता न करने वाले जॉर्ज ने एक खास शैली में अपनी राजनीति पारी पूरी की. ताउम्र हाशिए पर पड़े लोगों की आवाज को बुलंद करने वाले जॉर्ज आजीवन समाजवादी विचारधारा के प्रबल हिमायती बने रहे. आपातकाल के दौरान राजद्रोह का आरोप झेल रहे जॉर्ज की लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता हैं कि, ब्रिटिश प्रधानमंत्री जेम्स कैलाघन, जर्मन चांसलर विली ब्रांड और ऑस्ट्रिया के चांसलर ब्रूनो क्राएस्की ने तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से इनके मामले में हस्तक्षेप किया था.


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व्यक्तिगत जीवन
जॉर्ज फर्नांडिस का जन्म 3 जून 1930, को कर्नाटक के मंगलौर के एक कैथोलिक परिवार में हुआ था. अपने भाई- बहनों में सबसे बड़े जॉर्ज की प्राथमिक शिक्षा मंगलौर में ही में पूरी हुई थी. सन 1971 में इनका विवाह पूर्व केंद्रीय मंत्री हुमायूं कबीर की बेटी लैला कबीर से हुआ था. 29 जनवरी 2019 को 88 वर्ष की आयु में दिल्ली में उनका निधन हो गया. जॉर्ज फर्नांडिस हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू, मराठी, कोंकणी, कन्नड़, तमिल और मलयाली भाषा के अच्छे जानकार थे. 


राजनीतिक जीवन
लगभग पांच दशक तक सक्रिय राजनीति में अपनी अहम भूमिका निभाने वाले जॉर्ज ने 9 बार लोकसभा और एक बार राज्यसभा का प्रतिनिधित्व किया. इन्होंने मजदूर नेता से अपनी राजनीतिक यात्रा शुरू कर, केंद्रीय मंत्री तक का सफल सफर तय किया. वह 1949 में मंगलौर छोड़ मुंबई काम की तलाश में आ गए और एक समाचार पत्र में प्रूफरीडर की नौकरी कर अपने करिअर की शुरूआत की.  1950 में वह राम मनोहर लोहिया के संपर्क में आए और सोशलिस्ट ट्रेड यूनियन के आंदोलन में शामिल होकर, धीरे-धीरे वह श्रमिकों की बुलंद आवाज बन गए. 1961 और 1968 में वह मुंबई सिवीक चुनाव जीतकर, मुंबई महानगरपालिका के सदस्य भी बने. 1967 के लोकसभा चुनाव में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी की टिकट पर, दक्षिण मुंबई की सीट से दिग्गज कांग्रेसी एसके पाटिल को हराया तो उनके राजनीतिक कद में खासा इजाफा हुआ. तब लोग उन्हें जॉर्ज द जाइंट किलर कहने लगे. जॉर्ज फर्नांडिस के नेतृत्व में 8 मई 1974 को हुए हड़ताल से मुंबई ही नहीं पूरा देश ही प्रभावित हो गया. इस हड़ताल में करीब 15 लाख लोगों ने हिस्सा लिया था. 


केंद्रीय मंत्रित्वकाल
आपातकाल के बाद बिहार के मुजफ्फरपुर की सीट से चुनाव  जीतकर व जनता पार्टी की सरकार में वह केंद्रीय मंत्री बने. पहले संचार मंत्री, फिर उद्योग मंत्री बने. इस दौरान उन्होंने निवेश के नियमों के उल्लंघन के कारण अग्रणी अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनी आईबीएम और कोकोकोला को देश छोड़ने का आदेश दिया. उनके इस कदम ने उनको एक बार फिर से राजनीतिक सुर्खियों में ला दिया. जब वीपी सिंह की सरकार में वह रेलमंत्री बने तो, अपने कार्यकाल में मंगलौर और मुंबई को जोड़ने के लिए बने कोंकण रेलवे प्रोजेक्ट को एक महत्वाकांक्षी रेल परियोजना में तब्दील कर दिया. ठीक उसी प्रकार राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व बनी सरकार में बतौर रक्षामंत्री उनके हिस्से में पोखरण का सफल परमाणु परीक्षण और कारगिल युद्ध का विजय भी शामिल हैं. रक्षामंत्री के अपने कार्यकाल में 18 बार कश्मीर वह सियाचिन गए, जो अपने आप में एक रिकॉर्ड हैं.


विवाद और आरोप
जॉर्ज फर्नांडिस के हिस्से केवल उपलब्धियां ही नहीं है, बल्कि विवादों से भी इनका भरपूर नाता रहा है. आपातकाल के दौरान विदेशी संस्थाओं की मदद लेना और वर्तमान सरकार को अस्थिर करने का आरोप. बहुराष्ट्रीय कंपनियों को देश से बाहर करने का एकल फैसला, अपने मंत्रीत्व कार्यकाल में रक्षा सौदों में गड़बड़ियां, ताबूत घोटाला, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से दूरी, नीतीश कुमार के साथ तल्ख राजनीतिक रिश्ते और सबसे बढ़कर जया जेटली के साथ अनाम व्यक्तिगत रिश्ते. अंत समय में सार्वजनिक रुप से परिवारिक कलह. जॉर्ज चाह कर भी जीवन भर इन विवादों से अपना पीछा नहीं छुड़ा पाए. कोर्ट से क्लीन चिट मिलने के बाद भी ताबूत घोटाला और तहलका प्रकरण ने जॉर्ज के चरित्र को आमजनों के नजर में संदेहास्पद बना दिया. 
जॉर्ज का शुरुआती जीवन काफी चमकीला रहा हो, लेकिन अंत बड़ा ही धूमिल रहा. आरोप, बीमारी और परिवारिक कलहों और संपत्ति विवादों के बीच एक समाजवादी जननायक का दुखद अंत हो गया.  जॉर्ज जैसे विरले समाजवादी जननायक रोज-रोज नहीं पैदा होते हैं. 


लेखक 


ए.निशांत 


लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं, और यहां व्यक्त विचार उनके निजी विचार हैं. 


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