Gujarat Assembly Election: गुजरात विधानसभा चुनाव 2022 के नतीजे आ गए हैं. भारतीय जनता पार्टी ने जबरदस्त जीत हासिल कर इतिहास बना दिया है. गुरुवार को आए नतीजों में भाजपा ने 156, कांग्रेस 17, आम आदमी पार्टी ने 5 और अन्य ने 4 सीटें जीती हैं. 2017 के चुनावों में भारतीय जनता पार्टी ने 99 तो वहीं कांग्रेस ने 77 सीटें जीतकर दिखाया था कि वो मुकाबला कर रही है. लेकिन इस बार के चुनाव में कांग्रेस लगभग खत्म होती दिखाई दे रही है. इसके अलावा एक और चीज जो गुजरात विधानसभा में खत्म होती देख रही है वो है मुस्लिम विधायकों की तादाद.


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10 फीसद मुस्लिम आबादी का नेतृत्व खत्म:
जी हां गुजरात में मुस्लिम नेतृत्व लगभग खत्म हो गया है. 2017 के चुनावों में जहां 3 मुस्लिम विधायक थे वहीं इस बार के चुनाव में सिर्फ 1 मुस्लिम विधायक है. कांग्रेस ने इस बार के चुनावों में 6 मुस्लिम उम्मीदवारों के टिकट दिए थे. जिनमें से एक ने जीत दर्ज की है. राज्य की 10 फीसद मुस्लिम आबादी वाले समुदाय से विधानसभा में सिर्फ एक नेता का असेंबली तक जाना सियासी पार्टियों की सोच और नजरिये पर सवाल खड़े करता है. ऐसा लग रहा है कि सियासी पार्टियां मुस्लिमों को विधानसभा में बैठा नहीं देखना चाहती. अब तक यह आरोप भाजपा पर लगता आया है लेकिन अब कांग्रेस भी लगभग उसी राह पर चल रही है. 




1998 में भाजपा ने दिया था मुस्लिम को टिकट
भारतीय जनता पार्टी की बात करें तो उसने अपनी सदियों पुरानी रिवायत को कायम रखते हुए इस बार भी किसी मुस्लिम नेता को टिकट नहीं दिया. भारतीय जनता पार्टी ने साल 1998 के चुनाव में सिर्फ एक बार एक मुस्लिम नेता को टिकट दिया था. जिसे हार का सामना करना पड़ा था. उस वक्त मोदी और शाह गुजरात की सियासत में नए-नए थे. जब से मोदी और शाह का गुजरात की सियासत में दखल बढ़ा है तभी से राज्य की विधानसभा से मुसलमानों की गिनती घटनी शुरू हो गई. शायद इसी 'मुहिम' का नतीजा है कि 2022 की विधानसभा में सिर्फ एक मुस्लिम विधायक है और हो सकता है कि अगली विधानसभा में एक भी मुस्लिम असेंबली तक ना पहुंचे. 




कांग्रेस उठा रही है मजबूरी का फायदा
इस सब के पीछे कहीं ना कहीं पार्टियों की सोच है और उनका नजरिया है. क्योंकि भाजपा तो अपनी रिवायत पर कायम है और शायद रहेगी, लेकिन बड़ी बात यह है कि भाजपा की इस सोच का असर कांग्रेस पर भी पड़ रहा है. मुस्लिम परस्त सियासत करने का आरोप झेलने वाली कांग्रेस भी अब मुसलमानों की तरफ कुछ खास ध्यान नहीं दे रही है. इस टैग को अपने साथ लेकर सिर्फ मुसलमानों की मजबूरी का फायदा उठा रही है. दरअसल कांग्रेस को पता है कि राज्य के मुस्लिम भारतीय जनता पार्टी पर कम ही भरोसा जताते हैं और गुजरात में पिछली तीन सदियों से भाजपा के सामने कांग्रेस ही है. ऐसे में मुसलमानों की मजबूरी है कि वो कांग्रेस को ही वोट देगा, भले ही कांग्रेस किसी भी जाति-धर्म के उम्मीदवार को मैदान में उतारे. 




AAP को हो गया था ओवर कॉन्फिडेंस!
हालांकि इस बार राज्य के मुस्लिम उम्मीदवारों के सामने 2 और भी ऑप्शन थे. जिन्होंने भाजपा की राह को और आसान बनाया. चुनाव के ऐलान से पहले कुछ मुस्लिम बहुल्य इलाकों में देखा गया था कि मुसलमानों का झुकाव आम आदमी पार्टी की तरफ है. शायद आम आदमी पार्टी मुसलमानों की तरफ से पुर यकीन हो गई थी कि इस बार मुस्लिम वोट उसी को मिलने वाला है. इसलिए उनपर मेहनत ना करके दूसरी तरफ मेहनत की जाए. यही वजह है कि उसने बीच में प्रचार के दौरान हिंदू कार्ड खेलना शुरू कर दिया था. आम आदमी पार्टी के नेता अपनी पार्टी को भाजपा से भी ज्यादा हिंदुत्ववादी पार्टी साबित करने में जुट गए, जिससे मुसलमान उनसे बिदक गया.




ओवैसी भी उम्मीदों पर नहीं खरे नहीं उतरे:
कुछ मुस्लिम बहुल्य सीटों के वोटर्स के पास एक और ऑप्शन था, वो था असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी AIMIM. ओवैसी की पार्टी ने 13 सीटों पर उम्मीदवार उतारे और वहां पर कांग्रेस के खाते के कुछ मुस्लिम वोट हासिल कर भाजपा को फायदा ही पहुंचाया है. AIMIM की सियासत करने के तरीके से ना सिर्फ गुजरात के मुसलमान बल्कि कई रियासतों के मुसलमान को संदेह है. यह संदेह तब यकीन में बदला हुआ नजर आने लगा था जब उनकी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष साबिर काबुलीवाला ने भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष सीआर पाटिल से मुलाकात की थी. इस मुलाकात के बाद कुछ आरोप लगे. जिसके बाद AIMIM के प्रदेश उपाध्यक्ष शमशाद पठान समेत कई लोगों ने पार्टी से इस्तीफा दे दिया. दरअसल पार्टी पर सौदेबाजी का आरोप लग गया था. 




विस्तार की राजनीति से संविधान की हार:
आखिर में गुजरात के मुसलमान के पास कोई चारा ही नहीं बचता. उसे समझ ही नहीं आता कि आखिर वो किस पार्टी को वोट करे. भारतीय जनता पार्टी अपनी इस मुहिम में कामयाब होती नज़र आ रही है और देश के दूसरे राज्यों में भी इसपर तेजी से अमल करने में लगी हुई है. देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस ने हाथ खड़े किए हुए हैं. अगर भारतीय जनता पार्टी अपनी मुहिम का देशभर में विस्तार करने में कामयाब होती है तो विस्तार की राजनीति कहलाएगी और विस्तार की सियासत में ना सिर्फ पार्टी की बल्कि बुनियादी उसूलों की हार होती है. 


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