नई दिल्लीः देश के विभिन्न टेलीविजन चैनलों पर नफरत फैलाने वाले भाषणों को लेकर नाराजगी जताते हुए सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को जानना चाहा है कि क्या सरकार ‘मूक दर्शक’ है ? क्या केंद्र का इरादा विधि आयोग की सिफारिशों के मुताबिक, कानून बनाने का है या नहीं? शीर्ष अदालत ने कहा है कि विजुअल मीडिया का ‘विनाशकारी’ असर समाज पर पड़ रहा है. 

COMMERCIAL BREAK
SCROLL TO CONTINUE READING

सरकार मूक दर्शक क्यों बनी बैठी है?
टीवी पर होने वाली बहसों के दौरान एंकर की भूमिका का जिक्र करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि यह एंकर की जिम्मेदारी है कि वह किसी मुद्दे पर चर्चा के दौरान नफरती भाषण पर रोक लगाए. न्यायमूर्ति के. एम. जोसेफ और न्यायमूर्ति हृषिकेश रॉय की बेंच ने कहा कि नफरत फैलाने वाले भाषणों से निपटने के लिए संस्थागत प्रणाली विकसित करने की जरूरत है. न्यायालय ने इस मामले में सरकार की तरफ से उठाए गए कदमों पर नाराजगी जताई और मौखिक टिप्पणी करते हुए पूछा है कि आखिर सरकार मूक दर्शक क्यों बनी बैठी है?


अखबारों को आजकल कोई नहीं पढ़ रहा है 
इस बीच, सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय प्रेस परिषद और नेशनल एसोसिएशन ऑफ ब्रॉडकास्टर्स (एनबीए) को अभद्र भाषा और अफवाह फैलाने वाली याचिकाओं में एक पार्टी के तौर पर शामिल करने से इनकार कर दिया है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ‘‘हमने टीवी समाचार चैनल का संदर्भ दिया है, क्योंकि अभद्र भाषा का इस्तेमाल दृश्य माध्यम के जरिए होता है. अगर कोई अखबारों में कुछ लिखता है, तो कोई भी उसे आजकल नहीं पढ़ता है. किसी के पास अखबार पढ़ने का वक्त नहीं है.’’ 

23 नवंबर को होगी अगली सुनवाई 
एक याचिकाकर्ता वकील अश्विनी कुमार उपाध्याय ने इस मामले में भारतीय प्रेस परिषद और नेशनल एसोसिएशन ऑफ ब्रॉडकास्टर्स को पक्षकार बनाने की मांग की थी. सुप्रीम कोर्ट ने अभद्र भाषा पर रोक लगाने के लिए एक नियामक तंत्र की जरूरत पर जोर दिया है. इसने वरिष्ठ अधिवक्ता संजय हेगड़े को न्याय मित्र नियुक्त किया और उन्हें याचिकाओं पर राज्य सरकारों की प्रतिक्रियाओं का आकलन करने को कहा है. कोर्ट ने इस मामलों की सुनवाई के लिए 23 नवंबर की तारीख तय की है.


ऐसी ही दिलचस्प खबरों के लिए विजिट करें zeesalaam.in