Maintenance Allowance for divorced Muslim woman​:  सुप्रीम कोर्ट ने एक मुस्लिम पति के एक याचिका को ख़ारिज करते हुए ये हुक्म दिया है कि एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला अपने पूर्व पति से गुज़ारा भत्ता पाने की हकदार है. सुप्रीम कोर्ट ने ये हुक्म तेलंगाना हाई कोर्ट के आदेश को चुनौती देने वाली मोहम्मद अब्दुल समद नाम के एक वादी के मामले में सुनाई है. सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के साथ ही एक बार फिर देश के सिविल कानून और मुस्लिम पर्सनल कानून के बीच टकराव साफ़ दिखता नज़र आ रहा है. वहीँ, कोर्ट के इस फैसले से एक बार फिर से लगभग 49 साल पुराना इंदौर की तलाकशुदा महिला शाह बानो केस (Shah Bano case) की यादें लोगों के जेहन में फिर से ताज़ा हो गई है, क्यूंकि ऐसा ही एक फैसला सुप्रीम कोर्ट ने साल 1985 में दिया था. इस फैसले के बाद राजीव गाँधी की मौजूदा कांग्रेस सरकार ने कानून बनाकर कोर्ट के इस फैसले को पलट दिया था, जिसकी काफी आलोचना की गई थी. 

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तेलंगाना के मोहम्मद अब्दुल समद का ताज़ा मामला क्या है ? 


तेलंगाना के मोहम्मद अब्दुल समद की तलाकशुदा बीवी ने परिवार अदालत में मुकदमा दायर कर अपने पूर्व पति से गुजरा भत्ते की मांग की थी, परिवार अदालत ने अपने फैसल में मोहम्मद अब्दुल समद को हर माह 20 हज़ार रुपया अपनी पूर्व पत्नी को गुज़ारा भत्ता देने का आदेश दिया. समद ने परिवार अदालत के इस फैसले को मुस्लिम पर्सनल कानून के विरुद्ध होने का हवाला देकर इसे हाई कोर्ट में चुनौती दी.


 तेलंगाना हाई कोर्ट  ने 13 दिसंबर 2023 को परिवार अदालत के फैसले को सही ठहराया.  हालांकि, कोर्ट ने गुजारा भत्ता की रकम प्रति माह 20 हजार रुपये से कमकर  10 हजार कर दी थी. इस रकम को समद को याचिका दाखिल करने की तारीख से चुकाना था. 


समद ने हाई कोर्ट में दलील दी थी कि दंपति ने 2017 में पर्सनल लॉ के मुताबिक, तलाक ले लिया था और उसके पास तलाक प्रमाणपत्र भी है. लेकिन परिवार अदालत ने इस पर विचार नहीं किया, और उसे पूर्व पत्नी को अंतरिम गुजारा भत्ता देने का हुक्म जारी कर दिया.लेकिन हाई कोर्ट ने उसकी दलील ख़ारिज कर दी. इसके बाद समद ने हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का रुख किया था.  
 


सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले में क्या कहा ? 


सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को फैसला सुनाया कि एक मुस्लिम महिला आपराधिक प्रक्रिया संहिता (CRPC) की धारा-125 के तहत अपने शौहर से गुजारा भत्ता पाने की हकदार है. अदालत ने कहा कि सीआरपीसी का यह 'धर्मनिरपेक्ष और धर्म तटस्थ' प्रावधान सभी धर्मों की शादीशुदा महिलाओं पर लागू होता है. न्यायमूर्ति बी वी नागरत्ना और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की बेंच ने साफ़ किया कि मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) कानून, 1986 को धर्मनिरपेक्ष कानून पर तरजीह नहीं दी जायेगी. समद के वकील वसीम कादरी ने दलील दी थी कि एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला सीआरपीसी की धारा-125 के तहत गुजारा भत्ता पाने की हकदार नहीं है, और अदालत को मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) कानून, 1986 के प्रावधानों को लागू करना होगा, लेकिन कोर्ट ने उसकी दलील ख़ारिज कर दी. 
 


शरियत के मुताबिक तलाकशुदा बीवी के खर्चे का पूर्व पति पर कितनी जिम्मेदारी ? 
कोर्ट के इस फैसले पर मुस्लिम धर्मगुरु मौलाना सुफियान निजामी कहते हैं, "इस्लाम ने मिया-बीवी के बीच अगर रिश्ते अच्छे नहीं चल रहे हों, तो उससे अलग होने और फिर से नई ज़िन्दगी शुरू करने का उन्हें मौका देता है. पति तलाक देकर और बीवी अपनी तरफ से खुला लेकर इस बंधन से आज़ाद हो सकती है. तलाक या खुला के बाद पत्नी 3 से 4 माह तक पति के घर में रहती है, इस अवधि को गुज़ारे बिना वो दूसरी शादी नहीं कर सकती है. इस अवधि का खर्च उठाने की जिम्मेदारी उसके पति की होती है. लेकिन इसके बाद जब वो महिला उसकी बीवी ही नहीं रही, उन दोनों का आपस में कोई सम्बन्ध ही नहीं रहा. वो एक आज़ाद महिला है, तो उसका खर्च उसका पूर्व पति क्यों उठाएगा? शरियत में इसलिए ऐसा प्रावधान किया गया है.. पुरुष को उसकी जिम्मेदारी से मुक्त कर दिया जाता है. अगर कोर्ट ने इसपर ऐसा फैसला दिया है, तो कानून के एक्सपर्ट अपनी राय दे सकते हैं कि कोर्ट ऐसा क्यों चाहता है कि पूर्व पति अपनी पूर्व पत्नी का खर्चा उठाये ?" 

क्या कहती हैं तलाकशुदा महिला ? 


हालांकि, सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर बरेली के दरगाह आला हजरत खानदान से ताल्लुक रखने वाली पूर्व बहु और आला हजरत हेल्पिंग कमेटी की सदर निदा खान का नजरिया बिलकुल अलग है. निदा ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत किया है. उन्होंने कहा है कि अक्सर शरियत के नाम पर मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों में कटौती कर दी जाती है. अगर आपसी रजामंदी से तलाक नहीं हुआ है तो इसमें गुज़ारा भत्ता देना ज़रूरी है. जो नॉन- वर्किंग महिलाएं हैं, वो पति से तलाक के बाद अलग होकर कहाँ जायेंगी, उनकी ज़िन्दगी कैसे कटेगी? देश में ऐसा कानून होना चाहिए जो इस मामले में सभी धर्मों की महिलाओं को एक जैसा ट्रीट करे और उन्हें इन्साफ दे. शरियत और मुस्लिम पर्सनल लॉ के नाम पर इस मामले में मुस्लिम महिलाएं हमेशा नुक्सान उठाती हैं. 
 


तलाक और गुज़ारा भत्ता के किसी भी मुद्दे के बाद क्यों उठता है शाहबानो का मामला ? 


शाहबानो इंदौर की रहने वाली एक महिला थी. उसके वकील पति मोहम्मद अहमद खान ने साल 1975 में अपनी पत्नी शाह बानो को 59 साल की उम्र में  तलाक दे दिया था. इस वक़्त शाहबानो को 5 बच्चे थे.  शाहबानो ने खुद और 5 बच्चों के पालन पोषण के लिए पति से गुज़ारा भत्ते की मांग की. लेकिन उसके वकील पति ने शरियत का हवाला देकर उसकी मांग को ठुकरा दिया. ये मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा. 23 अप्रैल 1985 को सुप्रीम कोर्ट ने मुस्लिम पर्सनल लॉ के खिलाफ जाते हुए शाहबानो के पति को उसे हर माह लगभग 180 रुपया गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया. कोर्ट के इस फैसले से उलमा नाराज़ हो गए. मुस्लिम  नेता भी विरोध में आ गए. तत्कालीन राजीव गाँधी की सरकार ने कोर्ट उलेमा के आगे झुकते हुए 1986 में मुस्लिम महिला (तलाक में संरक्षण का अधिकार) कानून बनाकर कोर्ट के फैसले को पलट दिया. कांग्रेस सरकार के इसी फैसले से नाराज होकर तत्कालीन सरकार में कबिनेट मंत्री रहे आरिफ मोहम्मद खान ने कांग्रेस से इस्तीफ़ा दे दिया था. हाल के वर्षों में उन्होंने भाजपा का दामन थाम लिया था, जिसने उन्हें केरल का राज्यपाल बना दिया. इस शाहबानो केस की वजह से भाजपा कांग्रेस पर सबसे ज्यादा मुस्लिम तुष्टिकरण का इलज़ाम लगाकर हमलावर रहती है.