नई दिल्लीः मुल्कभर में सार्वजनिक शौचालयों का कॉन्सेप्ट लाने वाले बिंदेश्वरी पाठक (Bindeshwari Pathak) का मंगलवार को निधन हो गया है. अब उनके परिवार में उनकी पत्नी, दो बेटियां और एक बेटा है. आपको ये जानकर हैरानी होगी कि उन्हें ‘भारत के टॉयलेट मैन’ के तौर पर जाना और पहचाना जाता है. पाठक को कई लोग ‘सैनिटेशन सांता क्लास’ भी कहते हैं. उन्होंने मोदी सरकार के 'स्वच्छ भारत मिशन’ से सालों पहले देश में शौचालय की जरूरत को सार्वजनिक विमर्श का हिस्सा बनाया था. पाठक ने 1970 में सुलभ इंटरनेशनल (Sulabh International) की स्थापना की थी जो सार्वजनिक शौचालयों और खुले में शौच को रोकने के लिए जल्द ही एक आंदोलन बन गया. 

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मैला उठाने पर कर डाली पीएचडी 
पाठक (Bindeshwari Pathak) का जन्म बिहार के वैशाली जिले के रामपुर बघेल गांव में हुआ था. कॉलेज के बाद नौकरी और फिर उसे छोड़कर वह 1968 में बिहार गांधी शताब्दी समारोह समिति के भंगी-मुक्ति (मैला उठाने वालों की मुक्ति) प्रकोष्ठ में शामिल होकर इस प्रथा के खिलाफ आंदोलन करने को उतर गए. उन्होंने भारत में मैला उठाने की समस्या को व्यापक स्तर पर रेखांकित किया और उसे पब्लिक डिकोर्स का विषय बनाया. उन्होंने देश भर की यात्राएं की. यहां तक कि उन्होंने अपना पीएचडी शोधपत्र भी इसे विषय पर पूरा किया.

विकासशील देशों में अपनाया जा रहा उनका आइडिया 
पाठक (Bindeshwari Pathak) ने तकनीकी नवाचार को मानवीय सिद्धांतों के साथ जोड़ते हुए 1970 में सुलभ इंटरनेशनल (Sulabh International) सोशल सर्विस ऑर्गनाइजेशन की स्थापना की थी. उनका ये संगठन शिक्षा के माध्यम से मानवाधिकारों, पर्यावरण स्वच्छता, ऊर्जा के गैर-पारंपरिक स्रोतों, कचरा प्रबंधन और सामाजिक सुधारों को बढ़ावा देने के लिए काम करता है. पाठक के जरिए तीन दशक पहले सुलभ शौचालयों को किण्वन (फर्मेन्टेशन) संयंत्रों से जोड़कर बायोगैस बनाने का डिजाइन अब दुनिया भर के विकासशील देशों में अपनाया जा रहा है. 

1,600 शहरों में 9,000 से ज्यादा सामुदायिक शौचालय 
साल 1974 स्वच्छता के इतिहास में एक मील का पत्थर साबित हुआ था, जब 24 घंटे नहाने, कपड़े धोने और पेशाब करने के लिए सार्वजनिक सुलभ शौचालय की शुरुआत की गई. इस वक्त सुलभ इंटरनेशनल (Sulabh International) देश भर के रेलवे स्टेशनों और शहरों में शौचालयों का संचालन और रख-रखाव कर रहा है. भारत के 1,600 शहरों में 9,000 से ज्यादा सामुदायिक सार्वजनिक शौचालय काम कर रहे हैं. इन परिसरों में बिजली और 24 घंटे पानी की आपूर्ति होती है. यहां पुरुषों और महिलाओं के लिए अलग-अलग इंतजाम होते हैं. इसके इस्तेमाल के लिए नाममात्र की रकम ली जाती है.

का 490 करोड़ रुपये का सालाना ‘टर्नओवर’ 
कुछ सुलभ शौचालयों में नहाने की सुविधा, अमानत घर, टेलीफोन और प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाएं भी दी जाती हैं. वित्त वर्ष 2020 में सुलभ का 490 करोड़ रुपये का सालाना ‘टर्नओवर’ था. सुलभ इंटरनेशनल (Sulabh International) व्यावसायिक प्रशिक्षण संस्थान भी चला रहा है, जहां पर सफाईकर्मियों, उनके बच्चों और समाज के अन्य कमजोर वर्गों के व्यक्तियों को मुफ्त कंप्यूटर, टाइपिंग और शॉर्टहैंड, विद्युत व्यापार, काष्ठकला, चमड़ा शिल्प, डीजल और पेट्रोल इंजीनियरिंग, सिलाई, बेंत के फर्नीचर बनाने जैसे विभिन्न व्यवसायों का प्रशिक्षण दिया जाता है.


देश और दुनियाभर में उन्हें किया गया है सम्मानित 
पद्म भूषण अर्वाड से सम्मानित पाठक को एनर्जी ग्लोब अवार्ड, दुबई इंटरनेशनल अवार्ड, स्टॉकहोम वाटर प्राइज, पेरिस में फ्रांस के सीनेट से लीजेंड ऑफ प्लैनेट अवार्ड सहित कई अन्य अवार्ड भी मिल चुके हैं. पोप जॉन पॉल द्वितीय ने 1992 में पर्यावरण के अंतरराष्ट्रीय सेंट फ्रांसिस आवार्ड से डॉ. पाठक को सम्मानित किया था. पोप ने पाठक से कहा था, ‘‘आप गरीबों की मदद कर रहे हैं.’’ वर्ष 2014 में, उन्हें सामाजिक विकास के शोबे में बेहतरीन काम करने के लिए सरदार पटेल अंतरराष्ट्रीय अवार्ड से नवाजा गया था. अप्रैल 2016 में, न्यूयॉर्क शहर के महापौर बिल डी ब्लासियो ने 14 अप्रैल, 2016 को बिंदेश्वर पाठक दिवस के रूप में मनाने का ऐलान किया था. 12 जुलाई, 2017 को, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जिंदगी पर लिखी गई पाठक की किताब ‘द मेकिंग ऑफ ए लीजेंड’ का नई दिल्ली में लोकार्पण किया गया था. 


कभी अपनों ने ही जताया था विरोध 
बिंदेश्वरी पाठक (Bindeshwari Pathak) के लिए ये काम बिल्कुल आसान नहीं था. इसके विरोध में पहले उनके घर से ही आवाज उठी थी. उन्हें अपने ससुर सहित कई नजदीकी लोगों द्वारा मजाक उड़ाने का सामना करना पड़ा था. पाठक ने एक इंटरव्यू में बताया था कि उनके ससुर यह महसूस करते थे कि अपनी बेटी की शादी उनसे करके बेटी की जिंदगी बर्बाद कर दी है. वह ऐसा इसलिए सोचते थे, क्योंकि वह किसी को नहीं बता सकते कि उनका दामाद क्या काम करता है. मैला ढोने वालों के बच्चों के लिए दिल्ली में एक अंग्रेजी मीडियम स्कूल स्थापित करने से लेकर वृन्दावन में परित्यक्त विधवाओं को माली मदद देने या दिल्ली में शौचालयों का एक संग्रहालय स्थापित करने तक, पाठक और उनके संस्था सुलभ ने हमेशा हाशिए पर रहने वाले लोगों के लिए काम किया है. 


पाठक ने एक बार कहा था कि मैडम तुसाद का दौरा करने के बाद उन्होंने शौचालयों का एक संग्रहालय बनाने के बारे में सोचा था. यह संग्रहालय 1970 के दशक में शुरू हुई उनकी यात्रा को बयान करता है, जब उन्होंने स्वच्छता पर महात्मा गांधी के रास्ते पर चलने और समाज के सबसे निचले तबके के लोगों के उत्थान का फैसला किया था.
 


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