मो. महमूद आलम/नई दिल्लीः बिहार सरकार खेल और खिलाड़ियों के विकास के लिए बड़े-बड़े दावे तो करती है, लेकिन हकीकत कुछ और ही बयां कर रही है. बिहार का एक अंतरराष्ट्रीय स्तर का खिलाड़ी सरकार की उपेक्षाओं के कारण मोटर सायकिल का पंक्चर बनाने को मजबूर है. इस पेशे से उसे न सिर्फ अपना पेट भरना होता है बल्कि बूढ़ी मां, और लाइलाज बीमार से ग्रस्त अपने भाई और दो बहन का खर्च भी उठाना पड़ रहा है. 

इंटरनेशनल स्तर पर भारत का कर चुके हैं प्रतिनिधित्व 
पटना के एनआईटी मोड़ के पास रहने वाले मंसूर आलम खो-खो के बेहतरीन खिलाड़ी हैं. वह कई बार राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश और प्रदेश को रिप्रेजेंट कर अपना परचम लहरा चुके हैं. मंसूर आलम ने बताया कि वह 2015 से लेकर 2019 तक खेल चुके हैं. 2018 में इंटरनेशनल स्तर पर इंडिया को रिप्रेजेंट किया है. उन्होंने कहा कि उस वक्त भी मैने खेल नहीं छोड़ा जब मैदान तक पहुंचने के लिए मेरे पास पैसे नहीं हुआ करते थे. लोग चंदा जुटाकर मुझे भेजा करते थे. 

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10 साल तक नौकरी के लिए जूझते रहे, नहीं मिली नौकरी 
मंसूर आलम को खेल प्राधिकरण की तरफ से 5400 रुपए सालाना स्कॉलरशिप मिलती थी लेकिन 2011 से वो भी बंद हो गई है. बिहार सरकार ने घोषणा की थी कि मेडल लाओ नौकरी पाओ, लेकिन यह योजना सिर्फ कागजों तक ही सिमट कर रह गई. बिहार के बीमार सिस्टम के चलते मंसूर आलम 10 साल तक नौकरी के लिए जूझते रहे. उन्हें नौकरी तो नहीं मिली लेकिन पंक्चर जोड़ना उनकी मजबूरी बन गई.

मैदान हो या जिंदगी की रेस, खिलाड़ी कभी हारता नहीं
सरकार से कोई मदद नहीं मिलने की वजह से मंसूर आलम आज पंक्चर बनाकर गुजर बसर करने पर मजबूर हैं. ऐसे होनहार खिलाड़ी को पंक्चर जोड़ते देखकर हर कोई हैरान है. मंसूर आलम के घर में एक बूढ़ी मां, दो बहने हैं. एक बहन की शादी होना बाकी है. मंसूर आलम ने देश की खातिर मेडल तो जीत लिया लेकिन परिवार का भरण पोषण के लिए उन्हें जद्दोजहद करना पड़ रहा है. मंसूर का मानना है कि खेल का मैदान हो या जिंदगी की रेस, खिलाड़ी कभी हारता नहीं . खो खो के खेल में मंसूर आलम ने अपने राज्य का नाम राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर रोशन किया है, लेकिन आज मंसूर आलम की जिंदगी में अंधेरे के सिवा कुछ नहीं है...


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