अगरतला/शिलांगः नागरिकता (संशोधन) अधिनियम यानी सीएए का मुद्दा पूर्वोत्तर के तीन चुनावी राज्यों त्रिपुरा, नागालैंड, मेघालय में चल रहे चुनाव प्रचार मुहिम में जोर-शोर से तो नहीं उठाया जा रहा है, लेकिन किसी राख में दबी चिंगारी की तरह ये मुद्दा पूरे नॉर्थ ईस्ट में अंदर ही अंदर सुलग रहा है. 
ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (एएएसयू), नॉर्थ ईस्ट स्टूडेंट्स ऑर्गनाइजेशन (एनईएसओ) और कांग्रेस और सीपआई-एम के नेतृत्व वाली वामपंथी पार्टियों के साथ कई दूसरे संगठन भी चुनावी मुहिम के दौरान सीएए का पुरजोर विरोध कर रहे हैं. एएएसयू और एनईएसओ के नेताओं ने कहा,  ’’चूंकि उनके संगठन गैर-राजनीतिक निकाय हैं, इसलिए उन्होंने चुनावी राज्यों में सीएए के मुद्दे को नहीं उठाया है, जबकि कांग्रेस और सीपीआई-एम भी इस मुद्दे पर काफी हद तक अभी अपनी चुप्पी साध रखी है.’’ 


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सीएए के खिलाफ प्रस्ताव पास करने का वादा
हालांकि, त्रिपुरा में चुनाव प्रचार के दौरान आदिवासी आधारित प्रभावशाली पार्टी टिपरा मोथा पार्टी (टीएमपी) सहित कुछ स्थानीय दलों ने सीएए के खिलाफ अपनी आपत्तियों को दर्ज किया है. टीएमपी ने 16 फरवरी के विधानसभा चुनाव के बाद त्रिपुरा में पार्टी के सत्ता में आने पर 150 दिनों के अंदर सीएए के खिलाफ प्रस्ताव पास करने का वादा किया है. टीएमपी प्रमुख और पूर्व शाही वंशज प्रद्योत बिक्रम माणिक्य देब बर्मन ने विधानसभा चुनावों के लिए अपने 15-सूत्रीय एजेंडे और मिशन 15 की 150 दिनों के लिए ऐलान करते हुए कहा, ’’हम चाहते हैं कि त्रिपुरा में सभी धर्म और जाति के लोग एक साथ निवास करें. हम सीएए के खिलाफ प्रस्ताव पारित करेंगे. एक देश में दो कानून नहीं हो चल सकते हैं. एक देश में ऐसा कानून नहीं हो सकता जो मुसलमानों, हिंदुओं, आदिवासियों और अन्य लोगों से भेदभाव करता हो.’’


सुप्रीम कोर्ट में सीएए के खिलाफ मामले दायर किए थे


देब बर्मन जब त्रिपुरा प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष थे, तब उन्होंने सीएए को लेकर केंद्रीय नेताओं के साथ मतभेद के बाद 2019 में पार्टी से इस्तीफा दे दिया था. उस वक्त उन्होंने सीएए के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में केस भी दायर किया था. देब बर्मन के पिता किरीट बिक्रम देबबर्मन त्रिपुरा से कांग्रेस के सांसद थे और उनकी मां बिभु कुमारी देवी कांग्रेस के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार (1988-1993) में मंत्री रह चुकी थीं. एएएसयू और एनईएसओ ने पहले भी सुप्रीम कोर्ट में सीएए के खिलाफ मामले दायर किए थे.


हम चुनावी राज्यों में सीएए को मुद्दा नहीं बना रहे हैं
एनईएसओ के अध्यक्ष सैमुअल बी जिर्वा ने कहा, "हम चुनावी राज्यों में सीएए को मुद्दा नहीं बना रहे हैं, लेकिन वे कानून के खिलाफ जमीन और अदालत दोनों में अपनी लड़ाई लड़ेंगे.’’ एएएसयू (आसू) और एनईएसओ ने पिछले साल 11 दिसंबर को संसद में कानून पास होने की तीसरी वर्षगांठ को पूर्वोत्तर क्षेत्र में 'ब्लैक डे’ के रूप में मनाया था. एनईएसओ के अध्यक्ष ने बताया कि 'ब्लैक डे’ का आयोजन केंद्र सरकार को यह संदेश देने के लिए किया गया था कि हम सीएए के खिलाफ हैं और साथ ही अपने लोगों को एक और राजनीतिक नाइंसाफी की याद दिलाने के लिए है जो सरकार ने पूर्वोत्तर के स्वदेशी लोगों पर लागू किया है. एनईएसओ, जो आसू समेत सात पूर्वोत्तर राज्यों के आठ छात्र संगठनों का एक समूह है. यह भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार द्वारा नवंबर-दिसंबर 2019 में संसद में कानून पेश करने के बाद से पूरे क्षेत्र में आंदोलन कर रहा है.


असम 2019 में सीएए विरोधी प्रदर्शनों का प्रमुख केंद्र था
गौरतलब है कि असम 2019 में सीएए विरोधी प्रदर्शनों का प्रमुख केंद्र था. आसू के अध्यक्ष उत्पल शर्मा ने कहा कि वे सीएए को किसी कीमत पर स्वीकार नहीं करेंगे क्योंकि यह स्वदेशी लोगों और भारत के वास्तविक नागरिकों के खिलाफ है. उन्होंने कहा, हम सीएए के खिलाफ अपना आंदोलन जारी रखेंगे. आसू नेता समुज्जल भट्टाचार्य ने भी कहा कि वे सीएए के खिलाफ आंदोलन जारी रखेंगे.
उल्लेखनीय हे कि सीएए के खिलाफ विरोध पहली बार 2019 में असम, पश्चिम बंगाल के कुछ हिस्सों और अन्य पूर्वोत्तर राज्यों में शुरू हुआ था, जो कोविड-19 महामारी के फैलने से पहले 2020 तक जारी था. उस वक्त असम में सीएए के खिलाफ विरोध प्रदर्शन में कम से कम पांच लोग मारे गए थे. बड़े पैमाने पर हुई हिंसा के बाद कई दिनों तक कर्फ्यू लगाया गया था. 

गौरतलब है कि सीएए गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यकों हिंदुओं, सिखों, बौद्धों, जैनियों, पारसियों और ईसाइयों को भारतीय नागरिकता प्रदान करता है, जो उत्पीड़न का सामना करने के बाद 31 दिसंबर 2014 तक बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान से पलायन कर भारत आ गए हैं. इसे संसद के दोनों सदनों द्वारा पास किया गया था और दिसंबर 2019 में राष्ट्रपति की सहमति के बाद ये कानून बन गया. 


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