5 मिनट में समझें `एक राष्ट्र, एक चुनाव` का गणित; फिर बनाए समर्थन या विरोध में अपनी राय
One Nation One Election: मुल्क में एक देश एक चुनाव कराने के लिए गठित पूर्व राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद की सदारत वाली समिति की सिफारिशें को मानने के बाद गुरुवार को केंद्रीय मंत्रिमंडल ने इस कानून के मसौदा विधेयक को अपनी मंजूरी दे दी है. इसे अब कानूनी रूप देने के लिए संसद के मौजूदा सत्र में इस बिल को पेश किया जा सकता है. हम यह जानने की कोशिश करेंगे कि आखिर `एक राष्ट्र, एक चुनाव` का कांसेप्ट क्या है ? सरकार इसे क्यों लागू करना चाहती है, और विपक्ष इसका क्यों विरोध कर रहा है?
One Nation One Election: केंद्रीय मंत्रिमंडल ने गुरुवार को 'एक राष्ट्र, एक चुनाव' (One Nation One Election) को लागू करने के लिए विधेयकों को मंजूरी दे दी है. हालांकि, मंत्रिमंडल ने अभी सिर्फ लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने के लिए मसौदा विधेयकों को मंजूरी दी है, जबकि पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की सदारत वाली उच्च स्तरीय कमिटी ने राष्ट्रीय और राज्य चुनावों के साथ नगर पालिका और पंचायत चुनाव भी एक साथ कराने का प्रस्ताव दिया था, लेकिन मंत्रिमंडल ने अभी स्थानीय निकाय चुनावों से दूरी बना ली है. मसौदा विधेयक को संसद के चालू शीतकालीन सत्र में पेश किए जाने की संभावना है. "एक राष्ट्र, एक चुनाव" को लागू करने के लिए सरकार को संविधान में संशोधन करना होगा. इसके लिए कम से कम आधे राज्यों के विधान सभाओं के अनुमोदन यानी समर्थन की ज़रूरत होगी. आइये जानते हैं सरकार के इस प्लानिंग के क्या है फायेदे और नुक्सान ?
क्या भारत में 'एक राष्ट्र, एक चुनाव' मुमकिन है ?
एक राष्ट्र, एक चुनाव मुल्क के लिए कोई नया कांसेप्ट नहीं है. ऐसा पहले भी हो चुका है. मुल्क में 1951 से 1967 के बीच लोक सभा और राज्य सभा के चुनाव एक साथ हुए थे. एक साथ चुनाव की मांग 1983 से ही की जा रही है. अगर ये लागू होता है तो एक साथ चुनाव कराने की पिछली प्रथा की सिर्फ वापसी होगी. हालांकि, जिस वक़्त देश में एक साथ चुनाव हुए थे तब भारत की आबादी 36 करोड़ थी, जो आज बढ़कर 1.40 अरब हो चुकी है.
'एक राष्ट्र, एक चुनाव' के पीछे क्या है सरकार का तर्क ?
सरकार का मानना है कि एक साथ चुनाव कराने से चुनाव पर होने वाले सरकारी खर्चे यानी टैक्स पेयर के पैसे को कम किया जा सकेगा. दूसरा ठोस तर्क ये है कि मुल्क के मुख्तलिफ हिस्से में होने वाले अलग-अलग चुनावों की वजह से पूरे साल आदर्श आचार संहिता लागू रहता है, जिसकी वजह से विकास का काम मुतासिर होता है. सरकार ये भी मानती है कि इससे चुनावों में काले धन के इस्तेमाल में कमी आएगी.
क्या दुनिया के किसी देश में होता है एक राष्ट्र, एक चुनाव' पैटर्न पर चुनाव ?
भारत में 'एक राष्ट्र, एक चुनाव' का प्रस्ताव देने वाली समिति ने इससे पहले ऐसी कई देशों का अध्ययन किया है, जहाँ यां नियम पहले से लागू है. इन देशों में दक्षिण अफ्रीका, स्वीडन, फिलीपींस, जापान, जर्मनी और इंडोनेशिया वगैरह शामिल है. हालांकि, ये सभी देश कम आबादी और भौगोलिक क्षेत्र वाले मुल्क हैं. हालांकि, इनमें में सभी देश एक साथ वैसे चुनाव नहीं कराते हैं, जैसा कि भारत में कराने की बात हो रही है. यहाँ निकाय चुनाव राष्ट्रीय चुनाव के साथ नहीं कराये जाते हैं.
इस प्रस्ताव पर राजनितिक दलों के बंटे हैं विचार
पूर्व राष्ट्रपति कोविंद की सदारत वाली उच्च स्तरीय समिति जब इस प्रस्ताव को लेकर सियासी जमातों से सलाह- मशविरा कर रही थी, तब NDA से जुड़े लगभग 32 राजनीतिक दलों ने इस विचार का समर्थन किया था, जबकि 15 ने इसका खुलकर विरोध किया था. कुछ दलों ने न तो हिमायत की न मुखालफत की. विपक्ष का सबसे बड़ा सवाल है कि लोक सभा चुनाव जब अभी एक चरण में नहीं हो सकते हैं, तीन से लेकर 7 चरणों में चुनाव हुए हैं, तो एक साथ पूरे देश में विधनासभा और लोकसभा के चुनाव कैसे हो सकते हैं? यहाँ तक कि झारखण्ड और कश्मीर जैसे छोटे राज्यों के विधानसभा चुनाव भी एक साथ नहीं होते हैं, बल्कि कई चरणों में होते हैं. चुनाव आयोग संसाधनों का रोना रोता है, फिर पूरे देश के सभी चुनाव एक साथ कैसे हो सकते हैं?
प्रस्ताव पर कौन साथ, कौन है खिलाफ
समर्थन
भाजपा, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, जनता दल (यूनाइटेड), वाईएसआर कांग्रेस, बीजू जनता दल, भारत राष्ट्र समिति, लोक जनशक्ति पार्टी, शिरोमणि अकाली दल, अपना दल, ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन, सिक्किम क्रांतिकारी मोर्चा, नेशनल डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी, नेशनल पीपुल्स पार्टी, पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी, राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी, रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया, अन्नाद्रमुक, असम गण परिषद, मिजो नेशनल फ्रंट, नेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी, शिव सेना, सिक्किम क्रांतिकारी मोर्चा, शिरोमणि अकाली दल और यूनाइटेड पीपुल्स पार्टी लिबरल ने प्रस्ताव का समर्थन किया है.
विरोध
राष्ट्रीय दलों में कांग्रेस, आम आदमी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) ने इस प्रस्ताव का विरोध किया है. राज्य स्तरीय दलों में, एआईयूडीएफ, तृणमूल कांग्रेस, एआईएमआईएम, सीपीआई, डीएमके, नागा पीपुल्स फ्रंट और एसपी ने प्रस्ताव का विरोध किया है.
न समर्थन न विरोध
भारत राष्ट्र समिति, इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग, जम्मू और कश्मीर नेशनल कॉन्फ्रेंस, जनता दल (सेक्युलर), झारखंड मुक्ति मोर्चा, केरल कांग्रेस (एम), राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी, रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी, सिक्किम डेमोक्रेटिक फ्रंट, तेलुगु देशम पार्टी और वाईएसआर कांग्रेस पार्टी सहित अन्य ने कोई जवाब नहीं दिया है.
विरोध का क्या है आधार ?
सरकार के 'एक राष्ट्र, एक चुनाव' के प्रस्ताव का विपक्षी दल विरोध कर रहे हैं. उनका मानना है कि इसकी वजह से संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन हो सकता है. इससे मुल्क के संघीय ढांचे को नुक्सान पहुँच सकता है. राज्यों के अधिकारों में कटौती हो सकती है. केंद्र सरकार राज्य सरकारों पर हावी हो सकती है. राज्य सरकारों को बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन प्रणाली लागू करना आसान हो जाएगा. इससे क्षेत्रीय दल हाशिए पर जा सकते हैं और राष्ट्रीय दलों का दबदबा कायम हो जाएगा. इससे केंद्र सरकार की तानाशाही स्थापित हो सकती है. इससे अवाम को वोटिंग के लिए सोचने- समझने का मौका नहीं मिलेगा. अभी उसका केंद्र और राज्य में वोटिंग पैटर्न अलग भी होता है. एक साथ चुनाव कराने से मतदाताओं के सामने भी समस्या हो सकती है. उसे दलों और सरकार के कामकाज को परखने का मौका नहीं मिलेगा. कुछ दल और नेता इसे व्यावहारिक भी नहीं मानते हैं.
आम आदमी का क्या ?
राजनीतिक दलों और देश के लिए 'एक राष्ट्र, एक चुनाव' के फायदे और नुक्सान के मायने अलग- अलग हो सकते हैं. लेकिन आम आदमी भी इससे प्रभावित होता है. देश में अभी लोक सभा, विधान सभा, और निकाय चुनाव तीन- चार अलग- अलग टाइम पर होते हैं. चुनाव देश में एक उत्सव की तरह आता है. इससे रोजगार के अवसर पैदा होते हैं. करोड़ों-अरबों का कारोबार होता है. इससे नेताओं और पार्टियों का काला धन मार्किट में आता है, जिससे बाज़ार में तरलता बढती है. पैसा आने से व्यापार बढ़ता है. लेकिन एक साथ चुनाव होने से आम जनता और कारोबार का नुक्सान होगा.
कैसे लागू होगा 'एक राष्ट्र, एक चुनाव' ?
पूर्व राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद की सदारत वाली समिति ने एक साथ चुनाव कराने पर सिफारिशें की थीं. उनके प्रमुख अंश यहाँ दिए जा रहे हैं.
1. पहले फेज में, लोकसभा और सभी राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराए जाएंगे.
2. दूसरे फेज में, नगर पालिकाओं और पंचायतों के चुनावों को लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के साथ इस तरह से संयोजित किया जाएगा कि नगर पालिकाओं और पंचायतों के चुनाव संसदीय और विधानसभा चुनावों के 100 दिनों के अन्दर हो जाएं.
3. लोकसभा और विधानसभा चुनावों को एक साथ कराने के मकसद से राष्ट्रपति आम चुनाव के बाद लोकसभा की पहली बैठक की तारीख को "नियत तारीख" के रूप में अधिसूचित करेंगे.
4. नियत तारीख के बाद और लोकसभा का पूर्ण कार्यकाल ख़त्म होने से पहले चुनावों के जरिये गठित सभी राज्य विधानसभाओं का कार्यकाल सिर्फ बाद के संसदीय चुनावों तक की मियाद के लिए होगा. इस एक बार के अस्थायी उपाय के बाद, सभी लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ आयोजित किए जाने लगेंगे.
5. सदन में बहुमत न होने या अविश्वास प्रस्ताव या ऐसे किसी भी हालात में नई लोकसभा के गठन के लिए बीच में भी नए चुनाव कराए जा सकते हैं.
6. जहां लोक सभा के लिए नए चुनाव होते हैं, वहां सदन का कार्यकाल सिर्फ सदन के तत्काल पूर्ववर्ती पूर्ण कार्यकाल के बाकी बचे मियाद के लिए होगा.
7. जब राज्य विधानसभाओं के लिए नए चुनाव आयोजित किए जाते हैं, तो ऐसी नई विधानसभाएं - जब तक कि उन्हें पहले ही भंग न कर दिया जाए - लोकसभा के पूर्ण कार्यकाल के आखिर तक जारी रहेंगी.
8. चुनाव आयोग के जरिये राज्य चुनाव आयोगों की सलाह से एक एकल मतदाता सूची और मतदाता फोटो पहचान पत्र (ईपीआईसी) तैयार किया जाएगा, और यह चुनाव आयोग द्वारा तैयार किसी भी दूसरी या मौजूदा मतदाता सूची की जगह ले लेगा.
9.. एक साथ चुनाव कराने के लिए रसद व्यवस्था करने के लिए, चुनाव आयोग EVM और वीवीपैट जैसे उपकरणों की खरीद, मतदान कर्मियों और सुरक्षा बलों की तैनाती और दीगर ज़रूरी व्यवस्थाओं के लिए पहले से ही एक योजना और अनुमान तैयार कर सकता है.
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