अरबी साल के पहले महीने 'मुहर्रम' की 10 दस तारीख को यौमे आशूरा मनाया जाता है. इस दिन हज़रत हुसैल रज़ि. की शहादत हुई थी. उन्हीं की शहादत के गम इस दिन को मनाया जाता है. उनकी शहादत के गम में मातम, मजलिस अज़ादारी और पुरसादारी के साथ-साथ अक़ीदतमंद अपने घरों, इमामबाड़ों और अज़ाख़ानों में ताज़िया रखते हैं. मोहर्रम का चांद नज़र आते ही अज़ाख़ाने आरास्ता हो जाते हैं. 


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ताज़ियादारी की तारीख़ पर लोग मुस्तनद हवाले नहीं दे पाते लेकिन कुछ लोगों का मानना है कि 14वीं सदी में बादशाह रहा तैमूर लंग इमाम हुसैन से बेहद अक़ीदत रखता था. मोहर्रम में हर साल कर्बला जाता था. एक साल तबीयत ख़राब होने के सबब वो इराक़ के शहर कर्बला नहीं जा सका. तो उसने इमाम हुसैन के रौज़े की तरह एक छोटा रौज़ा बनावाया जिसे ताज़िया कहा गया. तभी से हिंदुस्तान में ताज़ियादारी का आगाज़ हुआ. 


कहा यह भी जाता है कि हज़रत ख़्वाजा मोईनुद्दीन हसन चिश्ती जब हिंदुस्तान आए तो उन्होंने भी अजमेर में एक इमामबाड़ा बनवाया और ताज़िया रखा. आज भी आपकी दरगाह पर ताज़िया रखा जाता है.


आपको जानकर हैरानी होगी कि ताज़ियादारी सिर्फ़ हिंदुस्तान में ही नहीं है. ईरान और इराक़ में शिया सबसे ज़्यादा हैं और बड़े ही एहतेमाम व इंतेज़ाम के साथ अज़ादारी होती लेकिन मरासिमे अज़ा में ताज़िया नज़र नहीं आता. 


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