"कठिन है राहगुज़र थोड़ी दूर साथ चलो"; अहमद फराज के शेर

ये शहर मेरे लिए अजनबी न था लेकिन... तुम्हारे साथ बदलती गईं फ़ज़ाएँ भी

हम को उस शहर में तामीर का सौदा है जहाँ... लोग मेमार को चुन देते हैं दीवार के साथ

न तेरा क़ुर्ब न बादा है क्या किया जाए... फिर आज दुख भी ज़ियादा है क्या किया जाए

ज़िंदगी तेरी अता थी सो तिरे नाम की है... हम ने जैसे भी बसर की तिरा एहसाँ जानां

कठिन है राहगुज़र थोड़ी दूर साथ चलो... बहुत कड़ा है सफ़र थोड़ी दूर साथ चलो

अब तिरा ज़िक्र भी शायद ही ग़ज़ल में आए... और से और हुए दर्द के उनवाँ जानाँ

न तुझ को मात हुई है न मुझ को मात हुई... सो अब के दोनों ही चालें बदल के देखते हैं

नासेहा तुझ को ख़बर क्या कि मोहब्बत क्या है... रोज़ आ जाता है समझाता है यूँ है यूँ है

किस को बिकना था मगर ख़ुश हैं कि इस हीले से... हो गईं अपने ख़रीदार से बातें क्या क्या

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