Hindi Poetry in Urdu: "...ज़ालिम में और इक बात है इस सब के सिवा भी"

Siraj Mahi
Oct 09, 2024

मज़हबी बहस मैं ने की ही नहीं, फ़ालतू अक़्ल मुझ में थी ही नहीं

ग़ज़ब है वो ज़िद्दी बड़े हो गए, मैं लेटा तो उठ के खड़े हो गए

मोहब्बत का तुम से असर क्या कहूँ, नज़र मिल गई दिल धड़कने लगा

दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ, बाज़ार से गुज़रा हूँ ख़रीदार नहीं हूँ

लोग कहते हैं बदलता है ज़माना सब को, मर्द वो हैं जो ज़माने को बदल देते हैं

इलाही कैसी कैसी सूरतें तू ने बनाई हैं, कि हर सूरत कलेजे से लगा लेने के क़ाबिल है

हम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बदनाम, वो क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता

नाज़ क्या इस पे जो बदला है ज़माने ने तुम्हें, मर्द हैं वो जो ज़माने को बदल देते हैं

इश्वा भी है शोख़ी भी तबस्सुम भी हया भी, ज़ालिम में और इक बात है इस सब के सिवा भी

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