"शबनम हूं, जल रहा हूं शरारों के शहर में", सलाम मछली शहरी के शेर

यूँ ही आँखों में आ गए आँसू, जाइए आप कोई बात नहीं

रात दिल को था सहर का इंतिज़ार, अब ये ग़म है क्यूँ सवेरा हो गया

अजीब बात है मैं जब भी कुछ उदास हुआ, दिया सहारा हरीफ़ों की बद-दुआओं ने

आँसू हूँ हँस रहा हूँ शगूफ़ों के दरमियाँ, शबनम हूँ जल रहा हूँ शरारों के शहर में

वो सिर्फ़ मैं हूँ जो सौ जन्नतें सजा कर भी, उदास उदास सा तन्हा दिखाई देने लगे

कभी कभी तो सुना है हिला दिए हैं महल, हमारे ऐसे ग़रीबों की इल्तिजाओं ने

मेरी मौत ऐ साक़ी इर्तिक़ा है हस्ती का, इक 'सलाम' जाता है एक आने वाला है

अब मा-हसल हयात का बस ये है ऐ 'सलाम', सिगरेट जलाई शे'र कहे शादमाँ हुए

ग़म मुसलसल हो तो अहबाब बिछड़ जाते हैं, अब न कोई दिल-ए-तन्हा के क़रीं आएगा

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