Hindus in Pakistan: भारत में जब किसी हिंदू का देहांत हो जाता है तो उसके अंतिम संस्कार के बाद अस्थियों को गंगा में बहा दिया जाता है. लेकिन जरा सोचिए जो हिंदू पाकिस्तान में रहता है उसकी अस्थियां कहां जाएंगी. कुछ बरसों तक तो गंगा में ही बहती थी लेकिन फिलहाल पाकिस्तानी हिंदुओं की अस्थियां भारत का वीज़ा मिलने का इंतेजार कर रही है. 


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कराची के एक पंडित मुकेश कुमार पिछले कई सालों से हर कुछ दिनों में शहर के श्मशान घाट में अपने मृतक रिश्तेदारों की 'राख' (राख) के भारत जाने के बारे में पूछने के लिए जाते रहे हैं. "इंडिपेंडेंट उर्दू" के साथ खास बात करते हुए रमेश कुमार ने कहा कि उनके कई रिश्तेदारों ने वर्षों से अपनी राख यहां रखी है, जिसे वे भारत में गंगा नदी बहाना चाहते हैं और इसके लिए सरहद पार जाना जरूरी है.


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पंडित मुकेश का कहना है कि कई वर्ष गुजर गए लेकिन हमें भारत का वीजा नहीं मिल पा रहा है. उन्होंने भारत सरकार से अपील करते हुए कहा कि हमारा सहयोग करें ताकि हमारे प्रियजनों की आत्मा को शांति मिले. कराची के सदियों पुराने हिंदू समुदाय में रमेश कुमार अकेले व्यक्ति नहीं हैं, जिनकी अस्थियां भारत ले जाने और गंगा में प्रवाहित किए जाने का इंतेजार कर रही हैं. सैकड़ों की तादाद में उनके पास अस्थियां मौजूद हैं. अस्थियों को स्टील या मिट्टी के बर्तनों और कपड़े में पोटली के अंदर रखा हुआ है. साथ ही प्रत्येक कलश पर मृतक का नाम और मृत्यु की तारीख भी लिखी हुई है. 


सोनपुरी श्मशान घाट के केयरटेकर महाराज श्री रामनाथ ने इंडिपेंडेंट उर्दू को बताया कि 2016 में 160 अस्थियां गंगा में दफनाने के लिए भारत भेजी गईं और उसके बाद किसी को अस्थियों के लिए वीजा नहीं मिला. श्री रामनाथ ने कहा 'हड्डियां हमें इस भरोसे पर सौंपी गई हैं कि वे सामूहिक रूप से ले जाई जाएंगी.


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उन्होंने कहा कि भारत नहीं जाने की वजह से कराची या सिंध के अन्य शहरों और गांवों में कुछ हिंदू अपने प्रियजनों के अवशेषों को जबरदस्ती किसी नदी या नहर में प्रवाहित कर देते हैं. ऐसे में श्री रामनाथ ने भारतीय प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री से अपील की है कि उन्हें यह नेक काम करने के लिए वीज़ा मिले. साथ ही उन्होंने कहा कि धर्म राजनीति और विभाजन से ज्यादा महत्वपूर्ण है और हिंदुओं को अंतिम संस्कार के लिए गंगा नदी पर जाने में कोई समस्या नहीं होनी चाहिए. यह उनका मौलिक धार्मिक अधिकार है. जिसे नकारा नहीं जा सकता.


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