...बदलेगी देश की राजनीति!
बिहार के विधानसभा चुनावों में नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव के महागठबंधन की प्रचंड जीत ने देश के राजनीतिक फलक पर एक नई हलचल पैदा कर दी है। महागठबंधन की जीत को यदि विपक्षी एकता के प्रतीक के तौर देखें तो आगामी समय में देश की राजनीति के एक नई दिशा में बढ़ने के संकेत मिलने लगे हैं, जो बीजेपी पर भारी पड़ती नजर आने लगी है। वहीं, लालू-नीतीश की जोड़ी की शानदार जीत के बाद देश के कई राज्यों में बीजेपी विरोधी राजनीतिक दलों को अब आशा की एक नई किरण नजर आने लगी है। ज्ञात हो कि लोकसभा चुनावों के बाद देश में हर तरफ 'मोदी लहर' ही नजर आ रही थी, लेकिन बीजेपी के 'विजयी रूपी घोड़े' को महागठबंधन ने बिहार में रोक दिया। शुरुआती तौर पर यह देश की राजनीति में बदलाव का सूचक है। भले ही इस बदलाव के पीछे अन्य कई कारण भी हैं, लेकिन इसका श्रेय तो महागठबंधन को ही जाएगा।
जेडीयू-आरजेडी-कांग्रेस की धमाकेदार जीत और बीजेपी की करारी हार के अब कई सवाल उभरकर सामने आ रहे हैं। क्या देश की राजनीति में बिहार चुनाव परिणाम ‘एक नेता के कमजोर होने का प्रतीक’ है? क्या यह चुनाव देश की राजनीति में नया परिवर्तन लाएगा। क्या अन्य राज्यों में भी भविष्य में चुनाव होने पर बिहार जैसे ही परिणाम आएंगे? क्या इस चुनाव परिणाम को मोदी के प्रति लोगों की राय के तौर पर भी लिया जाएगा? क्या यह बीजेपी और नरेंद्र मोदी की हार है? क्या ‘बिहारी विरुद्ध बाहरी’ का मुद्दा बीजेपी के लिए सरदर्द साबित हुआ? क्या यह नरेंद्र मोदी और एनडीए सरकार के खिलाफ जनमत संग्रह है? इन सभी सवालों के बीच यह तय है कि इस चुनाव परिणाम के बाद गैर भाजपा दलों का भरोसा और पुख्ता होगा कि बीजेपी को हराया जा सकता है। गैर बीजेपी दल अब खुद में ज्यादा विश्वास महसूस करने लगेंगे कि तमाम संसाधनों से लैस होने के बावजूद बीजेपी को हराया जा सकता है। विपक्ष अब यह महसूस करने लगेगा कि ‘बीजेपी अजेय’ नहीं है। ऐसे में राष्ट्रीय राजनीति में बीजेपी के लिए आगे की चुनावी राह उतनी आसान नहीं रहेगी। संभव है कि भविष्य में होने वाले चुनावों में बीजेपी को कड़ी चुनौती मिलने लगे।
बीजेपी की ओर से बिहार में किसी को मुख्यमंत्री उम्मीदवार के तौर पर पेश नहीं करने का खामियाजा पार्टी को भुगतना पड़ा। बीजेपी ने यह चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में लड़ा। 'मोदी लहर' को भुनाने की कोशिश में पार्टी ने नरेंद्र मोदी के अगुवाई में चुनाव लड़ना बेहतर समझा। लेकिन बीजेपी का यह फॉर्मूला इस बार पूरी तरह विफल हो गया। बीजेपी को भी अब इस बात को स्वीकार कर लेना चाहिए। यह हार एक नेता के कमजोर होते स्तर को भी कुछ हद तक दर्शाती है। इसमें कोई संशय नहीं है कि नीतीश कुमार अब सुपरहीरो बनकर उभरे हैं और भविष्य में उनके राष्ट्रीय स्तर पर एक सर्वमान्य नेता के तौर पर उभरने के आसार बनने लगे हैं। इस चुनाव में उनकी स्वच्छ छवि का महागठबंधन को भरपूर लाभ मिला। विदित है कि नीतीश कुमार ने अपने पूर्व के कार्यकाल में बिहार को विकास की पटरी पर लाने का काम किया और राज्य की छवि को भी सुधारा। ऐसे में जनता ने एक बार फिर उन पर भरोसा किया। जो यह साबित करता है कि बिहार के चुनाव परिणाम देश की राजनीति में नया परिवर्तन लाएंगे। अब ये भी कयास लगाए जाने लगे हैं कि नीतीश कुमार आने वाले समय में बीजेपी के खिलाफ तीसरे मोर्चे को लामबंद करने वाली ताकत होंगे। महागठबंधन की जीत दरअसल राज्य में नीतीश कुमार की ओर से किए गए विकास कार्य को जनता की ओर से मिली मंजूरी है। सूबे में बीजेपी गठबंधन को हुए भारी नुकसान की कई वजहें हैं और पार्टी को गहनता के साथ इसके कारणों पर मंथन करना चाहिए।
बिहार में निर्णायक जनादेश को अब हर विपक्षी दल अपने अनुसार सांचे में ढालने की जुगत में है ताकि बीजेपी के खिलाफ मजबूत किलेबंदी की सके। इससे यह संकेत मिलता है कि बीजेपी विरोधी धुरी अब कुछ ज्यादा मजबूत होने की ओर अग्रसर होगा। यह जीत देश के अन्य राज्यों में बीजेपी विरोधी दलों के लिए संजीवनी का भी काम करेगी। उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल समेत कुछ राज्यों में एक साल के बाद चुनाव होने हैं। ऐसे में ये चुनाव परिणाम जरूर उन राज्यों में भी असर डालेगा।
महागठबंधन की विजय में नीतीश कुमार की लोकप्रियता एक प्रमुख कारक है। उनकी साफ छवि और विकास के एजेंडे ने बिहार की जनता का भरोसा जीता। बिहार चुनाव के दौरान राष्ट्रीय स्तर पर असहिष्णुता का मुद्दा छाया रहा। बड़ी संख्या में कलाकारों, लेखकों और अन्य क्षेत्र की नामी हस्तियों ने ‘देश में बढ़ती असहिष्णुता’ के विरोध में अपने पुरस्कार लौटाए। इसका चुनाव पर व्यापक असर पड़ा। संघ प्रमुख मोहन भागवत के जाति आधारित आरक्षण पर पुनर्विचार करने संबंधी बयान भी चुनावों के दौरान बड़ा मुद्दा रहा। इससे पिछड़ी जातियां एनडीए गठबंधन के खिलाफ एकजुट हुईं। पिछड़ों और दलितों के बीच एक भय की आशंका ने जन्म ले लिया। चुनाव प्रचार और चुनावी भाषणों में गाय, गोमांस और पाकिस्तान का मुद्दा छाया हुआ था। अल्पसंख्यक वोटरों के ध्रुवीकरण की पुरजोर कोशिश की गई लेकिन ये सभी प्रयोग विफल साबित हुए। एक तरह से देखें तो सांप्रदायिक राजनीति को जनता ने खारिज कर दिया।
बीजेपी के कई नेताओं की ओर से दलितों और अन्य मुद्दों पर बयानबाजी का चुनाव परिणामों पर खासा प्रभाव पड़ा। बीफ विवाद और सांप्रदायिकता को भड़काने वाले बयानों का नतीजा यह हुआ कि अल्पसंख्यक वोट नहीं बंटे और इसका लाभ नीतीश और लालू को हुआ। बीजेपी के खिलाफ एक मुख्य कारक यह भी रहा कि उसने अपने मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार की घोषणा नहीं की। ज्ञात हो कि 2014 के लोकसभा चुनाव में आरजेडी को बड़ा झटका लगा था, जब बिहार की 40 सीटों में से वह केवल चार सीट ही हासिल कर पाई थी। लगातार पराजय का मुंह देखने के बाद लालू ने मित्र से दुश्मन बने नीतीश कुमार से फिर हाथ मिलाना उचित समझा। लोकसभा चुनाव में नीतीश कुमार की जेडीयू को आरजेडी से भी बड़ा झटका लगा था और उसे मात्र दो सीट मिली थी। पीएम मोदी के करिश्मे और भाजपा की राज्य में बढ़ती लोकप्रियता को देखते हुए और लोकसभा चुनाव में मिली करारी हार के चलते नीतीश और लालू की नजदीकियां बढ़ी और ये महागठबंधन के रूप में सामने आया। लालू ने जमीनी हकीकत को देखते हुए नीतीश कुमार को महागठबंधन के मुख्यमंत्री के रूप में स्वीकार किया और दोनों दलों ने कांग्रेस को साथ लेकर चुनाव लड़ा जिसमें उसे सफलता मिली। बिहार में पंद्रह साल सत्ता में रहने के पश्चात 2005 के विधानसभा चुनाव में पराजय से हाशिये पर पहुंचे लालू प्रसाद ने इस चुनाव में न केवल महागठबंधन के जीत की पटकथा रची बल्कि खुद किंगमेकर बनकर उभरे। इस प्रभावशाली जीत के साथ लालू ने राजनीतिक पटल पर प्रभावकारी वापसी दर्ज की बल्कि बेजान हो चुकी अपनी पार्टी में भी नई जान फूंक दी।
बीजेपी की ओर से इस चुनाव में उठाए गए कुछ मुद्दे भारी पड़ गए। जैसे संघ प्रमुख मोहन भागवत की ओर से दिए गए आरक्षण के बयान के बाद हुआ विवाद। बीजेपी का यह दांव उलटा पड़ गया। इसके चलते महादलितों, पिछड़े और अन्य पिछड़ा वर्ग ने भाजपा के खिलाफ वोटिंग की। बीफ विवाद के मुद्दे को वोटरों की ओर से नकारा जाना और वोटरों का ध्रुवीकरण न हो पाना। बीजेपी की ओर से मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार का नाम घोषित नहीं किया जाना। नीतीश की ओर से इसे चुनावी मुद्दा बनाकर बिहारी बनाम बाहरी के नारे पर चुनाव लड़ना। महंगाई ने इस चुनाव पर काफी असर डाला। दाल की बढ़ती कीमतों ने मतदाताओं में एक तरह से आक्रोश भर दिया। बीजेपी के स्थानीय नेताओं को प्रचार अभियान में दरकिनार किया जाना। बिहार में स्थानीय मुद्दों और पार्टी के स्थानीय नेताओं की अवहेलना की गई। शत्रुघ्न सिन्हा, लालकृष्ण आडवाणी जैसे वरिष्ठ लोगों को चुनाव प्रचार से दूर रखा गया। विकास के नारे के साथ चुनाव में उतरी बीजेपी का मूल मुद्दों से भटकना। अपने सहयोगियों रामविलास पासवान और जीतनराम मांझी का साथ न मिलना। इसके अलावा, और भी कई मुद्दे रहे जिससे बीजेपी जीत के रेस में काफी पिछड़ गई। इन हालात में अब बीजेपी को चुनावी नतीजों और उसके कारणों का गहराई से विश्लेषण करना होगा ताकि आने वाले समय में देश की राजनीति में पार्टी को मजबूत किया जा सके।
आखिरकार नीतीश ने फिर से अपनी रणनीति का लोहा मनवा लिया है और विधानसभा चुनाव में भारी जीत दर्ज कर वह फिर से प्रदेश के 'महानायक' बन गए। नीतीश ने लोकसभा चुनाव में भारी पराजय झेलने के बाद अपने धुर विरोधी प्रमुख लालू प्रसाद के साथ हाथ मिलाकर राजनीतिक पंडितों को हैरत में डाल दिया था। लेकिन नीतीश ने लगातार तीसरी जीत हासिल कर यह संदेश दे दिया कि अभी देश की राजनीति में बहुत कुछ बाकी है। इन राजनीतिक हालातों में अब एनडीए को हार के कारणों का गंभीरता से विश्लेषण करना होगा, क्योंकि भविष्य में कई मोर्चों पर बीजेपी और उसकी सहयोगी पार्टियों को तगड़ी चुनौती मिलने के आसार अभी से बनने लगे हैं।