सड़कों पर 15 लाशों (अवर्णों-सवर्णों की) के बिछने, सैकड़ों के घायल होने, अरबों की संपत्ति फूंकने के बाद उन कलेजों को जरूर कुछ ठंडक मिली होगी जो सर्वोच्च न्यायालय की व्याख्या को अपनी डूबती राजनीति के लिए संजीवनी मंत्र मानकर चल रहे हैं. ये तो उन्हें पता चल गया होगा कि सर्वोच्च न्यायालय ने अजा/जजा अत्याचार निवारण अधिनियम 1989 के दुरुपयोग रोकने के उद्देश्य से की गई व्याख्या को स्थगित करने व पलटने से इंकार कर दिया है. अलबत्ता पुनर्विचार याचिका की सुनवाई के द्वार खुले हैं.


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इस बीच खिसियाए लोगों की जो सतही और अभद्र प्रतिक्रियाएं आ रही हैं वो किसी भी लोकतांत्रिक देश के लिए बड़े ही शर्म का विषय है. जजों पर जातीय और चरित्रगत हमले किए जा रहे हैं. जबलपुर हाईकोर्ट परिसर में तो जाति विशेष के वकीलों ने ही सर्वोच्च न्यायालय के जजों के खिलाफ नारेबाजी की, जिसे हाईकोर्ट बार एसोसिएशन ने संज्ञान में लिया. बालाघाट से खबर है कि दो अफसरों ने छुट्टी लेकर बंद के दौरान हिंसक भीड़ का नेतृत्व किया, इनके खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई है.


हालात जैसे बन रहे हैं उसे देखते हुए हम विश्वास के साथ कह सकते हैं कि सरकार वोटीय लोभ के चलते इनके आगे झुकी तो लोकतंत्र के इस आखिरी चिराग न्यायपालिका की साख भी मिट्टी में मिल जाएगी. उसी दिन से समझिएगा कि भारत देश का एक राष्ट्र के रूप में पतन शुरू हो चुका है. सर्वोच्च न्यायालय की मंगलवार की कार्रवाई देश के प्रायः सभी अखबारों में सुर्खियों पर रही. सरकारी वकील दलितों की नाराजगी और फैली हिंसा को आधार बनाकर यह दरख्‍वास्‍त लेकर गए थे कि उस फैसले पर स्थगन दे दिया जाए.


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सर्वोच्च न्यायालय ने कहा- प्रदर्शन कर रहे लोगों ने हमारा आदेश पढ़ा भी नहीं है. हमें जेलों में बंद निर्दोष लोगों की चिंता है. मामला संवैधानिक है, हमें इससे कोई लेना- देना नहीं कि कोर्ट के बाहर क्या हो रहा है.


डॉ. भीमराव आंबेडकर की अध्यक्षता में तैयार किए गए संविधान की मूल आत्मा में ही यह निहित है कि "भले ही सौ गुनहगार छूट जाएं, लेकिन एक निर्दोष को सजा नहीं मिलनी चाहिए." इस फैसले के पीछे भी बाबा साहब का वही पवित्र आदर्श है, जिसे कतिपय लोग कानून को साजिशन कमजोर करने के नजरिए से देख रहे हैं.


अखबारों में यह फैसला देने वाले दो जजों यूयू ललित, एके गोयल और केंद्र सरकार के अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल के बीच हुई जिरह को पढ़ा होगा. इसके कुछ जरूरी अंशों को दोहराया जाना जरूरी है. जिरह पर नजरें इनायत करिए...


एजी वेणुगोपाल- देशभर के दलित नाराज हैं, 10 लोग मर चुके हैं, फैसले में अंतरिम रोक लगाएं.
जस्टिस गोयल- हम एससी, एसटी एक्ट के खिलाफ नहीं हैं. पर ये देखना होगा कि बेगुनाह को सजा न मिले. सरकार क्यों चाहती है कि बिना जांच के लोग गिरफ्तार किए जाएं. अगर सरकारी कर्मचारी पर कोई आरोप लगाएगा तो वह कैसे काम करेगा? हमने एससी/एसटी एक्ट नहीं बदला, सीआरपीसी की व्याख्या की है.
एजी वेणुगोपाल- यह एक्ट पहले से ही सशक्त है, इसमें बदलाव की जरूरत नहीं.
जस्टिस गोयल- सबसे बड़ी खामी यह है कि एक्ट में अग्रिम जमानत का विकल्प नहीं. अगर किसी को जेल भेजते हैं और बाद में वह निर्दोष साबित होता है तो उसके नुकसान की भरपाई नहीं कर सकते. आपके आंकड़े बताते हैं कि कानून का अक्सर दुरुपयोग होता है.
एजी वेणुगोपाल- कई मामलों में दुरुपयोग का पता चला है मगर उस आधार पर कानून में बदलाव जरूरी नहीं.
जस्टिस ललित- क्या किसी निर्दोष को उसका पक्ष सुने बिना जेल भेजना उचित है? अगर किसी सरकारी कर्मचारी के साथ ऐसा होता है तो वह कैसे काम करेगा? कानून सजा की बात करता है गिरफ्तारी की नहीं.
जस्टिस गोयल- यह अकेला ऐसा कानून है, जिसमें किसी को कानूनी उपचार नहीं मिलता. केस दर्ज होते ही व्यक्ति को तुरंत गिरफ्तार कर जेल भेज देते हैं. झूठे आरोप लगाकर किसी की स्वतंत्रता छीनने का हक किसी को नहीं दे सकते.
एमिकस क्यूरी अमरेंद्र शरण- सीआरपीसी भी कहती है कि गिरफ्तारी से पहले जांच करनी चाहिए. प्रावधान भले ही एक्ट के हों, लेकिन प्रक्रिया सीआरपीसी की ही होती है. कोर्ट की गाइडलाइंस से एससी/एसटी एक्ट के केस की जांच, ट्रायल और अन्य न्यायिक प्रक्रिया पर कोई असर नहीं पड़ेगा. 
जस्टिस गोयल- आरोपी को गिरफ्तार करने की शक्ति सीआरपीसी देती है, एससी-एसटी एक्ट नहीं. हमने सिर्फ प्रक्रियात्मक कानून की व्याख्या की है, एससीएसटी एक्ट की नहीं.


जजों की टिप्पणी के बाद भ्रम के जाले साफ हो जाने चाहिए, लेकिन जिन लोगों ने अपनी आंखों में कुतर्कों की पट्टी बांध रखी है और जो लोग सियासत की भट्टी को धौंकते ही रहना चाहते हैं उनका क्या किया जा सकता है? 


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इसी विषय से संदर्भित मेरे पिछले लेख पर सोशल मीडिया के जरिए हजारों टिप्पणियां आईं. लेख को देश के कई प्रमुख अखबारों ने जगह दी. कुछ शीर्ष न्यूज पोर्टलों ने इसे चलाया. सोशल मीडिया में शेयरिंग और वायरल के जरिये वह लेख लाखों-लाख पाठकों तक पहुंचा. 90 फीसदी टिप्पणियों में लोग मेरे साथ देश के लिए चिंतातुर दिखे. शेष 10 प्रतिशत की जो टिप्पणियां आईं, उनमें कुतर्क, खीझ और गाली-गलौज भरा अंदाज रहा. बहरहाल लोकतंत्र की उदात्तता भी इसी में है कि जो हमसे सहमत नहीं है वह भी अपने विचार रखने के लिए अपने देश में स्वतंत्र ही नहीं, स्वच्छंद भी है. यद्यपि इसी स्वच्छंदता के मूल में बीमारी की जड़ भी है, क्योंकि हम तथ्यों-तर्कों पर विचार करने की बजाय अपनी ही बजाने में उतारू रहते हैं.


एक नामचीन बुद्धिजीवी ने तर्क दिया कि जाटों के आंदोलन में तो जाटों ने महिलाओं की इज्जत लूटी थी, इस आंदोलन में दलितों ने कहीं किसी की इज्ज़त नहीं खराब की, कहीं ऐसा हुआ हो तो बताएं. दूसरे नामचीन बुद्धिजीवी ने मेरे लेख की काट में एक लेख ही लिख मारा कि हिंसा आंदोलनकारियों ने नहीं की वरन् आंदोलनकारियों को ही हिंसात्मक वारदातों का सामना करना पड़ा. एक महानुभाव ने लिखा कि आपकी कलम मनुवाद की चासनी से लिपटी है, वैसे आपका नाम ही मनुवाद का द्योतक है. एक सज्जन ने पता नहीं कहां से मेरे लेख में संघ का दृष्टिकोण निकाल लिया और मेरे जैसे अदने से लेखक को ही समाज का विभाजनकारी बता दिया. बहरहाल ऐसी प्रतिक्रियाएं 90 में 10 ही रहीं और मीडिया के इस स्वच्छंदी दौर में यह स्वाभाविक भी है. 


गंभीर चिंता जजों और न्यायपालिका की साख पर हुई टिप्पणियों को लेकर है. यद्यपि एक्ट को लेकर यह व्याख्या जस्टिस एके गोयल, जस्टिस यूयू ललित की बेंच ने की, लेकिन प्रतिक्रिया में एक-दो बड़े लेखकों ने यह संकेत किया कि ऐसा फैसला सीजेआई दीपक मिश्रा के इशारे पर किया गया है. यह बात भी खोज निकाली गई कि जस्टिस ललित अमित शाह के वकील रहे हैं, इसलिये यह उनसे प्रेरित हो सकते हैं. जस्टिस गोयल का कुछ नहीं ढूंढ पाए तो उन्हें सवर्णों का हितकारी बता दिया. कुल-मिलाकर ऐसी तस्वीर रेखांकित करने की कोशिश की जा रही है कि मोदी सरकार के इशारे पर सर्वोच्च न्यायालय फैसले ले रहा है. न तो ये आंदोलन स्वप्रेरित व एक दिन की तैयारी का है और न ही न्यायपालिका की साख को खंडित करने का ये कुत्सित अभियान. इसकी पटकथा अर्से से लिखी जा रही है. 


शुरुआत मीडिया के सामने आकर जजों की बगावत के साथ शुरू हुई. उन जजों की राजनीतिक व वैचारिक पृष्ठिभूमि क्या है यह खुलकर सामने आ चुकी है. इसके बाद निशाने पर आए जस्टिस दीपक मिश्र जिनके खिलाफ कतिपय राजनीतिक दल महाभियोग लाने का अभियान चला रहे हैं. इनकी नजर में दीपक मिश्रा क्‍यूं खटक रहे हैं यह भी जान लीजिए. नामी वकील और पूर्व केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल ने राममंदिर प्रकरण में एक हस्तक्षेप याचिका दायर की थी कि इस मामले की सुनवाई 2019 के लोकसभा चुनाव तक स्थगित रखी जाए. सीधा सा मतलब है कि इन लोगों को न्यायपालिका पर अविश्वास है और वे इसे संदिग्ध बनाना चाहते हैं. फैसला अभी भविष्य के गर्भ में है और वह किसी के पक्ष विपक्ष में आ सकता है, इतना धैर्य तो रखना ही चाहिए था.3


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बहरहाल, सीजेआई के खिलाफ महाभियोग अभियान के बीच ही एससी/एसटी एक्ट से जुड़ी रूलिंग आ गई तो एक तीर से दो निशाने साधने की रणनीति पर काम शुरू हो गया. इस फैसले के खिलाफ चुनिंदा पार्टियों का ही डेलीगेशन सबसे पहले सक्रिय हुआ. दलित राजनीति के तंदूर में रोटी सेंकने की ख्वाहिश रखने वाले बौद्धिक खेमेबाज भी सक्रिय हो गए और मामला यहां तक पहुंच गया. सही मायने में यह एक सही फैसले की गलत व्याख्या का निकृष्टतम उदाहरण है. जजों ने साफ शब्दों में कहा है कि उन्होंने एससी/एसटी एक्ट पर नहीं, बल्कि सीआरपीसी पर प्रक्रियात्मक व्याख्या दी है.


अब आगे की मुश्किल क्या है यह भी समझना होगा. यदि केंद्र सरकार अपने वोट खिसकने के भय से सुप्रीम कोर्ट की रूलिंग के समानांतर शाहबानो केस जैसा दृष्टांत पेश करती है तो लोकतंत्र में इससे ज्यादा अनर्थकारी कुछ भी नहीं होगा. आप कल्पना कर सकते हैं कि जब अदालत में बैठा कोई अजा या अजजा वर्ग का जज किसी सवर्ण के खिलाफ फैसला सुनाए और वह आरोपी खुलेआम उस फैसले को यह कहता हुआ नकार देगा कि यह जातीय वैमनस्य के तहत दिया गया फैसला है. उस अभियुक्त के समर्थन में सजातीय संगठन सड़कों पर उतर आएंगे और वोटीय लोभवश राजनीतिक दल पीछे से धौकनी चलाने लगेंगे तो क्या होगा?


कोई पुलिस अफसर किसी अभियुक्त को गिरफ्तार करने जाए और संगीन जुर्मों का वो आरोपी जातीय आधार पर यह मुकदमा दर्ज करा दे कि उसे जातिसूचक गाली दी गई है, तो फिर कानून (जैसा का ये लोग ख्वाहिश रखते हैं) के हिसाब से पहले उस पुलिस अफसर को ही गिरफ्तार करना पड़ेगा जो मुजरिम पकड़ने गया था. यही सब दफ्तरों में शुरू हो जाएगा और ऐसी अराजकता मचेगी जो गृहयुद्ध की ओर ले जाएगी. यह भरोसे की बात है कि सर्वोच्च न्यायालय के दोनों जज अपने फैसले को लेकर दृढ़ हैं. स्थगन देने से इंकार कर दिया और प्रक्रिया के तहत पुनर्विचार याचिका की सुनवाई की बात की है. पर मुझे नहीं लगता कि तब तक ये स्वार्थी राजनीतिक पिस्सू चुपचाप बैठे रहेंगे. 


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इसी 10 अप्रैल को सामान्य व पिछड़ा वर्ग की ओर से जवाबी भारत बंद का आह्वान किया गया है. इसी के आसपास आंबेडकर जयंती और परशुराम जयंती है. जातियों ने इन दोनों महापुरुषों को अपना आयकन बना रखा है. तवा गर्म है और तंदूर धधक रहा है. इन स्थितियों से दृढ़ता से निपटना होगा. मैं 10 अप्रैल के जवाबी बंद के खिलाफ हूं. एक गलती का जवाब दूसरी बड़ी गलती से नहीं दिया जाना चाहिए. समर्थ बहुसंख्यकों की जातीय या सांप्रदायिक गोलबंदी और भी खतरनाक है. यह टकराव हरहाल में टलना चाहिए. मुश्किल ये है कि आज देश में ऐसा कोई विश्वसनीय चेहरा नहीं, जिसकी समझाइश का असर पड़े. काश अटल बिहारी वाजपेयी भौतिक रूप से इतने असहाय न होते. 


फिर भी एक तरीका है- देश के हर वर्ग और हर विधा के श्रेष्ठ और सम्मानीय लोगों की एक कमेटी बने. वैसी ही जैसे पूनापैक्ट के समय गांधी ने आंबेडकर, एमसी राजा और मदनमोहन मालवीय की समिति बनाई थी. ये पहल सिविल सोसायटी की ओर से होनी चाहिए जो रक्तरंजित जातीय-वर्गीय टकराव को टाले और देश की समरसता को स्वाहा करने की आहुति लिए बैठे स्वयंभुओं को जवाब दे. 


(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और टिप्पणीकार हैं)


(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)