दक्षिण भारत की एक छोटी सी पार्टी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इतेहदुल मुसलिमीन के प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी ने हैदराबाद से इस बात का ऐलान किया है कि उनकी पार्टी बिहार के सीमांचल इलाके से विधानसभा चुनाव में अपने उम्मीदवार उतारेगी। ओवैसी की इस घोषणा के बाद पटना और दिल्ली में सियासी पारा खासा चढ़ गया है। भारतीय राजनीति में बहुत सतही भूमिका निभाने वाले असदुद्दीन ओवैसी के बारे में कहा जाता है कि वह हर जगह खेल बिगाड़ने के लिए चुनावी मैदान में अपने प्रत्याशी उतारते हैं। 


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सबसे बड़ा सवाल यह कि असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी बिहार विधानसभा चुनाव में अपने उम्मीदवार क्यों उतार रही है। आज से पहले ओवैसी को सीमांचल के मुस्लिमों की बेहाली नजर नहीं आई थी तो आज अचानक से विधानसभा चुनाव का बिगुल बजते ही ऐसा क्या हो गया कि ओवैसी को सीमांचल की पीड़ा खटकने लगी। यह सवाल इतना सीधा नहीं जितना ओवैसी टीवी चैनलों पर घूम-घूम कर बघार रहे हैं। दरअसल बिहार चुनाव पूरी तरह से लालू के एम+वाई (मुस्लिम+यादव) समीकरण पर फोकस हो गई है। इस मजबूत गठजोड़ को तोड़ने के लिए भाजपा के रणनीतिकार हर तरह के तिकड़म भिड़ा रहे हैं। संभव है बिहार में ओवैसी की एंट्री भी इसी तिकड़मी सियासत का हिस्सा हो।


बिहार के चुनावी जंग में ओवैसी की एंट्री काफी अहम मानी जा रही है। जैसे देश की राजनीति में यह कहा जाता है कि दिल्ली की कुर्सी का रास्ता उत्तर प्रदेश और बिहार से होकर गुजरता है, ठीक उसी तरह बिहार में यह कहा जाता है कि सत्ता का रास्ता कोसी और सीमांचल से होकर गुजरता है। ओवैसी का कहना है कि उनकी पार्टी सीमांचल के चार जिलों में बिहार विधानसभा चुनाव के लिए अपने उम्मीदवार उतारेगी। कहने का मतलब यह कि सीमांचल के चार जिलों अररिया, किशनगंज, पूर्णिया और कटिहार को फोकस कर ओवैसी की पार्टी चुनाव लड़ेगी, जहां विधानसभा की कुल 24 सीटें हैं। 


जानकारों का मानना है कि ओवैसी के चुनावी मैदान में कूदने से पांचवे चरण में होने वाले इलाकों के कुल 57 सीटों पर उसका सीधा असर पडेगा, भले ही उनका फोकस चार जिलों की 24 सीटों पर ही क्यों न हो। अकेले इन चार जिलों में मुस्लिम मतदाताओं की आबादी करीब 50 प्रतिशत है और इसमें भी सबसे ज्यादा किशनगंज में 68 प्रतिशत मुस्लिम मतदाता हैं। दरअसल मुस्लिम वोट बैंक को लालू की राजनीति का आधार वोट माना जाता है। अगर ओवैसी के उम्मीदवार सीमांचल के इन चार जिलों में वोट काटने में सफल होते हैं, तो सबसे ज्यादा नुकसान लालू और नीतीश को ही होगा।


हालांकि 2010 के विधानसभा चुनाव में जब भाजपा और जेडीयू साथ थे तब इन इलाकों से सबसे ज्यादा सीटें एनडीए को ही मिली थी। 24 सीटों में से जेडीयू को 4, भाजपा को 13, लालू की आरजेडी को एक, पासवान की एलजेपी को दो, कांग्रेस को तीन और अन्य को एक सीट मिली थी। लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव में सीमांचल इलाके में भाजपा की बुरी तरह से हार हुई थी। इन आंकड़ों के मद्देनजर संभव है कि ओवैसी फैक्टर को ध्यान में रखकर भाजपा भी टिकट बंटवारे में उदारता दिखाते हुए मुस्लिमों को अधिक टिकट दे। इससे मुस्लिम वोटों को खंडित करने का काम और आसान हो जाएगा। 


इन तथ्यों को चुनावी विश्लेषण का एक हिस्सा जरूर मान सकते हैं लेकिन बिहार की राजनीति बिसात पर एक भी चाल इधर-उधर हुई तो भाजपा के सारे समीकरण ध्वस्त हो जाएंगे। जमीनी हकीकत यह भी है कि नरेंद्र मोदी बनाम नीतीश कुमार प्रकरण के बाद मुस्लिमों में नीतीश कुमार की लोकप्रियता का ग्राफ जबरदस्त तरीके से चढ़ा है। ऐसे में यह सवाल निश्चित रूप से उठता है कि क्या बिहार के मुस्लिम मतदाता ओवैसी की पार्टी को वोट देकर उसे बर्बाद करना चाहेंगे? 


मालूम हो कि ओवैसी ने जब पिछले साल महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में उतरने का फैसला लिया था तो कांग्रेस-एनसीपी गठजोड़ के माथे पर बल पड़ गये थे। कांग्रेस खेमे की ओर से तो यहां तक कहा गया था कि ओवैसी को भाजपा ही वोट काटने के लिए खड़ा कर रही है। कुछ इसी तरह की बात बिहार चुनाव के संदर्भ में महागठबंधन की ओर से मुस्लिम मतदाताओं के बीच जोर-शोर से दोहराई जा रही है। अगर यह बात सीमांचल के मुस्लिम मतदाताओं में घर कर गई तो ओवैसी की बिहार में एंट्री महज एक 'फ्लॉप शो' बनकर रह जाएगी।