NDA Seats Lok Sabha Election 2024: नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू के पलटने की यूं तो कई तारीखें हैं. इनके मोदी विरोध का इतिहास भी फिफ्टी-फिफ्टी का है. याद दिलाने के लिये हम पुराने पन्ने भी पलटेंगे. कुछ घटनाएं और राजनीतिक इतिहास के कुछ संदर्भ आपको बताते हैं.


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इससे आपको अंदाजा लगेगा कि क्यों नीतीश और नायडू पर राजनीति में अविश्वसनीयता की छाप लगती रहती है. चलताऊ शब्दों में कहें तो पिछले कुछ समय में क्यों इनके नाम के साथ 'पलटीमार' शब्द जोड़ा जाता है. क्यों आशंकाओं के बादल अभी से मंडरा रहे हैं कि प्रधानमंत्री मोदी के लिये अब कोई भी गारंटी पूरी करना कठिन होगा, क्योंकि नीतीश और नायडू की गारंटी नहीं है.


'तो नीतीश सबके हैं'


तो हम कुछ पुराने किस्सों की बात करेंगे. पिछले दिनों नीतीश लालू यादव को छोड़कर फिर NDA में लौटे थे तो पटना में एक होर्डिंग लगा था, जो हर अखबार और चैनल की कैचलाइन पर भारी था. इस पर लिखा था- 'नीतीश सबके हैं'. इन 3 शब्दों में नीतीश राजनीति का पूरा सार था.


मंगलवार को नतीजे आने के बाद से खबरें थीं कि INDIA ब्लॉक नीतीश पर डोरे डाल रहा है. आज नीतीश जिस फ्लाइट से दिल्ली आए, उसी से तेजस्वी भी आए। तेजस्वी की सीट नीतीश के ठीक पीछे रखी गई थी, ताकि न बात हो, ना बातें बनें.


जेडीयू ने पूरा प्री-कॉशन लिया. लेकिन फिर भी दोनों के बीच बात हो ही गई. तेजस्वी अपनी सीट छोड़कर नीतीश के बाजू बैठ गए थे. हालांकि ये पता नहीं चला कि ऐसी क्या बात करने के लिये बैठे थे.


नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू में पहली चीज जो कॉमन है, वो ये है कि दोनों अभी मोदी के साथ हैं, और किसी वक्त ये दोनों ही मोदी के खिलाफ थे. अतीत में इन दोनों ने मोदी के विरोध में...मोदी को कारण बताते हुए ही NDA छोड़ा था.


नीतीश का 'पलटीमार' करियर


  • नीतीश 2004 तक वाजपेयी सरकार में मंत्री थे. सत्ता नहीं रही तब भी NDA में थे. 2009 में दूसरी बार UPA सरकार बनी, तब भी नीतीश NDA में रहे, बल्कि उनकी 20 सीटें बीजेपी के लिये बड़ी मददगार थीं.

  • नीतीश ने NDA तब छोड़ा जब 2014 में बीजेपी ने नरेन्द्र मोदी को PM प्रोजेक्ट किया. अकेले लड़े तो बिहार में सिर्फ़ 2 सीटें मिलीं. 

  • 2015 में उन्होंने लालू से हाथ मिलाकर बिहार में सरकार बनाई. लेकिन 2 साल में अलग होकर फिर NDA में आ गये.

  • 2019 के चुनाव में NDA ने बिहार की 40 में से 39 लोकसभा सीटें जीतीं. 2020 में राज्य में फिर सरकार बनाई. दो साल में रिश्ते फिर बिगड़ गए और 2022 में नीतीश फिर RJD के साथ चले गए और 24 के चुनाव से थोड़ा पहले एक बार फिर NDA में लौट आए, फिर मोदी के हो गए.


बगावत से सीएम की कुर्सी तक


  • चंद्रबाबू नायडू का राजनीतिक उत्थान ही बगावत से हुआ था, वो भी घर के अंदर. नायडू ने 1995 में आंध्र प्रदेश में TDP के भीतर अपने ससुर NTR के खिलाफ़ बगावत खड़ी की थी. इसमें सफल भी रहे, और NTR की कुर्सी पलटकर खुद CM बन गए थे.

  • चंद्रबाबू नायडू ने 1996 से 1998 तक संयुक्त मोर्चे का नेतृत्व करके देवगौड़ा और गुजराल सरकार को सहारा दिया.

  • 1999 में यू-टर्न लेकर BJP के साथ आ गए. केंद्र में वाजपेयी सरकार बनी तो उसमें चंद्रबाबू नायडू की 29 सीटों की ताकत भी थी. हालांकि सबसे बड़ी पार्टी होकर भी TDP वाजपेयी सरकार में शामिल नहीं हुई, लेकिन बतौर NDA संयोजक नायडू पूरे 5 साल साथ रहे.

  •  2004 में NDA जब हारा तो नायडू ने BJP पर ही हार का ठीकरा ज़रूर फोड़ा, मगर साथ नहीं छोड़ा. 2014 में भी TDP ने BJP के साथ चुनाव लड़ा. मोदी सरकार में शामिल भी हुई.

  • लेकिन 2018 में आंध्र विधानसभा चुनाव से ठीक पहले विशेष राज्य के दर्जे की मांग पर NDA का साथ छोड़ दिया. इसके बाद 24 के इन चुनावों से पहले नायडू फिर NDA में आ गए.


नीतीश और नायडू में दूसरी कॉमन चीज़ जो आज के संदर्भ में जानना बहुत दिलचस्प है कि दोनों इस वक्त प्रधानमंत्री मोदी के साथ हैं, लेकिन कुछ समय पहले तक दोनों मोदी को हटाने की कोशिशों में ना सिर्फ़ जी-जान से लगे थे, बल्कि उसके मुख्य सूत्रधार थे.


नीतीश-नायडू में एक ही चीज कॉमन


2019 में चंद्रबाबू नायडू ने भरपूर कोशिशें की कि नरेंद्र मोदी को सत्ता से हटाने के लिये 90 के दशक जैसा विपक्षी मोर्चा बना सकें. उन्होंने हैदराबाद से दिल्ली खूब दौड़ लगाई. लेकिन दर्जनों बैठकें करके भी नाकाम रहे, और वही चंद्रबाबू आज मोदी 3.0 की गारंटी पक्की कर रहे थे.


नायडू जैसी ही कोशिश 2024 में नीतीश ने की थी. आज BJP को बहुमत से रोकने वाला इंडिया अलायंस नीतीश की ही देन है. नीतीश ने ही लॉबिंग शुरू की थी. उन्हीं की दौड़-धूप से इंडिया अलायंस बना. वही इसके सूत्रधार थे. लेकिन चुनाव से पहले अपना ही बनाया गठबंधन छोड़कर NDA में आ गए और आज मोदी 3.0 की नींव पक्की कर रहे थे.


जिसे सामान्य भाषा में कोई आम व्यक्ति पलटना या ज़ुबान का पक्का ना होना कहता है, उसे ही राजनेता अपनी राजनीतिक भाषा में समय के साथ चलना और जनादेश का सम्मान करना कहते हैं. अपनी-अपनी भाषा और अपनी अपनी परिभाषाएं हैं.