Bharat Ek Khoj: आदिपुरुष (Adipurush) फिल्म और उसके डायलॉग आजकल काफी चर्चा में हैं. बड़ी संख्या में दर्शकों ने आरोप लगाया है कि आदिपुरुष में जो डायलॉग हैं उनमें मर्यादा का ध्यान नहीं रखा गया है. हर कैरेक्टर की एक गरिमा है मनोज मुंतशिर को आदिपुरुष के डायलॉग लिखते वक्त इन बातों का ध्यान रखना चाहिए था. प्रसार भारती आर्काइव्स नामक यूट्यूब चैनल ने भारत एक खोज सीरियल का मृत्यु शैय्या पर लेटे रावण का राम और लक्ष्मण से संवाद नामक एपिसोड अपलोड किया था. उसे देखकर पता चला है कि युद्ध के बाद भी जब राम-लक्ष्मण की मुलाकात रावण (Ravana) से हुई तो वे कितनी शालीनता से मिले और संवाद किया. आइए जानते हैं कि उस वक्त तीनों के बीच क्या संवाद हुआ था?


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लक्ष्मण- मुझे आपके पास श्रीराम ने परामर्श और दर्शन प्राप्त करने के लिए भेजा है. राजन मुझे उत्तर दें.


इस पर रावण कुछ नहीं बोलता है और लक्ष्मण की तरफ एक बार देखकर मुंह फेर लेता है. इसके बाद लक्ष्मण वापस श्रीराम के पास जाते हैं.


लक्ष्मण- कोई लाभ नहीं है भैया! वो तो मेरी बात ही नहीं सुनता है.


श्रीराम- तुमने उनसे आदरपूर्वक बात तो की ना?


लक्ष्मण- जी हां, मैंने बिल्कुल वैसा ही किया है.


श्रीराम- जब तुम उसने बात कर रहे थे तो कहां खड़े थे?


लक्ष्मण- उसके बगल में, सिर के पास ताकि वो मेरी बात सुन सके.


श्रीराम- यही तो भूल हुई लक्ष्मण, तुम्हे उनके पैरों के पास खड़ा होना चाहिए था. वैसे ही जैसे एक शिष्य गुरु के पास खड़ा होता है.


लक्ष्मण- परंतु भैया! वो मेरा गुरु नहीं है.


श्रीराम- लक्ष्मण! ज्ञान का तिरस्कार मत करो. ज्ञान हमेशा पवित्र होता है. चलो हम दोनों उनके पास चलते हैं.


इसके बाद राम और लक्ष्मण दोनों रावण के समीप जाते हैं और तब श्रीराम कहते हैं महाराज! तब रावण बोलता है.


रावण- मैं भला आपको क्या मार्गदर्शन दे सकता हूं. मेरी बुद्धि तो स्वयं भ्रम और अंधकार में डूबी है. उचित और अनुचित के बीच का भेद जानने में असमर्थ है. हे रघुकुल स्वामी! मैं भला आपको क्या शिक्षा दे सकता हूं.


श्रीराम- महाराज! आप मुझसे बड़े हैं और अनुभवी भी हैं. एक समर्थ शासक रहे हैं आप. मुझे उचित-अनुचित और शासन करने के संबंध में आपके विचार जानने चाहिए.


रावण- हे राम! मेरे जीवन का अंत अब निकट है. कुछ भी कह पाना कठिन है. फिर भी थोड़ा बहुत जो कहता हूं उसे सुनें. हे रघुराज! कोई भी कार्य जो दया, प्रेम और परोपकार की भावना से किया जाता है वह निश्चित ही अच्छा होता है. किंतु सद्कर्मों को हम सदैव स्थगित करते रहते हैं. अगर आप कोई सद्कर्म करना चाहते हैं तो उसमें देरी ना करें. तुरंत कर डालें. नहीं तो उसे बाद में पूरा करने में कठिनाई होती है. किसी अच्छे काम को टाल दोगे तो वह कभी पूरा नहीं होगा.


श्रीराम- उचित कहा.


रावण- हां, दुष्कर्मों के बारे में मैं आपको बहुत सी बातें बता सकता हूं. मैंने जीवन में दुष्कर्म ही तो किए हैं. देखो आज मेरे सभी पुत्र-पौत्र मारे जा चुके हैं. क्रोध, घमंड, घृणा इन्हीं से दुष्कर्मों का जन्म होता है. किसी क्षण के आवेश में आकर हम दुष्कर्म करने के लिए उतावले हो जाते हैं. जब शूपनखा रोती-बिलखती, चिल्लाती हुई मेरे पास आई तो सबसे पहले मेरे मन यही विचार उठा कि सीता का हरण करके इस अपमान का बदला लूं. थोड़ा भी नहीं रुका, तनिक भी नहीं सोचा. जबकि जितनी शीघ्रता से हो सका, इस कार्य को पूरा कर डाला. हे रघुवंशियों के स्वामी जैसा कि दुष्कर्म की प्रवृत्ति होती है कि वो चिल्ला-चिल्लाकर अपने पूरे होने की मांग करते हैं. किंतु बुद्धिमान व्यक्ति वो होता है जो क्रोध, घृणा और घमंड से प्रेरित होकर कार्य करने से खुद को रोकता है. उचित-अनुचित के बारे में मेरा यही ज्ञान है. हे राम! इस ज्ञान का तुम सदुपयोग करना और मेरे अपराधों को क्षमा करना.