Scheduled Caste Reservation:  भारतीय राजनीति में आरक्षण मधुमक्खी के उस छत्ते की तरह है जिसे कोई छेड़ना नहीं चाहता है. लेकिन एक सच यह भी है कि सियासी फसल काटने के लिए राजनीतिक दल अपनी तरकश से समय समय इस औजार को निकाल कर इस्तेमाल करते हैं. जातीय जनगणना की रिपोर्ट के बाद एक बार सियासत गरम है. इन सबके बीच पीएम नरेंद्र मोदी ने तेलंगाना में चुनाव प्रचार के दौरान मडिगा समाज का जिक्र किया था. उन्होंने कहा था कि तेलंगाना का अनुसूचित जाति का यह वर्ग पिछड़ा हुआ है. एससी समाज के लिए आरक्षण की व्यवस्था तो है लेकिन इसका फायदा मडिगा आबादी को नहीं मिल रहा है. ऐसे में हमें इस समाज के बारे में सोचना होगा. जाहिर है कि जब वो इस समाज का जिक्र कर रहे थे तो इशारा एससी समाज को हासिल आरक्षण पर था. इन सबके बीच यहां पर हम जिक्र करेंगे तेलंगाना के मडिगा समाज की. जिसका पीएम नरेंद्र मोदी ने अपनी चुनावी सभा में जिक्र किया था. यहां हम बताने की कोशिश करेंगे कि तेलंगाना में मडिगा समाज को अनूसूचित जाति में ही आरक्षण देने की वकालत क्यों की जा रही है. इससे पहले आरक्षण में आरक्षण की व्यवस्था को समझने की जरूरत है.


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कोटे में कोटे की बात क्यों


जैसा कि हम सब जानते हैं कि आरक्षण की सीमा 50 फीसद से अधिक नहीं हो सकती. इसका अर्थ यह है कि अभी जो आरक्षण की मौजूदा व्यवस्था है उसी में समाज के उन वर्गों को लाभ मिले जो अब तक अछूते रहे हैं. आमतौर पर यह देखा गया है कि आरक्षण का लाभ भी उन्हीं जातियों को मिला है जो पहले से कुछ संपन्न थीं. आरक्षण का फायदा उन जातियों को नहीं मिल सका जो सामाजिक और आर्थिक तौर पर पिछड़ी हैं.  यहां एक बात पर और ध्यान देने की जरूरत है कि ओबीसी के उलट एससी और एसटी समाज में क्रीमीलेयर की व्यवस्था नहीं है.


तेलंगाना में मडिगा आबादी


यहां पर खासतौर से जिक्र करेंगे तेलंगाना की. तेलंगाना में अनुसूचित समाज की संख्या करीब 17 फीसद है. इस 17 फीसद जनसंख्या में करीब 50 फीसद का संबंध मडिगा का है. यह बात अलग है कि एससी समाज में आरक्षण का सबसे अधिक लाभ माला समाज को मिला है. आरक्षण पर माला समाज के एकाधिकार के खिलाफ मडिगा पहले से ही आवाज उठाते रहे हैं. अगर इसे बिहार और उत्तर प्रदेश के संदर्भ में देखें तो पासवान और जाटव समाज प्रभावी जातियां हैं. अब सवाल यह है कि एससी में कोटा विदिन कोटा के रास्ते में चुनौती क्या है. दरअसल इसके लिए केंद्र सरकार को अनुच्छेद 341 में संशोधन करना होगा. सूत्रों के मुताबिक एक रास्ता है कि सरकार कानून के सहारे इसे लागू करे. इसके लिए सरकार को सुप्रीम कोर्ट की बड़ी पीठ के गठन होने का इंतजार करना होगा. लिहाजा इस बात की मांग हो रही है कि सरकार अनुच्छेद 341 में ही संशोधन कर दे.


अब कानूनी रास्ते में क्या अड़चन है. इसके लिए करीब 2 दशक पीछे चलना होगा. 2004 में आंध्र प्रदेश सरकार ने एससी समाज में कोटे में कोटे के लिए कानून बनाया, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया. 2020 में सुप्रीम कोर्ट ने पांच जजों की बड़ी संवैधानिक पीठ ने कहा कि राज्य को इस विषय में कानून बनाने का अधिकार है. हालांकि यह अच्छा होगा कि इस विषय को सात जजों या उससे बड़ी बेंच में इस मामले को भेज दिया जाए. 1994 में हरियाणा, 2006 में पंजाब और 2008 में तमिलनाडु ने भी इस विषय में कानून बनाने की बात कहीं हालांकि ये सभी राज्य सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का इंतजार कर रहे हैं. इस मामले में कर्नाटक पूर्व की बीजेपी सरकार ने फरवरी 2023 में कोटे में कोटे का प्रस्ताव लाया था. 2006-07 में केंद्र सरकार ने आंध्र प्रदेश सरकार के प्रस्ताव पर गहराई से चर्चा के लिए नेशनल कमीशन का गठन किया था. लेकिन राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग ने कमीशन की रिपोर्ट को खारिज कर दिया था.


क्या है रोहिणी आयोग
रोहिणी आयोग का गठन 2 अक्टूबर 2017 को किया गया था. इसे पिछड़े वर्ग में उपवर्गीकरण की जिम्मेदारी दी गई थी. दिल्ली हाईकोर्ट की रिटायर्ड चीफ जस्टिस जी रोहिणी की अध्यक्षता में आयोग का गठन किया गया. 6 साल बाद 2023 में इस आयोग ने रिपोर्ट पेश की थी, इस आयोग का मकसद था कि ओबीसी कैटेगरी में शामिल करीब 3 हजार जातियों को उपवर्गीकृत किया जाए. करीब 14 विस्तार के बाद आयोग ने रिपोर्ट पेश की. इसमें कहा गया कि मौजूदा 27 फीसद आरक्षण को समान रूप से विभाजित किया जाए.


क्या था तर्क
तर्क यह था कि ओबीसी को 27 फीसद आरक्षण दिया गया है. लेकिन आरक्षण का लाभ इनमें भी सिर्फ ताकतवर जातियों को ही मिलता है. लिहाजा ऐसी व्यवस्था बननी चाहिए जिसमें ओबीसी के उन जातियों को भी फायदा मिले जो सामाजिक और आर्थिक तौर पर पिछड़ी हैं. हालांकि इसका विरोध भी होता है. खासतौर से पिछड़े वर्ग की संपन्न जातियों का कहना है कि मोदी सरकार फूट डालो और राज करने की नीति के जरिए पिछड़े समाज को बांटने की कोशिश कर रही है.