The Thrilling Battle Against Stroke: मौजूदा वक्त में स्ट्रोक इंडिया की मेजर हेल्थ प्रॉब्लम बन चुकी है, जिसकी वजह से कई लोगों की जिंदगी या तो मुश्किल में पड़ जाती है, या फिर खत्म हो जाती है. कल्पना करें कि ह्यूमन ब्रेन हर मिनट 20 लाख न्यूरॉन्स लूज करा है. इस फ्लीटिंग विंडो को 'गोल्डन ऑवर' कहा जाता है, जब जिंदगी मुश्किलों में फंस जाती है.


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अवेरनेस की कमी से जाती है जान


सीनियर न्यूरोरेडियोलॉजिस्ट डॉ. शरथ कुमार जी जी (Dr. Sharath Kumar G G) का मानना है, "वक्त के खिलाफ दौड़ शुरू होती है, जहां सही फैसले और एक्शंस का मतलब फुल रिकवरी और अहम नतीजों के बीच अंतर हो सकता है. फिर भी कई लोगों के लिए, सबसे बड़ी परेशानी स्ट्रोक नहीं, बल्कि जागरूकता की कमी है. स्ट्रोक मैनेजमेंट तेजी से तरक्की कर रहा है, लेकिन क्या हम जिंदगी को बचाने के लिए वो सबकुछ कर रहे हैं, जिसकी जरूरत है? सिर्फ ये बीमारी ही अक्सर इंसानों की जान नहीं लेती है, बल्कि अवेरनेस को लेकर साइलेंस भी खतरनाक है."



हॉस्पिटल से कैसे मिलेगी मदद?


गोल्डन ऑवर: डॉ. शरथ ने बताया कि स्ट्रोक आने के बाद के पहले 6 घंटे ये निर्धारित करते हैं कि पीड़ित ठीक हो सकता है या उसे जिंदगीभर डिसेबिलिटी का सामना करना पड़ सकता है. जितनी जल्दी कोई मरीज स्ट्रोक-रेडी हॉस्पिटल (Stroke-Ready Hospitals) तक पहुंचता है, उसके बचने और ठीक होने की उम्मीदें उतनी ही ज्यादा बढ़ जाती है. लेकिन असली खतरा अक्सर जागरूकता की कमी में होती है। स्ट्रोक 'रेस अगेंस्ट टाइम' है, और कई मरीज लड़ाई शुरू होने से पहले ही हार जाते हैं क्योंकि वो जल्दी से मदद नहीं मांगते.


स्ट्रोक का इलाज


स्ट्रोक-रेडी हॉस्पिटल्स, जिन्हें कंप्रिहेंसिव स्ट्रोक सेंटर्स (Comprehensive Stroke Centers) के तौर पर भी जाना जाता है, यहां चौबीसों घंटे और सातों दिन लाइफ एंड डेथ कंडीशन को संभालने की फैसिलिटी होती है. अस्पताल न्यूरोलॉजिस्ट, न्यूरोइंटरवेंशनिस्ट, न्यूरोसर्जन और क्रिटिकल केयर यूनिट की टीमों के साथ-साथ सीटी और एमआरआई स्कैन जैसी एडवांस इमेजिंग तक की चौबीसों घंटे सुविधा देते हैं. हालांकि, असली चैलेंज स्ट्रोक के शुरुआती लक्षणों को पहचानना है - जैसे कि बोलने में परेशानी, चेहरे की मांसपेशियों का ढीला होना और शरीर के एक हिस्से में कमजोरी वगैरह, हमें तुरंत एक्शन लेना चाहिए,  इससे पहले कि बहुत देर हो जाए.


भारत में स्ट्रोक का छिपा हुआ संकट


भारत में हर 4 मिनट में एक इंसान स्ट्रोक से अपनी जान गंवाता है, जबकि हर 20 सेकंड में एक नया शख्स स्ट्रोक से पीड़ित होता है. स्ट्रोक डिसेबिलिटी का बड़ा कारण है और देश में मौत की तीसरी सबसे आम वजह है. हर साल 2 मिलियन से ज्यादा लोग स्ट्रोक का सामना करते हैं और पांच में से एक व्यक्ति को अपने जीवनकाल में स्ट्रोक हो जाता है. इनमें से 70% इस्केमिक स्ट्रोक होते हैं - जो धमनियों में थक्के जमने के कारण होते हैं. फिर भी ट्रीटमेंट में तरक्की के बावजूद, 99% मरीज वक्त पर अस्पताल नहीं पहुंच पाते. इसकी वजह है, जागरूकता की कमी, मेडिकल इंफ्रास्ट्रक्टक का सही न होना, सोशल मिस्कॉन्सेप्शन. कई लोग तो ये मानते हैं कि स्ट्रोक का इलाज नहीं हो सकता.


छोटे स्ट्रोक के लिए, आईवी थ्रोम्बोलिसिस जो क्लॉट डिजॉल्विंग दवा के जरिए मैनेज किया जाता, अगर इसे स्ट्रोक आने के साढ़े चार घंटे के भीतर दिया जाए तो पेशेंट की जिंदगी बच सकती है. ब्लॉक्ड आर्टरीज के कारण होने वाले सीवियर या ज्यादा गंभीर स्ट्रोक के लिए, मैकेनिकल थ्रोम्बेक्टोमी एक गेम-चेंजिंग ट्रीटमेंट है. इस प्रोसीजर में ब्लड वेसेल्स के जरिए एक कैथेटर को थ्रेड करना शामिल है ताकि थक्के को फिजिकली हटाया जा सके, जिससे ब्रेन में ब्लड फ्लो को रिस्टोर किया जा सके. हालांकि, दोनों तरह के इलाज टाइम सेंसिटिव हैं, जो तेजी से रैपिड मेडिकल रिस्पॉन्स की जरूरतों पर जोर देते हैं.


जानकारी ही बचाव है


मेडिकल फील्ड में तरक्की के बावजूद आम जनता अभी भी काफी हद तक अनजान है. स्ट्रोक को रोका जा सकता है और इसका इलाज भी किया जा सकता है, लेकिन वक्त रहते कदम न उठाया जाए तो नतीजे जानलेवा हो सकते हैं. अवेरनेस एजुकेशन, रैपिड एक्शन इस साइलेंट किलर को हराने और जिंदगी बचाने में अहम कड़ी साबित हो सकता है. इस बात को याद रखें कि हर एक सेकेंड मायने रखता है.


 


(Disclaimer:प्रिय पाठक, हमारी यह खबर पढ़ने के लिए शुक्रिया. यह खबर आपको केवल जागरूक करने के मक़सद से लिखी गई है. हमने इसको लिखने में घरेलू नुस्खों और सामान्य जानकारियों की मदद ली है. आप कहीं भी कुछ भी अपनी सेहत से जुड़ा पढ़ें तो उसे अपनाने से पहले डॉक्टर की सलाह जरूर लें.)