टेस्ला और एक्स के मालिक एलन मस्क ने जानकारी दी कि उनके स्टार्टअप न्यूरालिंक एक ऐसी तकनीक विकसित की है, जो दिमाग और कंप्यूटर को जोड़ने का काम करती है. इस तकनीक के जरिए दिमाग में सीधे प्रोग्राम डालकर किसी भी बीमारी का इलाज किया जा सकता है. हालांकि, न्यूरालिंक अभी भी विकास के चरण में है और इसे बाजार में लाने में अभी कई साल लग सकते हैं.


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इस बीच, भारत के प्रतिष्ठित चिकित्सा संस्थान अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) ने एक ऐसी तकनीक विकसित की है जो न्यूरालिंक को टक्कर देने की क्षमता रखती है. एम्स के न्यूरोलॉजी विभाग के डॉक्टरों और मैकेनिकल इंजीनियरों के एक ग्रुप ने मिलकर एक वर्चुअल रियलिटी (वीआर) बॉक्स विकसित किया है, जो लकवे के मरीजों के इलाज में मदद कर सकता है. खेल पर आधारित इस टेक्नोलॉजी के जरिए लकवे के मरीजों या एक्सीडेंट जैसी वजहों से हाथ, पैर या शरीर के किसी अंग की शक्ति खो देने पर उसमें जान वापस लाई जा सकेगी.


कैसे होती है वीआर बॉक्स से एक्सरसाइज
शरीर का जो हिस्सा बेजान है उसमें जान वापस लाने के लिए अलग-अलग प्रोग्राम डिजाइन किए गए हैं. मरीज को इसे पहना दिया जाता है और वो किसी खेल की तरह काम करने लगता है. जैसे- किसी व्यक्ति के हाथों या कंधों में कमजोरी आ गई हो, उसे टेबल खिसकाने का काम देना. इस तकनीक में एक से दो घंटे के सेशन तैयार किए जाते हैं और कई मरीजों को हफ्तों से लेकर महीनों तक सेशन्स देकर उस अंग को वापस चालू करने का काम किया जा सकता है.


वीआर बॉक्स से मिलेगी काफी मदद
अभी तक ये काम न्यूरोलॉजिस्ट डॉक्टर और फिजियोथेरेपिस्ट करते हैं, लेकिन भारत में मरीजों की भीड़ और जरूरत के हिसाब से इतने एक्सपर्ट मौजूद नहीं हैं, जो घंटों तक मरीजों को ट्रेनिंग दे सकें. इसलिए कई बार एक सेशन की अप्वाइंटमेंट में ही महीनों लग सकते हैं. जबकि वीआर बॉक्स इस परेशानी का हल तो करेगा ही, साथ ही डॉक्टर वैज्ञानिक तरीके से मरीज के सेशन को रिकॉर्ड करके उसकी परफॉरमेंस को समझ सकेंगे.


किस बीमारी में वीआर बॉक्स वाली टेक्नोलॉजी से हो रही फिजियोथेरेपी
इस टेक्नीक से स्ट्रोक, स्पाइनल कॉर्ड इंजरी (रीढ़ की हड्डी में लगी चोट) दिमागी चोट, सेरेब्रल पॉल्सी, पार्किंसंस, डिमेंशिया और ऑटिज्म के इलाज के लिए प्रोग्राम तैयार किए गए हैं.


इस तकनीक पर एम्स की मोहर
एम्स के न्यूरोलॉजी डिपार्टमेंट के एक्सपर्ट्स के साथ फेलोशिप प्रोग्राम के तहत दो मैकेनिकल इंजीनियर हरिकृष्णन और रिषीकेश ने इस प्रोजेक्ट पर काम किया है और अलग अलग बीमारियों के हिसाब से प्रोग्राम डिजाइन किए हैं. एम्स में रिहैबिलिटेशन के लिए आने वाले मरीजों पर इस तकनीक का ट्रायल चल रहा है. इसके अलावा दिल्ली के 4 प्राइवेट सेंटर इस टेक्नोलॉजी को मरीजों पर इस्तेमाल कर रहे हैं.