BP, ECG, Heart Rate: भारत में आबादी के हिसाब से डॉक्टरों और नर्सिंग स्टाफ की भारी कमी है. इस समस्या का समाधान निकालने के लिए एक भारतीय इंजीनियर ने आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) की मदद से ऐसा इंतजाम किया है, जो मरीजों की जान बचाने में भी कारगर साबित हो रहा है. जरा सोचिए क्या हो अगर कोई मरीज अस्पताल के बेड पर लेटा हो, उसका ब्लड प्रेशर (BP) उपर नीचे हो रहा है. मॉनिटर पर आ रहे ईसीजी से पता चल रहा हो कि मरीज के दिल की धड़कनें काबू में नहीं हैं, लेकिन उसे चेक करने के लिए हर वक्त नर्स या डॉक्टर वहां मौजूद नहीं हो. ये एक ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति होगी, जिसका समाधान अब ढूंढ लिया गया है.


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नर्सिंग स्टाफ की कमी


देश के अधिकांश अस्पतालों में रात में जनरल वार्ड में कई मरीज होते हैं. लेकिन उनकी देखभाल के लिए पर्याप्त मात्रा में नर्सिंग स्टाफ या ड्यूटी डॉक्टर नहीं होते हैं. ऐसे में स्टाफ नर्स के लिए किसी एक मरीज का हर वक्त पूरा ध्यान रखना जैसे बीपी मॉनिटर करना, ECG करना और उसकी निगरानी में लगे रहना संभव नहीं है. सरकारी अस्पताल हो या प्राइवेट अस्पताल हर जगह पैरामैडिकल स्टाफ यानी कि नर्स, वॉर्ड ब्वाय, लैब टेक्नीशियन की भारी कमी है.


मिल गया समाधान   


लेकिन अब मरीज के वाइटल पैरामीटर्स जैसे कि उसका पल पल का ब्लड प्रेशर, पल्स रेट, ऑक्सीजन लेवल, टेंपरेचर, ईसीजी और हार्ट रेट जैसे सब कामों को एक मशीन के भरोसे छोड़ा जा सकता है. ये पूरा काम अब बस एक नई AI technique के जरिए किया जा सकता है.   


इसके लिए अस्पताल के बेड में एक सेंसर लगाना होगा. ये सेंसर मरीज के तमाम टेस्ट करता रहेगा. और उसका डाटा मरीज के पास रखे मॉनिटर में डिस्पले होता रहेगा. ये डाटा लगातार नर्सिंग स्टेशन पर मौजूद नर्स के सिस्टम में भी अपडेट होता रहेगा. इतना ही नहीं, किसी मरीज के लेवल अगर असामान्य हो रहे हैं जैसे उसका ब्लड प्रेशर जरुरत से ज्यादा उपर नीचे हो या फिर उसके इसीजी से हार्ट अटैक का खतरा सामने आ रहा हो तो ऐसे मरीज के डाटा के साथ वॉर्निंग अलर्ट भी आने लगेगा.  


डेमो-मशीन के साथ  


ब्लड प्रेशर, हार्ट रेट और और सांस की गति बेड के नीचे लगे सेंसर से पता चल सकती है जबकि ऑक्सीजन, ईसीजी और टेम्परपेचर के लिए मरीज को तीन डिवाइस लगाए जाते हैं लेकिन ये सभी वायरलेस डिवाइस हैं. अस्पताल में भर्ती मरीज को अगर चलना फिरना हो तो उसे बार बार तारें हटवाने के लिए किसी को बुलाना नहीं पड़ता.  


Dozee (डोज़ी) मशीन की टेक्नोलॉजी


इस सिस्टम को IIT गोरखपुर से पढ़े गौरव परचानी ने बनाया है. इंदौर के रहने वाले गौरव ने 2013 में IIT से इंजीनियरिंग की. जिसके बाद गौरव रेसिंग कारों की स्पीड और उससे जुड़ी मशीनों पर काम कर रहे थे. लेकिन वो कुछ ऐसा करना चाहते थे जिसका फायदा ज्यादा से ज्यादा लोगों को मिले. गौरव के मुताबिक हेल्थ टेक्नोलॉजी की मशीनों और रेसिंग कार की टेक्नोलॉजी में ज्यादा फर्क नहीं है.  


जिसके बाद कई सुधारों को करते करते इस Dozee (डोज़ी) मशीन की टेक्नोलॉजी ने जन्म लिया.


क्या कहते हैं आंकड़े?


एक अनुमान के मुताबिक देश में प्राइवेट और सरकारी अस्पतालों के पास कुल 20 लाख बेड्स हैं. इनमें से आईसीयू बेड्स की संख्या 1 लाख 25 हज़ार के लगभग है. केवल इन बेड्स पर मौजूद मरीजों के लिए एक मरीज पर एक नर्स की व्यवस्था संभव है. जबकि बाकी 18 लाख से ज्यादा बेड्स में कहीं 5 तो कहीं कहीं 20 मरीजों पर एक नर्स होती है. 


ऐसे में बहुत बार इन अस्पतालों में कई मरीज इसीलिए आईसीयू तक पहुंच जाते हैं क्योंकि उनकी बिगड़ती हालत पर अस्पताल में होने के बावजूद ध्यान नहीं दिया जा सका. लेकिन AI तकनीक के इस्तेमाल से कई मरीजों की हालत बिगड़ने से पहले उनके पैरामीटर्स पर ध्यान दिया जा सकता है और समय रहते इलाज किया जा सकता है.


कुछ सरकारी और कुछ प्राइवेट अस्पतालों तक पहुंची तकनीक


हाल ही में लॉन्च हुई ये टेक्नोलॉजी देश के कुछ सरकारी और कुछ प्राइवेट अस्पतालों तक पहुंच चुकी है. इस वक्त देश के 300 से ज्यादा अस्पतालों में तकरीबन 8 हज़ार बेड्स पर ये सिस्टम लगाया जा चुका है. 


लखनऊ के किंग जॉर्ज मेडिकल कालेज, चंडीगढ़ में पीजीआई समेत कई प्राइवेट अस्पतालों ने अपने अस्पतालों में बेड्स में सेंसर वाली ये व्यवस्था चालू की है. चेन्नई के अपोलो अस्पताल और लखनऊ के किंग जॉर्ज मेडिकल कॉलेज के डाटा के मुताबिक इस टेक्निक की मदद से वो 80 प्रतिशत मरीजों को समय रहते बचा पाए हैं. क्योंकि मशीन ने उन मरीजों की हालत बिगड़ने से 8 घंटे पहले ही शरीर में हो रहे बदलावों का संकेत पैरामीटर्स की रीडिंग की मदद से दे दिया.


एक बार बेड में सेंसर लगाने से वो 5 साल तक काम कर सकता है. पूरी तरह मेड इन इंडिया इस तकनीक को 15 से ज्यादा सर्टिफिकेट और 8 पेटेंट हासिल हैं.  हालांकि ये सिस्टम फिलहाल खर्चीला है.लेकिन सिस्टम बनाने वालों का दावा है कि इस टेक्नीक की मदद से हर साल नर्सों के काम के 10 हज़ार घंटे बचाए जा सकते हैं. नर्स और डॉक्टरों के समय के साथ साथ कई मरीजों की जान भी बचाई जा सकती है.