क्या Article 370 को टच भी नहीं किया जा सकता था? 16 दिन चली `सुप्रीम` सुनवाई की सबसे बड़ी दलीलें पढ़िए
Article 370 Par Faisla: जम्मू-कश्मीर के नेता आज बेचैन होंगे, आम लोग और पूरा भारत सुप्रीम कोर्ट से आज आने वाले बड़े फैसले का इंतजार कर रहा है. आर्टिकल 370 को समाप्त करने के फैसले के खिलाफ 18 याचिकाएं दाखिल हुई थीं, 16 दिन सुनवाई चली और सरकार ने अपने फैसले का बचाव किया. आज फैसले का दिन है. इससे पहले कुछ बड़ी दलीलें आपको पढ़नी चाहिए.
Supreme Court Article 370: जम्मू-कश्मीर में आज सुरक्षा काफी टाइट है. जम्मू-कश्मीर समेत पूरे देश की नजरें आज देश की सबसे बड़ी अदालत की ओर हैं. जी हां, सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पांच जजों की संविधान पीठ आर्टिकल 370 पर फैसला सुनाने वाली है. इससे पहले उमर अब्दुल्ला समेत कश्मीर के कई नेताओं के बयान आए हैं. उनका कहना है कि अगर शीर्ष अदालत से खिलाफ में फैसला आता है तो भी उनकी पार्टी जम्मू-कश्मीर में शांति भंग नहीं करेगी और अपनी कानूनी लड़ाई जारी रखेगी. दरअसल, अनुच्छेद 370 के प्रावधानों को समाप्त करने के केंद्र सरकार के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी और आज इन्हीं याचिकाओं पर फैसला आने वाला है. शीर्ष अदालत में कुल 16 दिन सुनवाई चली. 5 सितंबर को कोर्ट ने अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था. फैसले से पहले आइए जानते हैं अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणी, सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता और याचिकाकर्ताओं की तरफ से कपिल सिब्बल जैसे दिग्गज वकीलों ने क्या दलीलें रखीं. ऐसी 7 बातें जो फैसले से पहले आपको जाननी चाहिए.
1. याचिकाकर्ताओं की सबसे बड़ी दलील
अनुच्छेद 370 के प्रावधान को निरस्त नहीं किया जा सकता था क्योंकि जम्मू-कश्मीर संविधान सभा का कार्यकाल 1957 में पूर्ववर्ती राज्य के संविधान का मसौदा तैयार करने के बाद समाप्त हो गया था. इसकी सहमति इस तरह का कदम उठाने से पहले आवश्यक थी... याचिकाकर्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट में दलील रखी कि संविधान सभा नहीं होने से अनुच्छेद 370 को स्थायी दर्जा मिल गया. अनुच्छेद 370 को निरस्त करने को चुनौती देने वाले याचिकाकर्ताओं ने यह तर्क रखा कि विलय पत्र के तहत, भारत सरकार को केवल रक्षा, संचार और बाहरी मामलों को संभालने का अधिकार था। जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय बार एसोसिएशन की ओर से पेश वरिष्ठ वकील जफर शाह ने कहा कि संवैधानिक रूप से पूर्ववर्ती राज्य के लिए कोई कानून बनाने के लिए केंद्र सरकार या राष्ट्रपति के पास कोई शक्ति निहित नहीं है. शाह ने कहा कि जम्मू-कश्मीर के विपरीत, अन्य राज्यों के संबंध में कानून बनाने के लिए न तो परामर्श और न ही सहमति की आवश्यकता है. उन्होंने कहा, 'राज्य की संवैधानिक स्वायत्तता अनुच्छेद 370 में अंतर्निहित है.' याचिकाकर्ताओं ने बार-बार एक बात दोहराई कि सिर्फ जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा ही अनुच्छेद 370 को निरस्त करने की सिफारिश कर सकती थी, चूंकि 1957 में राज्य संविधान का मसौदा तैयार करने के बाद इसका अस्तित्व समाप्त हो गया, इसलिए इस प्रावधान ने स्थायी दर्जा हासिल कर लिया.
2. क्या 370 को छुआ नहीं जा सकता था?
सुप्रीम कोर्ट ने माना कि इस बात के मूलभूत साक्ष्य हैं कि अनुच्छेद 370 का ‘स्वयं को सीमित करने वाला स्वरूप’ है और ऐसा लगता है कि 1957 में जम्मू कश्मीर संविधान सभा का कार्यकाल समाप्त होने के बाद यह अपने आप प्रभावी हो गया. पीठ ने कहा, ‘जम्मू कश्मीर के संविधान ने भारत संघ के साथ अपने संबंध की रूपरेखा तय की, जब तक कि वह संबंध भारतीय संविधान में शामिल नहीं किया गया, यह 1957 के बाद लगातार वर्षों तक भारत या संसद के प्रभुत्व को कैसे जोड़ेगा?’ पीठ ने याचिकाकर्ता शोएब कुरैशी की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता गोपाल शंकरनारायणन से ये सवाल पूछे. चीफ जस्टिस ने कहा कि अनुच्छेद 370 के दो अंतिम बिंदु हैं - पहला, खंड दो में कहा गया है कि संविधान सभा के अस्तित्व से पहले लिए गए सभी निर्णय इसकी मंजूरी के लिए रखे जाएंगे. दूसरा, खंड तीन के प्रावधान में कहा गया था कि राष्ट्रपति यह घोषणा करते हुए एक अधिसूचना जारी कर सकते हैं कि अनुच्छेद 370 अस्तित्व में नहीं रहेगा या केवल जम्मू कश्मीर की संविधान सभा की सिफारिश पर अपवादों और संशोधनों के साथ लागू रहेगा. प्रधान न्यायाधीश ने कहा, ‘दिलचस्प बात यह है कि संविधान सभा के गठन और निर्णय लेने के बाद शासन व्यवस्था क्या होनी चाहिए, इस पर अनुच्छेद 370 चुप है. एकदम सन्नाटा है. अगर अनुच्छेद 370 पर पूरी तरह से चुप्पी है तो अनुच्छेद 370 संभवतः अपने आप ही काम कर गया है.’
प्रधान न्यायाधीश ने शंकरनारायणन से पूछा कि अगर इस तर्क को स्वीकार किया जाए, तो इसका मतलब है कि एक बार अनुच्छेद 370 अपने आप काम कर गया तो जम्मू कश्मीर का संविधान शून्य को भर देगा और यह सर्वोच्च दस्तावेज होगा. प्रधान न्यायाधीश ने कहा, ‘अब सवाल यह होगा कि क्या संघीय इकाई का संविधान संघीय इकाई के स्रोत से ऊपर उठ सकता है.’ उन्होंने कहा कि मुद्दा यह है कि क्या अदालत यह कहती है कि भारतीय संविधान को इस तरह से पढ़ा जाना चाहिए कि जम्मू कश्मीर के संविधान को भारतीय संविधान से ऊपर एक प्रमुख दस्तावेज माना जाए। शंकरनारायणन ने कहा कि यह उनका तर्क है कि संविधान सभा का अस्तित्व समाप्त होने के बाद अनुच्छेद 370 अपने आप लागू हो गया, इसलिए इसे नहीं छुआ जाना चाहिए. पीठ ने कहा, ‘लेकिन, अगर अनुच्छेद 370 का अंतिम बिंदु संविधान सभा है तो क्या यह आवश्यक नहीं है कि इसे क्रियान्वित करने के लिए जम्मू कश्मीर राज्य की संविधान सभा के कार्य को इस (भारतीय) संविधान में समाहित किया जाए.’
3. जब सरकार से सहमत हुआ सुप्रीम कोर्ट
एक समय ऐसा आया जब सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र की इस दलील से प्रथमदृष्टया सहमति जताई कि जम्मू-कश्मीर का संविधान भारतीय संविधान के अधीन है. सॉलिसिटर जनरल मेहता ने कहा कि यह स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त सामग्री है कि जम्मू-कश्मीर का संविधान भारत के संविधान के अधीनस्थ है और जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा वास्तव में कानून बनाने वाली विधानसभा थी. इस पर पीठ ने साफ कहा, 'एक स्तर पर आप सही हो सकते हैं कि भारत का संविधान वास्तव में एक दस्तावेज है जो जम्मू-कश्मीर के संविधान की तुलना में उच्च स्तर पर है.' हालांकि पीठ ने यह भी कहा कि इस तर्क के दूसरे हिस्से को स्वीकार करना कठिन होगा कि जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा वास्तव में, अनुच्छेद 370 के प्रावधान के रूप में एक विधानसभा थी.
4. संविधान सभा को 'विधान सभा' किसने किया?
याचिकाकर्ताओं ने आरोप लगाया कि प्रावधान को निरस्त करने में संवैधानिक धोखाधड़ी हुई है. इस पर अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणी ने कहा कि अनुच्छेद 370 को निरस्त करना आवश्यक था और अपनाई गई प्रक्रिया में कोई खामी नहीं है तो प्रधान न्यायाधीश ने कहा, ‘हम ऐसी स्थिति नहीं बना सकते जहां अंत साधन को उचित ठहराता हो। साधन को साध्य के अनुरूप होना चाहिए.’ आगे प्रधान न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने केंद्र की ओर से पेश सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता से कहा कि उन्हें यह बताना होगा कि अनुच्छेद 370 के खंड 2 में मौजूद ‘संविधान सभा’ शब्द को पांच अगस्त 2019 को ‘विधान सभा’ शब्द से कैसे बदल दिया गया, जिस दिन अनुच्छेद 370 के प्रावधानों को खत्म किया गया. प्रधान न्यायाधीश ने मेहता से कहा, ‘आपको यह तर्क देना होगा कि यह एक संविधान सभा नहीं बल्कि अपने मूल रूप में एक विधान सभा थी। आपको यह जवाब देना होगा कि यह अनुच्छेद 370 के खंड 2 के साथ कैसे मेल खाएगा जो विशेष रूप से कहता है कि संविधान सभा का गठन संविधान बनाने के उद्देश्य से किया गया था.’
5. चीफ जस्टिस की वो बड़ी बात
जी हां, अगस्त में सुनवाई के 11वें दिन भारत के CJI डी वाई चंद्रचूड़ ने कहा कि अनुच्छेद 35ए को लागू करने से समानता, देश के किसी भी हिस्से में नौकरी करने की स्वतंत्रता और अन्य मौलिक अधिकार छीन लिए गए थे. इससे पहले केंद्र की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने इस विवादास्पद प्रावधान का उल्लेख करते हुए कहा था कि यह केवल पूर्ववर्ती जम्मू-कश्मीर राज्य के स्थायी निवासियों को विशेष अधिकार देता है और यह भेदभावपूर्ण है. जम्मू-कश्मीर के दो बड़े राजनीतिक दलों का नाम लिए बगैर केंद्र ने संविधान पीठ को बताया कि नागरिकों को गुमराह किया गया था कि जम्मू और कश्मीर के लिए विशेष प्रावधान भेदभाव नहीं बल्कि विशेषाधिकार थे. आज भी दो दल अदालत के समक्ष अनुच्छेद 370 और 35ए का बचाव कर रहे हैं। इस पर सीजेआई चंद्रचूड़ ने कहा कि अनुच्छेद 35ए को लागू करके समानता, देश के किसी भी हिस्से में पेशा करने की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकारों को छीन लिया गया। यहां तक कि कानूनी चुनौतियों से छूट एवं न्यायिक समीक्षा की शक्ति भी प्रदान की.
6. 370 पर ब्रेग्जिट जैसा जनमत संग्रह हो?
वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने दलील रखी कि संविधान के अनुच्छेद 370 को निरस्त करना ब्रेग्जिट की तरह एक राजनीतिक कृत्य था, जहां ब्रिटिश नागरिकों की राय जनमत संग्रह के माध्यम से प्राप्त की गई थी. सिब्बल ने कहा कि जब पांच अगस्त 2019 को अनुच्छेद 370 को निरस्त किया गया था तब ऐसा नहीं था. उन्होंने कहा, 'संसद ने जम्मू-कश्मीर पर लागू संविधान के प्रावधान को एकतरफा बदलने के लिए अधिनियम को अपनी मंजूरी दे दी। यह मुख्य प्रश्न है कि अदालत को तय करना होगा कि क्या भारत सरकार ऐसा कर सकती है.’ सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 को निरस्त करने पर ब्रेग्जिट जैसे जनमत संग्रह का कोई सवाल ही नहीं है क्योंकि न्यायालय के सामने सवाल यह है कि क्या इसे निरस्त करना संवैधानिक रूप से वैध था. न्यायालय ने कहा कि भारत एक संवैधानिक लोकतंत्र है, जहां इसके निवासियों की इच्छा केवल स्थापित संस्थानों के माध्यम से ही सुनिश्चित की जा सकती है. ब्रिटेन के यूरोपीय संघ से अलग होने को ‘ब्रेग्जिट’ कहा जाता है.
7. विलय के साथ संप्रभुता का सवाल
अगस्त में सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अक्टूबर 1947 में पूर्व रियासत के विलय के साथ जम्मू-कश्मीर की संप्रभुता का भारत को समर्पण परिपूर्ण था और यह कहना मुश्किल है कि संविधान के अनुच्छेद 370 के तहत पूर्ववर्ती राज्य को मिला विशेष दर्जा स्थायी प्रकृति का था. पांच जजों की संविधान पीठ ने कहा कि एक बार संविधान के अनुच्छेद 1 में कहा गया है कि भारत जम्मू और कश्मीर सहित राज्यों का एक संघ होगा, संप्रभुता का हस्तांतरण सभी मामलों में पूरा हो गया है. भारतीय संविधान की अनुसूची-1 में राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों की सूची और उनकी सीमा क्षेत्रीय अधिकार क्षेत्र शामिल हैं और सूची में जम्मू कश्मीर शामिल है. पीठ ने कहा कि यह नहीं कहा जा सकता है कि अनुच्छेद 370 के बाद जम्मू-कश्मीर में संप्रभुता के कुछ तत्व बरकरार रखे गए थे. प्रधान न्यायाधीश ने कहा, 'एक बात बिल्कुल स्पष्ट है कि भारत के साथ जम्मू-कश्मीर की संप्रभुता का कोई सशर्त समर्पण नहीं हुआ है. संप्रभुता का समर्पण परिपूर्ण था. एक बार जब संप्रभुता पूरी तरह से भारत में निहित हो गई, तो एकमात्र प्रतिबंध (राज्य के संबंध में) कानून बनाने की संसद की शक्ति पर था. उन्होंने कहा, 'हम अनुच्छेद 370 के बाद के संविधान को एक दस्तावेज के रूप में नहीं पढ़ सकते हैं जो जम्मू-कश्मीर में संप्रभुता के कुछ तत्वों को बरकरार रखता है.' (भाषा के इनपुट के साथ)