कहानी उस बाहुबली की जिसके दरबार में फरियादी जमीन पर बैठकर सुनाते थे `प्रभु` को अपनी फरियाद
Prabhunath Singh: बिहार की राजनीति में प्रभुनाथ सिंह की गिनती कद्दावर नेताओं में की जाती है. एक जमाने में इलाके में उनकी तूती बोलती थी.
Patna: 80 के दशक में देश धीरे-धीरे जमींदारी प्रथा के जकड़न से दूर हो रहा था. लेकिन देश के विभिन्न हिस्सों में जमींदारी की जगह बाहुबली लेने लगे थे. कहीं बंदूक के दम पर तो, कहीं जमीन के रसूख पर, कहीं लाठी-डंडों के जोर से तो कहीं दाब दबिश से बाहुबलियों की धमक होने लगी थी. नतीजन, आजादी के बाद से साफ-सुथरी राजनीति में दागी बाहुबलियों की एंट्री होने लगी थी.
इससे फर्क ये पड़ा कि चुनाव के समय में जो उम्मीदवार घर-घर जाकर वोट मांगते थे और मतदाता अपने स्वेच्छा से वोट डालते थे, अब वो मतदाता डर के साए में वोट डालने लगे. ये सब देश के कई हिस्सों के साथ बिहार के महाराजगंज इलाके में भी हो रहा था. दरअसल, महाराजगंज बिहार के सिवान जिले में आता है. सिवान जिला जिसे भारत के प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद का गृह जिले के रूप में भी जाना जाता है.
वहीं, एक जमाना था जब जिले में राजनीति सादगी, संयम और सौहार्द तरीके से की जाती थी. लेकिन 80 का दशक आते-आते यहां शांति, सादगी और शहर लाठियों के जोर पर खत्म होने लगा था. हद तो तब हो गई थी जब 80 और 90 दशक के बीच में लाठी-डंडों की जगह गोली बंदूक और एके-47 जैसों हथियारों ने ले ली थी.
राजनीति में एंट्री
1985 में उसी क्षेत्र में एक सीमेंट कारोबारी की एंट्री होती है जिसने सारण जिले के मशरक सीट से निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर ताल ठोक दी. उस हरेंद्र सिंह के खिलाफ जिसके पिता रामदेव सिंह की हत्या का आरोप उसपर लगाया गया था. दरअसल, हम बात कर रहे हैं एक जमाने के दबंग और बाहुबली नेता प्रभुनाथ सिंह के बारे में, जिसके बारे में कहा जाता था कि वह झुकना नहीं झुकाना जानता है. ये प्रभुनाथ सिंह का रसूख ही था कि एक निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर चुनाव लड़ने के बावजूद भी जिले के प्रभावशाली व्यक्ति रामदेव सिंह के बेटे हरेंद्र सिंह को आसानी से चुनाव में धूल चटा दी और यहीं से प्रभुनाथ सिंह का राजनीतिक करियर शुरू हुआ.
छपरा का नाथ
प्रभुनाथ को छपरा का नाथ भी कहा जाने लगा. राजपूत बिरादरी से आने वाले प्रभुनाथ सिंह ने इलाके के साथ-साथ बिहार की राजनीति में ऐसी धाक जमाई कि उन्हें 90 के दशक के सबसे प्रभावशाली पार्टी जनता दल ने अपनी पार्टी में खींच लिया. अर्श की ऊंचाइयों को छू रहे प्रभुनाथ सिंह ने जनता दल को निराश नहीं किया और 90 के चुनाव में भारी मतों के अंतर से जीता.
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विधायक अशोक सिंह से अदावत
जानकारी के अनुसार, अभी तक अपने रसूख और प्रभाव से मशरक विधानसभा का चुनाव जीते आ रहे प्रभुनाथ सिंह को चुनौती देने वाले की एंट्री हो गई. अभी तक राज कर रहे प्रभुनाथ सिंह को उसी क्षेत्र के अशोक सिंह ने चुनौती दे दी. अशोक सिंह की ये अदावत बाहुबली के रूप में एक और काफी पहचान बना चुके प्रभुनाथ सिंह को नागवार गुजरी.
प्रभुनाथ सिंह से दुश्मनी का नतीजा अशोक सिंह को तब झेलना पड़ा जब सारण के कंपलेक्स में अशोक सिंह पर कुछ बंदूकधारियों ने ताबड़तोड़ फायरिंग कर दी. वो तो भगवान का शुक्र है कि अशोक सिंह बच गए, लेकिन राजनीतिक गलियारों में ये आरोप लगाया गया कि प्रभुनाथ सिंह और उनके भाई केदारनाथ सिंह ने यह हमला करवाया है. जल्द ही उनका जनता दल से मोहभंग हो गया तो जनता दल ने 90 में आए मंडल कमीशन को पार्टी समर्थन कर दिया. ठीक उसी समय प्रभुनाथ ने पार्टी से नाता तोड़कर उस समय के एक और बाहुबली आनंद मोहन के साथ मिलकर बिहार पीपल्स पार्टी बनाई.
चुनाव में मिली हार
1995 का वो साल था जब बिहार में मंडल कमीशन के बाद अगड़ी और पिछड़ों की राजनीति शुरू हो गई थी. अगड़ी और पिछड़ी जातियां एक-दूसरे को दबाने में लगी हुई थी लेकिन इस वर्चस्व की लड़ाई में पिछड़ी जातियों ने अगड़ी जातियों पर फतह हासिल कर ली और इसी का नतीजा यह था कि जिस मसरक सीट पर प्रभुनाथ सिंह ताल ठोककर चुनावी फतेह हासिल कर रहे थे, उसी सीट पर उनके खिलाफ जनता दल ने अशोक सिंह को चुना और अशोक सिंह ने पार्टी को निराश ना करते हुए अपने सबसे बड़े दुश्मन प्रभुनाथ सिंह को करारी मात दे दी.
अशोक सिंह की हत्या
इधर, प्रभुनाथ सिंह के लिए 1994 और 1995 का साल उनके राजनीतिक करियर को मोड़ने वाला साल साबित हुआ. जब उस समय सूबे के मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव (Lalu Prasad Yadav) जनता दल की तरफ से मुख्यमंत्री हुआ करते थे. लेकिन जनता दल के बाकी नेताओं ने लालू प्रसाद यादव पर जातिवाद को बढ़ाने का आरोप लगाते हुए समता पार्टी के नाम से अलग दल बना लिया.
इस तरह से 1995 का साल प्रभुनाथ सिंह के जीवन का टर्निंग प्वाइंट साबित हुआ. सारण की गलियों में मशहूर था प्रभुनाथ सिंह को मरना और मिटना तो पसंद था लेकिन पूर्व विधायक कहलाना पसंद नहीं था. इसी की बानगी 1995 के जुलाई महीने में देखने को मिली, जब विधायक बनकर अशोक सिंह को उनके सरकारी आवास में कुछ बंदूकधारियों ने गोलियों से भून डाला और ये सब तात्कालीक मुख्यमंत्री लालू यादव के आवास से सिर्फ 100 मीटर की दूरी पर हुआ. इस हत्याकांड में बिहार की राजनीति में भूचाल ला दिया. साथ ही प्रभुनाथ सिंह के कद को और भी बढ़ा दिया.
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पहली बार गए संसद
वहीं, 1996 में जब बिहार की राजनीति में एक और बड़ा भूचाल हुआ. बीजेपी के नेता उस समय राजनीति में पहचान बना रहे सुशील कुमार मोदी (Sushil Modi) ने लालू यादव खिलाफ चारा घोटाले (Fodder Scam) का आरोप लगाते हुए मोर्चा खोल दिया. इसका नतीजा देखिए खुलासे के एक साल बाद ही सीएम लालू यादव को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा और उनकी जगह मुख्यमंत्री बनी राबड़ी देवी. वहीं, इन सब घटनाओं के बीच में प्रभुनाथ सिंह सफलता की सीढ़ियां चढ़ रहे थे. पहले जनता दल, फिर बिहार पीपल्स पार्टी और अब फिर अगड़ी-पिछड़ों की राजनीति में एक कदम और आगे बढ़ाते हुए वह समता पार्टी में शामिल हो गए. अपनी लोकप्रियता के दम पर लोकसभा चुनाव जीतकर संसद पहुंच गए.
दोबारा जीती लोकसभा सीट
ये वो दौर था जब जिले में रसूखदार और प्रभावशाली नेता के रूप में जाने जाने वाले प्रभुनाथ सिंह की छवि अब बाहुबली की होने लगी थी. उन्होंने अपने क्षेत्र में प्रभाव दिखाना शुरू कर दिया था. अपनी हस्ती को इतना ऊंचा कर लिया कि कभी जिले के अधिकारी को धमकाया, तो कभी सीधे तौर पर चुनाव आयोग से पंगा ले लिया. लेकिन उनके खिलाफ सिर्फ केस दर्ज हुआ कार्रवाई नहीं हुई. अपने रसूख का प्रभाव दिखाते हुए अब बाहुबली बन चुके प्रभुनाथ सिंह ने लोकसभा चुनाव जेडीयू के टिकट पर लड़ते हुए शानदार तरीके से जीत हासिल की. हालांकि, उन पर आरोप लगा कि उन्होंने नोट के बदले वोट खरीदा है. लेकिन हद तो तब हो गई जब उन्हें रामदेव सिंह की हत्या में बरी कर दिया गया और साथ ही अशोक सिंह हत्याकांड में भी उन पर कोई कार्रवाई नहीं हो रही थी.
प्रभुनाथ का प्रभु अवतार
2000 आते-आते प्रभुनाथ सिंह बिहार के एक कद्दावर नेता के रूप में जाने जाने लगे थे और उन्होंने अपने कद का फायदा उठाते हुए समता पार्टी और जेडीयू तीनों का विलय करवा दिया और फिर 2004 के चुनाव को प्रभावशाली तरीके से जीते हुए फिर से संसद पहुंचे. सियासत के रसूख का फायदा उठाते हुए अशोक सिंह हत्याकांड में उनको बरी कर दिया गया. वहीं, जब प्रभुनाथ सिंह की छवि सिर्फ राज्य के नेता नहीं बल्कि एक राष्ट्रीय नेता के तौर पर थी.
उन्होंने सोनिया गांधी तक के विदेशी मुद्दे पर भी आलोचना की थी, साथ में उन्होंने उनका बिहार में बाहुबली का अंदाज तब देखा जब वह सरेआम सिगरेट के धुएं का छल्ला उड़ाते हुए दिखाई देते थे. लेकिन बात यहीं तक सीमित रहती तो कुछ और थी. सीमेंट कारोबार से अपने करियर का शुरुआत करने वाले प्रभुनाथ सिंह अब जिले में महाराज की उपाधि रखने लगे थे. राजाओं-महाराजाओं की तरफ अपने क्षेत्र में दरबार लगाते थे और दरबारी जमीन पर बैठकर उनसे न्याय की फरियाद करते थे. और वो सिगरेट के धुएं का छल्ला उड़ाते हुए फरियादियों को न्याय दिलवात थे.
राजनीतिक पतन
कहा जाता है कि जिंदगी की रेखाएं हमेशा सीधी लाइन में नहीं चलती. कभी ऊपर कभी नीचे समय के साथ होती ही रहती है. यही प्रभुनाथ सिंह के साथ हुआ. जब 2009 के लोकसभा चुनाव में महज 3000 से भी कम अंतर से चुनाव हार गए. 25 सालों से लगातार चुनाव जीतते आ रहे प्रभुनाथ सिंह के लिए ये किसी झटके से कम नहीं था.
इधर, 2009 ईस्वी के बाद प्रभुनाथ सिंह की जिंदगी ने करवटें लेना शुरू कर दिया था. प्रभुनाथ सिंह अर्श से फर्श की ओर लौटने लगे. भले ही 2013 में उमाशंकर सिंह के निधन के बाद उन्हें आरजेडी के तरफ से उपचुनाव में जीत मिली, लेकिन 2014 में मोदी लहर होने से एक बार फिर हार मिली. साथ ही अभी तक जदयू में रहे प्रभुनाथ सिंह अपने पुराने धुरंधर विरोधी लालू प्रसाद यादव की पार्टी आरजेडी में शामिल हो गए और यहीं से उनका राजनीतिक पतन शुरू हो गया.
22 साल पुराने मामले में कुछ समय बाद ही विधायक अशोक सिंह हत्याकांड में प्रभुनाथ सिंह को अपने भाइयों समय आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई जिसके कारण वह सांसद के चुनाव लड़ने के लिए आयोग घोषित हो गए. तब से प्रभुनाथ सिंह झारखंड की जेल में रातें गिन रहे हैं. प्रभुनाथ सिंह के खिलाफ 40 गंभीर मुकदमें हैं, लेकिन उन्हें अब तक केवल एक ही केस में सजा मिली है.
इस तरह से एकछत्र राज का सपना देखने वाले एक बाहुबली नेता का राजनीतिक करियर अस्त हो गया. लेकिन भारतीय राजनीति में कुछ स्थाई नहीं है. समय और परिस्थिति यहां किसी की भी किस्मत बदलने में देर नहीं लगाती.