Patna: हिन्दुस्तान एक उत्सवधर्मी मुल्क़ है, यहां हमें जश्न मनाने का बस मौक़ा चाहिए. बिहार-झारखंड के बगल के बंगाल में एक कहावत है कि 'बारो मासे तेरो पार्बन' यानी बारह महीने में तेरह त्योहार, कुछ ऐसा है हमारा हिन्दुस्तान. समय के साथ जीवन के हर पहलू में बदलाव देखने को मिला, सबकुछ बदला यहां तक कि त्योहार मनाने का तरीका भी बदल गया.


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दुर्गा पूजा को भव्य रूप से मनाने का इतिहास तक़रीबन चार सदी पुराना है. सोलहवीं शताब्दी के अंत में बंगाल के ताहिरपुर में महाराज कंशनारायण ने दुर्गापूजा का भव्य अनुष्ठान किया था. सत्रहवीं शताब्दी के आरंभ में नादिया के महाराज भवानंद और बरीसा के सुर्वण चौधरी की पूजा का भी उल्लेख मिलता है, इसके बाद बलि का रिवाज भी चल निकला जिसे ज़मींदारों और राजा रजवाड़ों ने आगे बढ़ाया. 20वीं शताब्दी के शुरुआत में 12 लोगों की तरफ से शुरू हुई हुगली की गुप्तीपाड़ा पूजा को पहली सार्वजनिक पूजा कहा जा सकता है. 1910 में बलरामपुर वसुघाट पर एक धार्मिक सभा ने सार्वजनिक दुर्गापूजा मनाने की परंपरा शुरू की. धीरे-धीरे इसकी शुरुआत बंगाल-बिहार से होते हुए देशभर में हो गई.


दुर्गा पूजा सेलिब्रेट करने के तरीके में जो सबसे बड़ा बदलाव आया, वो है त्योहार में दिखावे की प्रवृत्ति. अब हम उत्सव कम मनाने लगे, दिखावे में ज्यादा यक़ीन करने लगे. पड़ोसियों को भूलकर हम दूर जाकर दशहरा मनाने में यकीन करने लगे, दशहरा हमारे लिए छुट्टी का मौका हो गया, उसे एन्जॉय करने बाहर जाने लगे. एक वक्त था जब दीप जलाकर माता की आराधना का चलन था.


पहले दुर्गापूजा के मौके पर सज़ावट के लिए दीवारों पर चित्र बनाने का चलन था, दुर्गा अष्टमी या फिर अहोई अष्टमी के मौके पर तरह-तरह की चित्रकारी होती थी. चित्र बनाने के लिए चावल के घोल और दूसरे प्राकृतिक रंगों का इस्तेमाल किया जाता था. अब बदलाव की बयार का असर इस कारीगरी पर भी पड़ा, अब बने-बनाए चित्रों का चलन शुरू हो गया, मूर्ति बनाने की बजाए बाज़ार से खरीदी जाने लगी.


आज दुर्गापूजा का त्योहार इतना भव्य हो गया है कि इसकी तैयारी महीनों पहले शुरू हो जाती है, इसके लिए जगह-जगह पूजा कमेटियां बनाई जाती है, चंदा इकट्ठा कर भव्य पंडालों और दिव्य मूर्तियों का निर्माण कराया जाता है. सबकुछ भव्य है, बस बदल-बदला सा लगता है उत्सव का आनंद और उसे मनाने का तरीका.