बिहार विधानसभा चुनावों में नीतीश-लालू-कांग्रेस का महागठबंधन बड़ी जीत की ओर आगे बढ़ रहा है। इस जीत के साथ ही नीतीश कुमार लगातार चौथी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ लेंगे। लेकिन बड़ा सवाल यह कि महागठबंधन और नीतीश कुमार जीत का जो स्वाद चखेंगे उसके पीछे का चाणक्य कौन है? 


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कहते हैं कि लगभग डेढ़ साल पहले 2014 लोकसभा चुनाव में जिस शख्स ने नरेंद्र मोदी की प्रधानमंत्री बनने की उम्मीदों के गुब्बारे में हवा भरी थी, वही शख्स आज बिहार में मोदी के मंसूबों की हवा निकाल कर नीतीश कुमार के सिर पर ताज पहना दिया। जी हां! इस चाणक्य का नाम है प्रशांत किशोर। बिहार चुनाव में प्रशांत किशोर ने नीतीश को फिर से मुख्यमंत्री बनाने का बीड़ा उठाया था।


दरअसल, प्रशांत किशोर की टीम अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव प्रचार की तरह जनसंवाद को लेकर नए-नए प्रयोग करती है। नमो के लिए 'चाय पर चर्चा' की तर्ज पर बिहार में चुनाव के करीब आने पर नीतीश के लिए 'ब्रेकफास्ट विद सीएम' कार्यक्रम शुरू किया। आप गौर करें तो बिहार में महागठबंधन का जो प्रचार अभियान था वह पूरे समय चुस्त नजर आया। रंग किसी भी पार्टी के लिए ब्रैंडिग स्ट्रेटेजी का महत्वपूर्ण हिस्सा होता है और इन रंगों के पीछे दिमाग था प्रशांत किशोर का। इन चटक रंगों ने नीतीश कुमार की जनता दल (यूनाइटेड) और लालू प्रसाद यादव की राष्ट्रीय जनता दल की ओर से पहले इस्तेमाल किए जा रहे बोरिंग हरे और सफेद रंग की जगह ली।


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रंग की बुनियाद पर रणनीति बनाते वक्त प्रशांत किशोर को ये अंदाजा था कि मुकाबला भाजपा के भगवा रंग से होना है। प्रशांत किशोर की टीम के मुताबिक केसरिया रंग काफी चमकदार है और यही वजह है कि भाजपा का अभियान अक्सर किसी भी चुनाव में काफी चमक-दमक वाला दिखता है। ऐसे में हमें कहीं ज़्यादा चमक-दमक वाले रंग का इस्तेमाल करना था, इसलिए हमने अभियान के दौरान लाल और पीले रंग का अधिक से अधिक इस्तेमाल किया।


दिसंबर, 2014 में प्रशांत ने मोदी का दामन छोड़कर नीतीश की मदद शुरू की। इसके पीछे क्या वजह रही, हम इस विवाद में नहीं पड़ते, लेकिन प्रशांत किशोर को बिहार चुनाव के रूप में एक ऐसी जिम्मेदारी मिली जिसमें उन्हें ये साबित करना था कि 2014 के चुनाव में मोदी की प्रचंड जीत के पीछे प्रशांत किशोर की रणनीति ही कारगर थी। 


नीतीश कुमार पर मोदी के डीएनए वाले बयान के बाद लोगों के डीएनए सैंपल जमा करके मोदी को भेजने का बहुचर्चित आइडिया प्रशांत किशोर का ही था। जनता तक नीतीश की बात पहुंचाने के लिए उन्होंने 'चौपाल पर चर्चा', 'पर्चे पर चर्चा', 'हर घर दस्तक', नीतीश कुमार पर कॉमिक्स 'मुन्ना से नीतीश' और मोदी के डीएनए वाले बयान के खिलाफ 'शब्द वापसी आंदोलन' जैसे कार्यक्रम चलाए। बिहार के पढ़े-लिखे और इंटरनेट सेवी लोगों के लिए भी 'आस्क नीतीश' जैसे हाईटेक कार्यक्रम भी चलाए जा रहे हैं। 


भाजपा के संसाधनों के सामने महागठबंधन के पास संसाधनों की कमी को देखते हुए प्रशांत किशोर ने टीवी और प्रिंट विज्ञापन पर एक पैसा नहीं खर्च करने का फैसला लिया। उम्मीदवार अपना प्रचार खुद से कर सकते थे। प्रशांत किशोर ने इसकी जगह उन पैसों का इस्तेमाल भाजपा का जवाब देने के लिए रेडियो विज्ञापन दिए और स्वयंसेवियों को तैयार किया। स्वयंसेवियों के लिए तीन रणनीतियां बनाई गईं, इनमें नीतीश कुमार का पत्र लेकर स्वयंसेवियों को दरवाजे- दरवाजे तक भेजा गया। इसमें एक नंबर पर मिस्ड कॉल करने की अपील की गई थी। इसके जवाब में उन्हें नीतीश कुमार का रिकॉर्डेड कॉल किया जाता था।


प्रशांत किशोर ने ये भी सुनिश्चित किया कि नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव एक साथ बहुत ज्यादा रैलियों में नहीं जाएं, क्योंकि दोनों नेताओं की स्टाइल अलग अलग थी, उनके श्रोता अलग-अलग हैं और जातिगत पकड़ भी अलग-अलग है। ऐसे में प्रशांत किशोर ने तय किया कि वे दोनों अलग-अलग सभी 243 क्षेत्रों में एक बार जरूर जाएं। नीतीश जहां अपने भाषणों में विकास की बात करते दिखते थे, वहीं लालू सामाजिक न्याय और जातिगत ध्रुवीकरण पर जोर दे रहे थे। इसके पीछे दर्शन यही था कि दोनों नेता एक दूसरे के पूरक नजर आएं। 


पटना में मुख्यमंत्री निवास 7 सर्कुलर रोड के एक कमरे से एक आईपैड, एक लैपटॉप और मोबाइल के सहारे प्रशांत किशोर पूरे आत्मविश्वास के साथ महागठबंधन की चुनावी व्यूहरचना करने में व्यस्त रहे। वे चुनाव में एक तरह से नीतीश कुमार के सारथी की भूमिका में रहे और चुनाव प्रचार के सिलसिले में उनके लिए वही रणनीति अपनाते रहे जो उन्होंने लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के लिए अपनाई थी। इस रणनीति ने काम किया और परिणाम सबसे सामने हैं।


मोदी हों या फिर नीतीश, स्पष्ट बहुमत से राजनीतिक हलकों में जीत के भरोसे का पर्याय बने प्रशांत किशोर मूलतः बिहार के ही हैं। जानकारी के मुताबिक किशोर न तो एमबीए हैं और न ही मार्केटिंग एक्सपर्ट। मोदी के संपर्क में आने से पहले उनका राजनीति से भी कोई पेशेवर ताल्लुक भी नहीं था। वे संयुक्त राष्ट्र में जन स्वास्थ्य विशेषज्ञ के तौर पर काम कर रहे थे। वहीं रहते उन्होंने भारत में खासकर महाराष्ट्र, गुजरात और कर्नाटक जैसे विकसित राज्यों में कुपोषण की समस्या पर एक शोध-पत्र तैयार कर भारत सरकार को भेजा था। दिल्ली में बैठे स्वास्थ्य मंत्रालयों के नौकरशाहों ने उस शोध-पत्र को संबंधित राज्य सरकारों को भेज दिया। उसी शोध-पत्र को देखने के बाद गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रशांत से संपर्क किया और उन्हें गुजरात आने का न्योता दिया।
 
प्रशांत जब छुट्‌टी पर भारत आए तो नरेंद्र मोदी से मिले। मोदी ने उनकी बातों से प्रभावित होकर उन्हें कुपोषण मुक्त गुजरात के लिए काम करने का प्रस्ताव दे दिया, जिसे प्रशांत ने स्वीकार कर लिया। संयुक्त राष्ट्र की नौकरी छोड़कर वे गुजरात आ गए। मोदी ने उन्हें काम करने के लिए मुख्यमंत्री आवास में ही एक कक्ष आवंटित करा दिया। इसी बीच गुजरात विधानसभा के चुनाव आ गए। मोदी का मुख्यमंत्री आवास चुनावी रणनीति का केंद्र था, ठीक उसी तरह से जैसे पटना में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का सीएम आवास महागठबंधन की जीत के लिए चुनावी रणनीति का केंद्र बना।