पटना/नई दिल्ली: Chhath Ghat se Live: आकाश में सूर्य देव सिर की सीध से अब थोड़े तिरछे हो चले थे. घर की सबसे बूढ़ी माई ने पहले आंगन से आसमान निहारा फिर अपने मोटे लेंस वाले चश्मे को नाक पर फिट करते हुए अपनी मोतियाबिंद वाली आंखों से सामने दीवार पर लगी घड़ी में समय देखने की कोशिश की. धुंधली आंखों को कुछ साफ नजर नहीं आया तो पास में खेल रहे अपने किसी किशोर पोते से बोलीं, ए बाबू, कै बाजत हा हो... 


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पोते ने जवाब दिया, माई पौने तीन. का??? तीन बजे वाला हा.. इस प्रश्नवाचक वाक्य के साथ ही उनके कदम तेजी से उस ओर घूम गए, जिधर कमरे में छठ का चूल्हा बनाकर पूजा गया है. वहां पहुंची तो देखा कि बड़ी बहू सारा ठेकुआ बनाकर अब दौरी में सजा रही है. माई को ये जानकर बड़ा संतोष हुआ कि सबसे भारी काम पूरा हुआ. अब उनके कदम वापस आंगन की ओर मुड़ गए, जहां छोटी बहू ने बाजार से लाए सारे फलों को धुलने के लिए इकट्ठा कर रखा था. 


बाहर अहाते में घर के पुरोहित जी भी पत्रा खोले बैठे हुए हैं. वो बाबा को बता रहे हैं, आज कार्तिक शुक्ल षष्ठी है. आजुएं छठ के असली पूजा होखे. एही से आज के दिन छठी माई के पूजा होला. फिर उन्होंने शाम का मुहूर्त बताया और सूर्यास्त का समय भी. बोले, शाम 5 बजकर 37 मिनट पर सूर्यास्त है.


अम्मा ने बाहर की ओर घूम कर आवाज लगाई. ए, आवा सब लोग, फल धो धो कर दौरिया में लगावा. थोड़ी ही देर में कम से कम 35 लोगों का एक भरा पूरा परिवार आंगन में एक जुट होकर लाइन लगाए खड़ा था. आंगन में दो बाल्टियां रखीं थीं. उनमें गंगा जल था. लाइन में लगे लोग एक एक करके आते, किसी भी फल को उठाते, माथे से लगाते और गंगाजल में धुलकर जय छठी मैया कहकर किसी दौरी में रख देते. जब तक सारे फल गंगा जल से धो नहीं लिए गए, ये क्रम चलता रहा और आंगन में जय छठी मईया गूंजता रहा. 


अब तक शाम के 4 बज चुके थे. घर के बड़े लड़कों ने एक बार फिर घाट का रुख किया और सजावट को अंतिम रूप देने में जुट गए. इस बीच म्यूजिक साउंड सिस्टम भी चेक किया गया और घाट के किनारे लगी झालरों को जला दिया गया. इस बीच घर की व्रती महिलाएं बच्चे, बूढ़े नए कपड़े पहन कर तैयार हो गए. घड़ी साढ़े चार बजा चुकी थी.


अब बारी थी घाट पर पहुंचने की. लड़कों ने फलों की एक एक दौरी उठा ली. किसी लड़के ने केले का घवद उठा लिया. बहनों ने दीप दिए संभाले और अम्मा हाथ में कलश दीप लिए आगे आगे चलीं. उनके हाथ में जल रहा दीप तो महज प्रतीक मात्र था, असल में वो अपने पीछे पूरी जीवन ज्योति लिए चल रही थीं. ये वो अखंड ज्योति थी जो प्रेम और स्नेह के तेल से पीढ़ी दर पीढ़ी जलती है. 


जिस ज्योति की देख रेख की बागडोर अम्मा की सास ने दशकों पहले  उन्हें सौंपी थी, सास को उनकी सास ने और उनकी सास को उनकी सास ने. परंपरा की ये ज्योति धीरे धीरे कदम बढ़ाते घाट की वेदी तक पहुंची. घाट व्रतियों और उनके परिवार वालों से गुलजार था. नया जमाना है इसलिए बड़े बड़े म्यूजिक सिस्टम पर शीतली बयारिया, शीतल होबे पनिया... कांच ही बांस के बहंगिया, बजाया जा रहा है. इनके स्वरों में बूढी पुरातनी दादियों के रहटाए धीमे धीमे आगे बढ़ने वाले, एक ही सुर और आवाज वाले गीत खोए जा रहे हैं. उनके ऊपर उठने, अंतरा तक पहुंचने, वापस टेक पर आने की अपनी ही धुन है. सदियां बीत जाएं लेकिन कोई कंपोजर अंपोजर इसकी धुन नहीं बना सकता है. बना भी दे तो इस उमर में अम्मा, माई, दादी को सिखाए कौन? छठ मैया उनके इसी सरल सहज अंदाज से हर साल प्रसन्न होती आ रहीं हैं. परिवार बना रहे, स्वस्थ रहे ऐसा आशीष दे रहीं हैं. ये अम्मा की छठ मैया से अपनी कोई दिली बातचीत है, अम्मा जाने,मैया जानें.


सूर्य देवता अब पश्चिम से नीचे उतरने लगे हैं. आसमान के मैदान में खेल रही उनकी वाचाल बेटियां किरण, रौशनी, तेजी, माता संध्या के बुलावे पर घर को लौट रहीं हैं. अम्मा जाते हुए सूर्य देव को नमस्कार कर रही हैं. कुछ बुदबुदा रही हैं. क्या? शायद कोई मंत्र... नहीं.. शायद वो परिवार के हर बूढ़े बच्चे, बेटा बेटी बहू और छह महीने पहले हुए नई पोती का नाम भी छठी माता को नोट करा रहीं हैं. वो कह रहीं हैं.. हे मईया, सबको बनाए रखना, बचाए रखना, सजाए रखना, जीवन ज्योति जलाए रखना. छठ माई की जय...


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